राम नवमी पर होती है अनंत और असीम राम की पूजा!
(चैत राम नवमी पर विशेष)
के. विक्रम राव
आज चैत राम नवमी है। आज ही के दिन त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्म हुआ था। राम की कहानी युगों से भारत को संवारने में उत्प्रेरक रही है। इसीलिए राष्ट्र के समक्ष सुरसा के जबड़ों की भांति फैले हुए सद्यः संकटों की राम कहानी समझना और उनका मोचन करना, इसी से मुमकिन है। शर्त है राम में रमना होगा, क्योंकि वे ‘जन रंजन भंजन सोक भयं’ हैं। बापू का अनुभव था कि जीवन के अँधेरे, निराश क्षणों में श्रीराम चरित मानस में उन्हें सुकून मिलता था। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि राम का असर करोड़ों के दिमाग पर इसलिए नहीं है कि वे धर्म से जुड़े हैं, बल्कि इसलिए कि ज़िंदगी के हर एक पहलू और हर एक कामकाज के सिलसिले में मिसाल की तरह राम आते हैं। आदमी तब उसी मिसाल के अनुसार अपने कदम उठाने लग जाता है। इन्हीं मिसालों से भरी राम की किताब को एक बार विनोबा भावे ने सिवनी जेल में ब्रिटेन में शिक्षित सत्याग्रही जेसी. कुमारप्पा को दिया और कहा, ‘दिस रामचरित मानस ईज बाइबिल एण्ड शेक्सपियर कम्बाइंड।’ लेकिन इन दोनों अंग्रेजी कृतियों की तुलना में राम के चरित की कहानी आधुनिक है, क्योंकि हर नई सदी की रोशनी में वह फिर से सुनी, पढ़ी और विचारित होती है। तरोताजा हो जाती है।
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राम नवमी पर हमें कुछ बातें याद करने की जरूरत है। गांधी और लोहिया ने सुझाया भी था कि हर धर्म की बातों की युगीय मान्यताओं की कसौटी पर पुनः समीक्षा होनी चाहिए। गांधीजी ने लिखा था, ‘कोई भी (धार्मिक) त्रुटि शास्त्रों की दुहाई देकर मात्र अपवाद नहीं करार दी जा सकती है।’ (यंग इंडिया, 26 फरवरी 1925)। बापू ने नए ज़माने के मुताबिक कुरान की भी विवेचना का ज़िक्र किया था। लोहिया तो और आगे बढ़े। उन्होंने मध्यकालीन रचनाकार संत तुलसीदास के आधुनिक आलोचकों को चेतायाः ‘मोती को चुनने के लिए कूड़ा निगलना ज़रूरी नहीं है, और न कूड़ा साफ करते समय मोती को फेंक देना।’ रामकथा की उल्लास भावना से अनुप्राणित होकर लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला की सोची थी। उसके पीछे दो प्रकरण भी थे। कामदगिरी के समीप स्फटिक शिला पर बैठकर एक बार राम ने सुंदर फूल चुनकर काषाय वेशधारिणी सीता को अपने हाथों से सजाया था। (अविवाहित) लोहिया की दृष्टि में यह प्रसंग राम के सौंदर्यबोध और पत्नीव्रता का परिचायक है, जिसे हर पति को महसूस करना चाहिए। स्वयं लोहिया ने स्फटिक शिला पर से दिल्ली की ओर देखा था। सोचा भी था कि लंका की तरह केंद्र में भी सत्ता परिवर्तन करना होगा। तब नेहरू कांग्रेस का राज था। फिर लोहिया को अपनी असहायता का बोध हुआ था, रावण रथी, विरथ रघुवीरा की भांति। असमान मुकाबला था, हालांकि लोहिया के लोग रथी हुए उनके निधन के बाद।
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महात्मा गांधी के बारे में एक अचम्भा अवश्य होता है। द्वारका के निकट सागर किनारे (पोरबंदर) वे पैदा हुए, पर जीवनभर सरयू तटी राम के ही उपासक रहे। वे द्वारकाधीश को मानों भूल ही गए। शायद इसीलिए कि गांधीजी जनता के समक्ष राम के मर्यादित उदाहरण को पेश करना चाहते हों। रामराज ही उनके सपनों का भारत था, जहाँ किसी भी प्रकार का ताप नहीं था, शोक न था। आमजन का राम से रिश्ता दशहरा में नए सिरे से जुड़ता है। रामलीला एक लोकोत्सव है जिसमें राम की जनपक्षधरता अभिव्यक्त होती है। राजा से प्रजा, फिर वे नर से नारायण बन जाते हैं। सीता को चुराकर भागने वाले रावण से शौर्यपूर्वक लड़ने वाले गीध जटायु को अपनी गोद में रखकर राम उसकी सुश्रुषा करते हैं, फिर उसकी अंत्येष्टि करते हैं जैसे वह उनका कुटुंबीजन हो। रामकथा के टीकाकार जितना भी बाली के वध की व्याख्या करें, वस्तुतः राम का संदेश, उनकी मिसाल, असरदार है कि न्याय और अन्याय के बीच संघर्ष में तटस्थ रहना अमानवीय है।
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अपनी समदृष्टि, समभाव के बावजूद राम को वंचित और शोषित सुग्रीव प्यारा है। सत्ता पाकर सुग्रीव पंपानगर के राज प्रासाद में रहते हैं, मगर वनवासी राम किष्किंधा पर्वत पर कुटी बनाकर रहते हैं। ऐसी गठबंधन की सेना जो न सियासत में, न समरभूमि में कभी दिखी है। विजय के बाद आभार ज्ञापन में वानरों से राम कहते हैंः ‘तुम्हरे बल मैं रावण मारेव।’ वाहवाही लूटने की लेशमात्र भी इच्छा नहीं थी इस महाबली में। निष्णातों के आकलन में भारत को राष्ट्र का आकार राम ने दिया। सुदूर दक्षिण के सागरतट पर शिवलिंग की स्थापना की और निर्दिष्ट किया कि गंगाजल से जो व्यक्ति रामेश्वरम के इस लिंग का अभिषेक करेगा उसे मुक्ति मिलेगी। अब हिंदुओं में मोक्ष प्राप्ति की होड़ लग गई, मगर इससे हिमालय तथा सागर तट तक भौगोलिक सीमाएं तय हो गईं। भारतीय संविधान बनने के सदियों पूर्व (तब वोट बैंक भी नहीं होते थे), वनवासी राम ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को अपना कामरेड बनाया, मसलन निषादराज गुह और भीलनी शबरी। आज के अमेरिका से काफी मिलती-जुलती अमीरों वाली लंका पर रीछ-वानरों द्वारा हमला करना और विजय पाना इक्कीसवीं सदी के मुहावरे में पूंजीवाद पर सर्वहारा की फतह कहलाएगी। सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों का लेखाजोखा सर्वप्रथम परशुराम की कुल्हाड़ी (वन उपज पर अवलंबित समाज), फिर धनुषधारी राम (तीर द्वारा व्यवस्थित समाज), और हल लिए बलराम (कृषि युग का प्रारंभ) से निरूपित होता है।
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राम को आधुनिकता के प्रिज़्म में देखकर कहानीकार कमलेश्वर ने कहा था कि रामायण ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई है। (राही मासूम रज़ा पर गोष्ठी, 20 अगस्त 2003 : जोकहरा गांव, आज़मगढ़)। यह निखालिस विकृत सोच है। यह उपमा कुछ वैसे ही है कि रावण और राम मूलतः पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे, तो यह पूरब-पश्चिम की जंग थी। रावण के पिता विश्वेश्रवा गाज़ियाबाद में दूधेश्वरनाथ मंदिर क्षेत्र के निवासी थे। आजकल नोएडा प्रशासन इस पर शोध भी करा रहा है। भला हुआ कि अवध के राम और गाज़ियाबाद के रावण अब उत्तर प्रदेश में नहीं हैं, वरना राज्य के विभाजन के आंदोलन का दोनों आधार बन जाते। कमलेश्वर और उनके हमख्याल वाले भूल गए कि राम का आयाम उनके नीले वर्ण की भांति था। आसमान का रंग नीला होता है। उसी की तरह राम भी अगाध, अनंत, असीम हैं। इसीलिए आमजन के प्रिय हैं। राम नवमी के दिन लोक उनकी उपासना करता है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

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