रावण ने क्यों किया सीता हरण जैसा निंदनीय कृत्य

शिवाकान्त मिश्र ‘विद्रोही’

रावण कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। वह महा विद्वान् पण्डित, कवि, बलवान और सोने की लंका का स्वामी था। कवि भी ऐसा असाधारण कि उसने संस्कृत साहित्य में शिव ताण्डव जैसी अद्वितीय रचना की। पण्डित ऐसा कि जिसने रामेश्वरम् में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम से शिव लिंग की प्राण प्रतिष्ठा करवाई। आचार्य ब्राह्मण ऐसा कि सीता जी से वचन लेकर उन्हें लंका से पुष्पक विमान से लेकर चला कि आप जब तक अपहृत और मेरे संरक्षण में हैं, तब तक मेरे आदेशों का उल्लंघन नहीं करेंगी। भले ही अपने बाबा के भाई जाम्बवन्त के निमन्त्रण को स्वीकार करना मेरी विवशता थी और राम का आचार्यत्व मैंने स्वीकार कर लिया है, लेकिन आगे भी मेरी विवशता है कि तुम्हारे जीवित रहते एक सच्चे आचार्य के रूप में तुम्हारे किसी कृत्रिम विग्रह से मैं अपने इष्ट देव भगवान शंकर के लिंग की प्राण प्रतिष्ठा नहीं करा सकता। इसलिये तुम मेरे साथ तो चलोगी किन्तु इस प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन के उपरान्त मेरे साथ ही लौट भी आओगी। वैदेही सीता से यह वचन लेकर रावण, सपत्नीक राम के हाथों भगवान शिव की प्राण प्रतिष्ठा करवाता है। फिर राम की अनुमति से उन्हें वापस लंका ले जाता है। इतना ही नहीं, आचार्य के रूप में राम को आशीर्वाद भी देता है कि हे राम, तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो। यह जानते हुए भी कि राम लंका पर विजय और उसका वध करने के लिए भगवान शिव की पूजा कर रहे हैं।
कम्बन रामायण में कहा गया है कि जब वही रावण सीता हरण करता है तो वह खलनायक कैसे हो सकता है? वास्तव में जब सूपर्णखा लंका पहुँचती है तो वह उसकी कटी नाक देखकर पूछता है कि यह समाचार क्या खरदूषण से नहीं कहा? उसका तो वहीं अखाड़ा था, उस कुलभूषण से नहीं कहा? और जब सूपर्णखा यह उत्तर देती है कि ‘वे सेना लेकर गये। वहाँ घनघोर बहुत संग्राम किया, लेकिन उस तपसी बालक ने उन सबका काम तमाम किया।’ तब बजाय दुखी होने के वह जोर से हंसा। ऐसा प्रत्येक रामायण में प्रायः मिलता है कि सूपर्णखा को मात्र आश्वासन देकर रह गया कि ठीक है, मैं उस राम को देख लूंगा। लेकिन जिस बात को मन में सोचकर हंसा और सारी लंका आश्चर्य से विस्मित रह गई, इस अपमान जनक और शोक सूचना को सुनकर उसे प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। गोस्वामी जी लिखते हैं :
ःसुर रंजन भंजन मुनि मारा।
जौ भगवंत लीन अवतारा।
ता सन जाइ बैर हठि करिहौं।
प्रान तजे भव सागर तरिहौं।’
क्योंकि उसे पता चल गया था कि
‘खर दूषण मो सम बलवंता।
इनहिं को मारइ, बिनु भगवंता!’
भगवान के हाथ से मरने का निर्णय भी रावण बहुत सोच समझ कर लेता है। यद्यपि वह मुक्तिकामी है और इस संसार से मोक्ष ही चाहता है, फिर भी स्वार्थी नहीं। वह इतना चतुर है कि अकेले मोक्ष भी नहीं चाहता। लोमश रामायण में इस कथा के बारे में बहुत स्पष्ट लिखा गया है। इसलिये निर्णय लेता है कि अन्तिम आर-पार का युद्ध मैं सबको मोक्ष दिलाकर ही करूँगा। प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने यद्यपि इस बात को विस्तार से नहीं लिखा, फिर भी संकेत कर दिया है :
‘सुधा बृष्टि भै दोउ दल ऊपर।
जिये भालु कपि नहिं रजनीचर।’
अब जब राम और रावण दोनों ही पर समान रूप से अमृत की वर्षा हुई, तो राक्षस जीवित क्यों नहीं हुए, क्योंकि वे मरे ही थे रावण की इच्छानुरूप मोक्ष हेतु, इसलिये राम को ही ध्यान में रखकर मरे थे जैसे : ‘कहाँ राम रन हतौं प्रचारी।’
रामचरित मानस में कुम्भकर्ण द्वारा तुलसी इसीलिये यह संकेत कर भी देते हैं।
अब आइये रावण की इच्छा और मोक्ष वरण के प्रसंग पर, तो उसे पता था कि इस ऐश्वर्यशाली मदिरा और सुन्दरियों की भोगपुरी में रहकर मुझसे भजन हो भी नहीं सकता। इसलिये इस सुन्दर और मोक्ष के अनुकूल सबसे उपयुक्त अवसर का सपरिवार भरपूर लाभ ही क्यों न उठा लिया जाय। इस बात का संकेत भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने रामचरित मानस में जानें अनजाने कर ही डाला है। हालांकि कोताही भी बहुत कर गये हैं, क्योंकि उन्हें रामायण से प्रयोजन ही नहीं था। वह भक्तिभाव में मानस लिख रहे थे। फिर भी…
‘होइहिं भजन न तामस देहा।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।
जो नर रूप भूपसुत कोऊ।
हरिहौं नारि जीति रन दोऊ।’
अर्थात् मैं मन, क्रम और वचन से इस बात से दृढ़ प्रतिज्ञ हूं कि मेरे इस तामसिक शरीर से भजन तो हो नहीं सकता। यदि वह मनुष्य रूप में कोई राजकुमार हैं तो इनको जीतकर (मारकर) इनकी स्त्री का अपहरण कर (उसके साथ मौज भी कर) सकूँगा। यहाँ विद्वान् पाठकों को यह शंका हो सकती है कि रावण ने ऐसा क्यों सोचा? यदि वह महान विद्वान् और तत्वदर्शी ब्राह्मण था, तो उसे सब कुछ साफ-साफ देख लेना चाहिए था। उनकी शंका के लिये बता दूँ कि वह त्रिकालदर्शी भी नहीं था। वास्तव में खरदूषण बध से आशंकित हुआ था। इसलिये ऐसा सोचने के लिये बाध्य था। अब उस जैसा कुलीन और विद्वान् परशुराम से भी बलशाली व समृद्धि में कुबेर की लंका का विजयी त्रिकालदर्शी क्यों नहीं था? इसकी चर्चा बाद में… यहां एक बात मैं आपको और भी बताना आवश्यक समझता हूँ कि बहुत लोगों की तरह मेरा भी मानना है कि मूल रामायण में उत्तर काण्ड आदिकवि महर्षि बाल्मीकि की रचना नहीं, वरन् प्रक्षिप्त है जो किसी सनातन धर्म विरोधी बौद्ध धर्म के अनुयायी ने बहुत बाद में रामायण में जोड़ा है।

(लेखक साहित्य भूषण से सम्मानित व ओज के ख्यातिलब्ध कवि हैं।)

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