Thursday, November 13, 2025
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मनोज कुमार: भारत कुमार की अनकही कहानी

देशभक्ति की मिसाल और ‘भारत कुमार’ की उपाधि

मनोरंजन डेस्क

आज बॉलीवुड ने अपने एक महान सितारे और देशभक्ति की मिसाल मनोज कुमार को खो दिया। 87 वर्ष की आयु में मुंबई के कोकिलाबेन धीरुभाई अंबानी अस्पताल में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। चिकित्सा रिपोर्ट्स के अनुसार, उनकी मृत्यु का कारण कार्डियोजेनिक शॉक था, जो एक गंभीर हार्ट अटैक (एक्यूट मायोकार्डियल इन्फेक्शन) के परिणामस्वरूप हुआ। इसके साथ ही, वे पिछले कुछ महीनों से डीकंपेंसेटेड लिवर सिरोसिस से भी जूझ रहे थे, जिसने उनकी सेहत को और कमजोर कर दिया था।

मनोज कुमार, जिन्हें ‘भारत कुमार’ के नाम से जाना जाता था, ने अपने अभिनय और निर्देशन से हिंदी सिनेमा में एक अमिट छाप छोड़ी। उनकी फिल्में न केवल मनोरंजन का साधन थीं, बल्कि देशभक्ति, सामाजिक मूल्यों और भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने का माध्यम भी थीं। आइए, उनके बचपन, जीवन, बॉलीवुड के सफर, कुछ अनसुने किस्सों और उनकी सुपरहिट फिल्मों के बारे में विस्तार से जानते हैं।

बचपन और शुरुआती जीवन

मनोज कुमार का जन्म 24 जुलाई 1937 को ब्रिटिश भारत के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत (अब पाकिस्तान का खैबर पख्तूनख्वा) के छोटे से शहर अब्बोटाबाद में हुआ था। उनका असली नाम हरिकृष्ण गिरी गोस्वामी था। वे एक पंजाबी हिंदू ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखते थे। जब वे मात्र 10 साल के थे, तब 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के कारण उनका परिवार दिल्ली आ गया। यह वह दौर था जब उन्होंने अपने जीवन में कई कठिनाइयों को देखा।

विभाजन के दौरान उनकी मां और दो महीने के छोटे भाई को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था, लेकिन दंगों के बीच डॉक्टर और नर्स भाग गए, जिसके कारण उनके भाई की मृत्यु हो गई। इस घटना ने उनके कोमल मन पर गहरा असर डाला। दिल्ली में उनका परिवार पहले विजय नगर, फिर किंग्सवे कैंप और बाद में पुराने राजेंद्र नगर में शरणार्थी के रूप में रहा। उन्होंने अपनी पढ़ाई हिंदू कॉलेज, दिल्ली से पूरी की।

बचपन से ही उन्हें फिल्मों का शौक था, खासकर दिलीप कुमार और अशोक कुमार से वे बहुत प्रभावित थे। 11 साल की उम्र में जब उन्होंने दिलीप कुमार की फिल्म ‘शबनम’ (1949) देखी, तो उन्होंने ठान लिया कि अगर वे फिल्म इंडस्ट्री में आएंगे, तो अपना नाम ‘मनोज कुमार’ रखेंगे। यह नाम उन्हें दिलीप साहब के किरदार से इतना पसंद आया कि उन्होंने अपनी पहचान इससे जोड़ ली।

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बॉलीवुड में प्रवेश और संघर्ष

मनोज कुमार का फिल्मी सफर 1957 में फिल्म ‘फैशन’ से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने एक 80 साल के बूढ़े का किरदार निभाया। यह फिल्म भले ही ज्यादा सफल न हुई, लेकिन उनके अभिनय की शुरुआत हो चुकी थी। शुरुआती दिनों में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। वे रंजीत स्टूडियोज के लिए भूत-लेखक (घोस्ट राइटर) के तौर पर काम करते थे, जहां उन्हें प्रति सीन 10 रुपये मिलते थे। फिल्मिस्तान स्टूडियो ने उन्हें 450 रुपये मासिक वेतन पर बतौर हीरो साइन करने का ऑफर दिया, लेकिन वे पंजाबी और स्टंट फिल्मों में काम नहीं करना चाहते थे। उनका सपना था कि वे हिंदी सिनेमा के बड़े सितारे बनें।

उनकी पहली बड़ी भूमिका 1960 में फिल्म ‘कांच की गुड़िया’ में मिली, जिसमें वे सईदा खान के साथ नजर आए। इसके बाद ‘रेशमी रूमाल’ (1961) और ‘पिया मिलन की आस’ (1961) में भी वे दिखे, लेकिन असली पहचान उन्हें 1962 में विजय भट्ट की फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ से मिली, जिसमें उनकी जोड़ी माला सिन्हा के साथ खूब जमी। इस फिल्म ने उन्हें रोमांटिक हीरो के रूप में स्थापित किया।

देशभक्ति की मिसाल और ‘भारत कुमार’ की उपाधि

मनोज कुमार का करियर 1960 और 70 के दशक में अपने चरम पर पहुंचा। उनकी जिंदगी में एक बड़ा मोड़ तब आया, जब 1965 में फिल्म ‘शहीद’ रिलीज हुई। यह फिल्म स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के जीवन पर आधारित थी। इस फिल्म में उनके संयमित लेकिन प्रभावशाली अभिनय ने दर्शकों का दिल जीत लिया।

इसके बाद 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उनसे ‘जय जवान जय किसान’ नारे पर फिल्म बनाने का आग्रह किया। इसका नतीजा था 1967 में रिलीज हुई फिल्म ‘उपकार’। इस फिल्म में उन्होंने एक किसान और सैनिक की दोहरी भूमिका निभाई और इसे लिखा-निर्देशित भी किया। ‘मेरे देश की धरती’ जैसे गीत आज भी देशभक्ति का पर्याय हैं। इस फिल्म की सफलता ने उन्हें ‘भारत कुमार’ की उपाधि दिलाई।

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कुछ अनसुने किस्से

मनोज कुमार के जीवन से जुड़े कई रोचक किस्से हैं, जो उनकी सादगी और प्रतिभा को दर्शाते हैं। मसलन, फिल्म ‘वो कौन थी?’ (1964) में उन्होंने स्क्रिप्ट में बदलाव किए थे। एक बार शिमला में शूटिंग के दौरान उन्हें लगा कि फिल्म में कुछ कमी है। उन्होंने डायरेक्टर राज खोसला को नए संवाद लिखकर दिए, जिन्हें खोसला ने तुरंत स्वीकार कर लिया। इस फिल्म का गाना ‘लग जा गले’ पहले खारिज हो चुका था, लेकिन मनोज ने संगीतकार मदन मोहन से इसे फिर से सुनवाया और राज खोसला को मनाया। बाद में यह गाना क्लासिक बन गया।

एक और किस्सा उनकी फिल्म ‘शोर’ (1972) से जुड़ा है। इस फिल्म में शर्मिला टैगोर को उनकी पत्नी का किरदार निभाना था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। तब मनोज कुमार ने उस रोल के लिए स्मिता पाटिल को ऑफर दिया, लेकिन स्मिता ने उस समय अभिनय में रुचि न होने की बात कहकर इनकार कर दिया। अंत में यह किरदार नंदा ने निभाया।

मनोज ने हमेशा कहा कि उनके पास प्रतिभा को पहचानने की नजर थी। उनका अपनी पत्नी शशि गोस्वामी के प्रति सम्मान भी मशहूर था। एक बार शशि को 1957 में एक फिल्म का ऑफर मिला था, लेकिन मनोज कुमार ने कहा कि परिवार में एक ही शख्स फिल्मों में काम करे। शशि ने उनकी बात मान ली और बाद में रेडियो नाटकों में काम किया। मनोज कुमार अपनी हीरोइनों से भी शारीरिक दूरी बनाए रखते थे, जो उनके नैतिक मूल्यों को दर्शाता था।

मनोज कुमार
मनोज कुमार

सुपरहिट फिल्में

मनोज कुमार की कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर ब्लॉकबस्टर साबित हुईं। यहाँ उनकी कुछ सुपरहिट फिल्मों का जिक्र है:

  1. उपकार (1967): यह फिल्म उनकी पहली निर्देशित फिल्म थी, जिसने उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलाया। यह किसान और सैनिक की कहानी थी, जो राष्ट्रीय एकता पर आधारित थी।
  2. शहीद (1965): भगत सिंह की बायोपिक ने उन्हें देशभक्ति का प्रतीक बनाया। ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गीत आज भी प्रेरणा देता है।
  3. पुरब और पश्चिम (1970): इस फिल्म में उन्होंने भारतीय संस्कृति और पश्चिमी प्रभावों के बीच संतुलन दिखाया। यह उनकी देशभक्ति वाली छवि को और मजबूत करने वाली फिल्म थी।
  4. रोटी कपड़ा और मकान (1974): सामाजिक मुद्दों पर आधारित यह फिल्म उस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी। इसमें अमिताभ बच्चन, शशि कपूर जैसे सितारे भी थे।
  5. क्रांति (1981): स्वतंत्रता संग्राम पर बनी यह फिल्म उनकी सबसे बड़ी हिट में से एक थी। इसमें दिलीप कुमार, शशि कपूर और हेमा मालिनी जैसे सितारों ने काम किया।

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सम्मान और विरासत

मनोज कुमार को उनके योगदान के लिए कई सम्मान मिले। 1992 में उन्हें पद्म श्री और 2016 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। उनकी फिल्में आज भी प्रासंगिक हैं, जो नई पीढ़ी को देशभक्ति और नैतिकता का पाठ पढ़ाती हैं। 2004 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जॉइन की थी, लेकिन सक्रिय राजनीति से दूर रहे। मनोज कुमार का निधन हिंदी सिनेमा के एक युग का अंत है। उनका बचपन, संघर्ष, और सफलता की कहानी हर किसी को प्रेरित करती है। उनकी फिल्में और अनसुने किस्से हमें याद दिलाते हैं कि सच्ची प्रतिभा और मेहनत से कोई भी अपने सपनों को सच कर सकता है। ‘भारत कुमार’ हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे।

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