जानकी नगर में साहित्यिक गोष्ठी आयोजित कर विद्वानों ने की विषय पर चर्चा
संवाददाता
गोंडा। इक्कीसवीं सदी में साहित्य की दिशा को लेकर गोंडा के जानकी नगर कॉलोनी में आयोजित एक साहित्यिक गोष्ठी में देश के जाने-माने साहित्यकारों, चिन्तकों और अनुवादकों के बीच तीखी बहस देखने को मिली। गोष्ठी का आयोजन वरिष्ठ साहित्यप्रेमी घनश्याम अवस्थी के निवास पर किया गया, जिसमें अध्यक्षता डॉ सूर्यपाल सिंह ने की और मुख्य अतिथि थे दिल्ली से आए प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी।
साहित्यिक विमर्श के इस आयोजन में विशिष्ट अतिथि रहे एसपी मिश्र और करनैलगंज के प्रसिद्ध कवि-लेखक गणेश प्रसाद तिवारी ’नैश’। मंच संचालन घनश्याम अवस्थी ने किया और कार्यक्रम के सूत्रधार रहे राजेन्द्र तिवारी। गोष्ठी का विषय था इक्कीसवीं सदी में साहित्य की दिशा, जिसे उपविषयों में विभाजित कर एक नई प्रयोगात्मक विधि से प्रस्तुत किया गया।
अभिकृति अवस्थी के रचनात्मक प्रस्तुतीकरण ने बांधा समां
इक्कीसवीं सदी में साहित्य की दिशा विषय पर आयोजित गोष्ठी की शुरुआत में अभिकृति अवस्थी ने न केवल विषय-परिचय दिया बल्कि एक विशेष विधि द्वारा सभी साहित्यकारों को उपविषयों की पर्ची देकर विचार प्रस्तुत करने का आमंत्रण दिया। यह नवाचार सभी उपस्थित साहित्यकारों को विषय से जुड़ने और केंद्रित रहने में मददगार साबित हुआ।
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बिम्ब और विमर्श पर उठा धारदार दृष्टिकोण
डॉ गंगाराम ने साहित्य में बदलते बिम्ब-प्रयोग को केंद्र में रखते हुए दलित, स्त्री और थर्ड जेंडर विमर्शों की बढ़ती लोकप्रियता की बात की। उन्होंने आत्मकथा विधा में हो रहे प्रयोगों को भी रेखांकित किया। डॉ बजरंग बिहारी तिवारी ने जनजातीय और आदिवासी विमर्शों को जोड़ते हुए ’फेमिनिज्म की वेव्स’ और ’कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ जैसे साहित्यिक घोषणापत्रों की बहस छेड़ी। उनका कहना था कि इक्कीसवीं सदी में साहित्य मात्र रचना न रहकर वैचारिक दस्तावेज बन चुका है, जो समाज के बहुआयामी रूपों को प्रतिबिंबित करता है।
लोक साहित्य की उपेक्षा पर उठा प्रश्न
वरिष्ठ अनुवादक राजेन्द्र तिवारी ने इक्कीसवीं सदी में साहित्य की दिशा विषय पर अपनी बात रखते हुए हिन्दी साहित्य में लोक साहित्य की उपेक्षा पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि कविता की पहचान लयात्मकता से की जा सकती है, लेकिन यदि हम समृद्ध लोक साहित्य को मुख्यधारा से काटते हैं तो यह हमारी सांस्कृतिक आत्मा को खोने जैसा होगा।
आत्मकथात्मक साहित्य बनाम जातिवादी टकराव
गणेश प्रसाद तिवारी ’नैश’ ने इक्कीसवीं सदी में साहित्य के आत्मकथात्मक रुझानों पर बोलते हुए अपने अनुभवों के माध्यम से जातिवाद से ऊपर उठकर सामाजिक सौहार्द पर बल दिया। उन्होंने कहा कि नकारात्मकता को बार-बार कुरेदने की आवश्यकता नहीं, यह सिर्फ भेदभाव को बढ़ावा देता है।
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सामाजिक विघटन पर गहरी चिंता
वरिष्ठ चिन्तक एसपी मिश्र ने कहा कि समाज में जागरूकता की लहर चल पड़ी है और व्यवस्था परिवर्तन को अब कोई रोक नहीं सकता। उन्होंने चेतावनी दी कि जो जैसे करेगा, उसे भुगतना ही होगा। वहीं अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ सूर्यपाल सिंह ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में ’संदेह’ एक सांस्कृतिक प्रवृत्ति बन चुका है, जो सामाजिक रिश्तों को शिथिल कर रहा है।
उन्होंने कहा कि स्त्री, दलित, थर्ड जेंडर जैसे विमर्श जहां एक ओर समाज को अधिकारों के प्रति सजग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर वर्गीय पृथकता भी बढ़ा रहे हैं। उनका कहना था कि अब ’वंचित’ को केंद्र में लाने की आवश्यकता है, न कि सिर्फ जाति, लिंग या क्षेत्र के आधार पर विमर्श रचने की। उन्होंने कश्मीर से विस्थापित लोगों को ’वंचित’ मानते हुए पूछा क्या घर, ज़मीन और व्यापार खोकर भटकते वे लोग वंचित नहीं हैं?
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