Wednesday, July 9, 2025
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बनारस: अतीत और वर्तमान के बीच संतुलन

गंगा घाटों की शांति में छिपा बनारस का ऐतिहासिक सार

निकिता शर्मा

‘बनारस जैसा था, वैसा ही अच्छा था’ काशीनाथ सिंह का यह कथन आज वाराणसी की बदलती तस्वीर को बखूबी बयां करता है। विश्व की प्राचीनतम जीवंत नगरी वाराणसी अपनी संकरी गलियों, पवित्र घाटों और प्राचीन मंदिरों में सदियों की सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए है। हाल के वर्षों में, पर्यटन और आधुनिकीकरण के नाम पर इस शहर का कायापलट तेजी से हुआ है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, घाटों का सौंदर्यीकरण और स्मार्ट सिटी परियोजनाएँ बनारस को नया चेहरा दे रही हैं।

अब सवाल यह उठता है कि क्या इस चमक-दमक में बनारस की आत्मा, उसका ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व कहीं खो तो नहीं रहा? अतीत को नष्ट करके बनाया गया वर्तमान क्या वाकई बनारस की पहचान को बरकरार रख सकता है? पिछले दशक में वाराणसी में हुए बदलावों का केंद्र बिंदु पर्यटन को बढ़ावा देना रहा है। 2023 में, उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग के अनुसार, वाराणसी ने 7.2 करोड़ पर्यटकों और तीर्थयात्रियों का स्वागत किया, जो शहर की अर्थव्यवस्था के लिए एक मिसाल कायम करता है।

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2021 में खुला काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, एक ऐसा प्रोजेक्ट है जो मंदिर को भव्यता प्रदान करता है और श्रद्धालुओं के लिए सुगमता लाता है। दशाश्वमेध और अन्य घाटों का सौंदर्यीकरण, बेहतर प्रकाश व्यवस्था और स्वच्छता अभियान शहर को आधुनिक पर्यटक स्थल के रूप में पेश करते हैं। लेकिन इस विकास की कीमत क्या है? कॉरिडोर के निर्माण में 300 से अधिक प्राचीन मंदिरों और संरचनाओं को हटा दिया गया। उदाहरण के लिए, एक जमाने में विश्वनाथ गली की तंग गलियाँ स्थानीय व्यापारियों और साधु-संतों की कहानियाँ बयाँ करती थी।

बनारस
बनारस गंगा की गोद में साधू

अब चौड़ी सड़कों और व्यवसायिक दुकानों में बदल गई हैं। ये गलियाँ बनारस की पहचान थीं, जहाँ हर कोने पर इतिहास और संस्कृति की गूँज थी। काशीनाथ सिंह ने अपनी रचनाओं में इन्हीं गलियों को बनारस की आत्मा बताया था। स्थानीय समुदाय पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा है। कॉरिडोर और अन्य परियोजनाओं के लिए सैकड़ों परिवारों को उनके पुश्तैनी घरों से विस्थापित किया गया। चौक और लहुराबीर जैसे इलाकों के निवासी- जो पीढ़ियों से बनारस की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा थे- अब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। स्थानीय दुकानदार बताते हैं कि हमारा घर और दुकान कॉरिडोर के लिए तोड़ दिए गए। नया बनारस सुंदर है, लेकिन हमारी जड़ें उखड़ गईं। यह विस्थापन बनारस के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर रहा है।

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पर्यटन-केंद्रित विकास का एकांगी दृष्टिकोण भी चिंता का विषय है। बनारस केवल पर्यटकों के लिए नहीं, बल्कि यहाँ के साधु-संतों, गंगा आरती के पंडितों और स्थानीय निवासियों के लिए भी है। जब घाटों पर व्यावसायिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं या पारंपरिक रीति-रिवाजों को कम महत्व दिया जाता है, तो कोई भी ऐतिहासिक नगरी अपनी आध्यात्मिक पहचान खोने लगती है। मोक्ष का प्रतीक माना जाने वाला मणिकर्णिका घाट अब पर्यटक, सेल्फी पॉइंट और तथाकथित सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर्स से भरा रहता है।

यह बदलाव बनारस को एक सामान्य पर्यटन स्थल की ओर ले जा रहा है, जो संभवतः अपनी विशिष्टता खो सकता है। काशीनाथ सिंह का कथन यही संदेश देता है कि बनारस का अतीत ही उसकी आत्मा है। उनकी किताब ‘काशी का अस्सी’ में बनारस की जीवंत गलियों और घाटों का चित्रण है, जो अब धीरे-धीरे बदल रहा है। अतीत को पूरी तरह नष्ट करके बनाया गया वर्तमान अधूरा है। शहर के विकास से स्वच्छता, बेहतर यातायात और बुनियादी सुविधाएँ सुदृढ़ होती है।

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बनारस: अतीत और वर्तमान के बीच संतुलन

लेकिन यह विकास संतुलित होना चाहिए। उदाहरण के लिए, जापान के क्योटो शहर ने अपनी ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित करते हुए आधुनिक सुविधाएँ विकसित की हैं। बनारस में भी ऐसा संभव है। गंगा घाटों की शांति में छिपा ऐतिहासिक सार प्राचीन मंदिरों और गलियों को संरक्षित करते हुए उनके आसपास सुविधाएँ विकसित की जा सकती हैं। स्थानीय समुदाय को परियोजनाओं में शामिल करके उनकी आजीविका को भी आर्थिक सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।

बनारस का कायापलट एक दोधारी तलवार है। एक ओर यह शहर को वैश्विक मंच पर स्थान दे रहा है, तो दूसरी ओर इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को खतरे में डाल रहा है। हमें यह समझना होगा कि बनारस केवल एक पर्यटन स्थल नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत सभ्यता का प्रतीक है। विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बनाकर ही हम यहाँ की आत्मा को बचा सकते हैं। 

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