रघोत्तम शुक्ल
हाल ही में आपरेशन सिंदूर के नामकरण में जिस शब्द का चयन किया गया, उसने न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान आकर्षित किया। यह नाम था- सिंदूर। इस नाम ने अनेक लोगों के मन में यह भाव उत्पन्न किया कि यह किसी प्रकार शौर्य, वीरता और पराक्रम का प्रतीक है। किन्तु क्या वास्तव में यह शब्द युद्ध जैसी गंभीर और हिंस्र परिस्थितियों के अनुकूल है? इस पर एक विचार किया जाना आवश्यक है।
सिंदूर भारतीय संस्कृति में नारी श्रृंगार और वैवाहिक जीवन का प्रतीक है। हिंदू परंपरा में विवाह के समय वर द्वारा वधू की माँग में सिंदूर भरना एक पवित्र अनुष्ठान होता है। भगवान शिव ने पार्वती जी के और प्रभु श्रीराम ने सीता जी के विवाह के समय यही परंपरा निभाई थी। इस धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक का वीरता अथवा सैन्य पराक्रम से प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं है।
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इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब नारियाँ स्वयं रणभूमि में उतरीं तो उन्होंने अपने श्रृंगार के समस्त चिह्न त्याग दिए। देवी दुर्गा — जिनकी गिनती सर्वश्रेष्ठ रणकुशलों में होती है — जब युद्ध के लिए प्रस्तुत हुईं, तो उन्होंने अपने लम्बे काले बालों का जूड़ा बाँध लिया और वे योधनावृतकपर्दिनी कहलाईं। इतना ही नहीं, उन्होंने युद्ध में क्रोध और तमोभाव जागृत रखने हेतु अपने पास सुरा पात्र भी रखा और आवश्यकतानुसार उसका पान भी किया — गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिबाम्यहम्।
राम-रावण युद्ध की बात करें, तो श्रीराम ने युद्ध की गंभीरता को देखते हुए माता सीता को अग्नि में वास करने हेतु कहा, ताकि युद्ध भाव में कोई विघ्न न आए। लक्ष्मण तो अपनी पत्नी को साथ ले ही नहीं गए थे। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और महारानी कर्मावती ने भी युद्ध में उतरते समय सिन्दूर, बिंदी, टिकुली जैसे किसी भी श्रृंगार से स्वयं को रहित रखा और केवल तलवार के साथ रणभूमि में कूदीं।
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राजस्थान की हाड़ी रानी का उदाहरण और भी उल्लेखनीय है। जब उनके पति युद्ध में जा रहे थे और उनका मन रानी के मोह में उलझा हुआ था, तब रानी ने अपना शीश काटकर उन्हें भेंट कर दिया, ताकि उनका मन पूर्णतः रण में एकाग्र हो सके। यह घटना स्पष्ट करती है कि श्रृंगार और वीर रस, दोनों एक-दूसरे के विरोधी भाव हैं।
इसलिए यह विचार करना अत्यंत आवश्यक है कि क्या सिंदूर जैसे शब्द का सैन्य अभियान से कोई तार्किक या सांस्कृतिक संगति बनती है? पहलगाम में मारे गए लोगों में एक मुसलमान भी था, जिसकी पत्नी का सिंदूर से कोई संबंध नहीं। साथ ही, पुंछ में शत्रु की गोलाबारी में स्त्रियाँ और बच्चे भी हताहत हुए — केवल पुरुष नहीं। ऐसे में, जब युद्ध की पीड़ा सब पर समान रूप से आती है, तब केवल स्त्री के श्रृंगार को युद्ध से जोड़ना न केवल विषयांतर है, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से भी भ्रमित करने वाला है।
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यदि अभियान को किसी सांस्कृतिक या आध्यात्मिक प्रतीक से जोड़ा ही जाना था, तो ऑपरेशन काली, चण्डी, रुद्र या राणा प्रताप जैसे नाम कहीं अधिक उपयुक्त और प्रेरणादायक होते। ये नाम न केवल पराक्रम के परिचायक हैं, बल्कि भारतीय युद्ध परंपरा के साथ गहरे रूप से जुड़े हुए हैं।
अतः आवश्यकता है कि हम केवल भावनात्मकता नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक बोध के साथ नामकरण जैसे विषयों पर विचार करें। शब्द मात्र ध्वनि नहीं होते — वे विचार और प्रतीक होते हैं, और उनका चुनाव सोच-समझकर होना चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
