Saturday, June 14, 2025
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भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दैदीप्यमान सूर्य वीर सावरकर

जयंती (28 मई) पर विशेष

अतुल द्विवेदी

भारत का विभाजन एक अप्राकृतिक दुर्घटना है। किसी राष्ट्र की सीमाएं केवल भौगोलिक तत्वों नदियों, पहाड़ों, संधि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, बल्कि वे उस देश की भावी पीढ़ियों के कर्तव्यबोध, पौरुष, और राष्ट्रप्रेम की लौ से आकार लेती हैं। जब भारत की नई पीढ़ी अपने कर्तृत्व का परिचय देगी, उस दिन यह सीमाएं काबुल और कंधार को पार करती हुई दूर तक विस्तार पा लेंगी! यह घोषणा उस महापुरुष की थी, जिसे इतिहास वीर सावरकर के नाम से जानता है।

वीर सावरकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक ऐसे सूर्य थे, जिनके तेज को दबाने, छिपाने या झुठलाने के प्रयास लगातार हुए, परंतु जैसे सूर्य के चारों ओर बादल मंडराते हैं फिर भी उसका प्रकाश धरती तक पहुँच ही जाता है, ठीक वैसे ही सावरकर का व्यक्तित्व बार-बार देशवासियों के सामने नए रूप में उदित होता गया। पुण्यभूमि महाराष्ट्र के भगूर नामक गांव में 28 मई 1883 को जन्मे वीर सावरकर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनका जीवन संघर्ष, बलिदान और क्रांति की त्रयी में ऐसा समाहित हुआ कि वह भारत की आत्मा का एक अविभाज्य हिस्सा बन गए।

पिता दामोदरपंत और माता राधाबाई के पुत्र विनायक ने बचपन में ही माता-पिता को खो दिया था। परिवार की आर्थिक कठिनाइयों के बीच भी उन्होंने अध्ययन जारी रखा और पुणे के प्रतिष्ठित फर्ग्यूसन कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने ‘मित्र मेला’ नामक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की, जो आगे चलकर ‘अभिनव भारत’ बना। वे लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं से प्रभावित थे और ब्रिटिश राज के खिलाफ सशस्त्र क्रांति के पक्षधर बन गए।

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1906 में कानून की पढ़ाई के लिए वीर सावरकर लंदन गए और ‘इंडिया हाउस’ में रहकर श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदनलाल धींगरा, भीकाजी कामा जैसे नेताओं के साथ स्वतंत्रता संग्राम की योजना तैयार करने लगे। उन्होंने ’फ्री इंडिया सोसाइटी’ की स्थापना की, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए विदेश में क्रांतिकारियों का प्रमुख मंच बनी। यहीं पर उन्होंने वह ऐतिहासिक पुस्तक लिखी ‘द हिस्ट्री ऑफ द फर्स्ट वॉर ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस 1857’ जिसमें 1857 की क्रांति को स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी गई, जबकि ब्रिटिश उसे ‘विद्रोह’ मानते थे। यह पुस्तक ब्रिटिश राज में प्रतिबंधित कर दी गई, फिर भी इसका प्रभाव भारत और विदेशों में युवा क्रांतिकारियों पर पड़ा।

वीर सावरकर न केवल क्रांतिकारी विचारधारा के प्रणेता थे, बल्कि उन्होंने हथियार, बम निर्माण और गुरिल्ला युद्ध की तकनीकों का प्रशिक्षण भी दिया। वे ब्रिटिश राज की निगाह में आ गए और 13 मार्च 1910 को उन्हें फ्रांस से गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी को लेकर ब्रिटेन और फ्रांस के बीच कूटनीतिक विवाद हुआ, लेकिन अंततः उन्हें भारत लाया गया और 1911 में उन्हें 50 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। उन्हें अंडमान निकोबार की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया, जहाँ उन्हें ‘काला पानी’ की सजा भुगतनी पड़ी।

सेल्युलर जेल में वीर सावरकर को अमानवीय यातनाएं दी गईं। उन्हें कोल्हू में बैल की जगह जोता जाता था, नारियल का तेल निकालने के लिए घंटों श्रम कराया जाता था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। जेल में उन्होंने न केवल अन्य कैदियों को शिक्षित किया बल्कि सरकार से पुस्तकालय की अनुमति लेकर बौद्धिक क्रांति की नींव भी डाली। उन्होंने यहीं पर ‘हिंदुत्वः हिन्दू कौन है?’ नामक वैचारिक ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आधारशिला रखी। उनके अनुसार, हिन्दू वह है जो सिंधु से सागर तक फैले भारतवर्ष को पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है।

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वीर सावरकर के अनुसार, जैन, बौद्ध, सिख और हिंदू ये सभी भारतीय मूल के धर्म एक सांस्कृतिक इकाई हैं और उनका सम्मिलित ध्येय अखंड भारत की स्थापना होना चाहिए। उनकी यह विचारधारा हिंदू सांस्कृतिक चेतना को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ने का प्रयास थी, जिसे कालांतर में ‘हिंदुत्व’ दर्शन के रूप में व्यापक मान्यता मिली।

6 जनवरी 1924 को वीर सावरकर को जेल से रिहा कर रत्नागिरी भेजा गया। वहाँ उन्होंने ‘रत्नागिरी हिंदू सभा’ की स्थापना की, जो हिंदू समाज में व्याप्त छुआछूत और सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए कार्यरत रही। उन्होंने मंदिर प्रवेश, जाति भेद समाप्ति और समरसता के लिए अनगिनत प्रयास किए। वे अस्पृश्यता के घोर विरोधी थे और उन्होंने सार्वजनिक रूप से ‘शूद्र’ माने जाने वाले व्यक्तियों को सम्मानपूर्वक अपने घर बुलाकर भोज करवाया।

वीर सावरकर के सार्वजनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी रहा कि वे इतिहास के माध्यम से नवजागरण की ओर प्रेरित करते थे। 29 दिसंबर 1908 को लंदन के कैक्स्टन हॉल में गुरु गोविंद सिंह जी की जयंती पर आयोजित समारोह इसका प्रमाण है। सावरकर ने इस आयोजन की अगुवाई की और ‘देग तेग फतेह’ का व्याख्यान दिया, जिसमें उन्होंने गुरु गोविंद सिंह जी के तत्वज्ञान, शौर्य और विजय को तीन पंखुड़ियों वाले पुष्प के रूप में प्रस्तुत किया ‘देग’ यानी दान, ‘तेग’ यानी तलवार, और ‘फतेह’ यानी विजय। उन्होंने कहा कि तत्वज्ञान बिना शस्त्र के अधूरा है, और गुरुजी ने शस्त्र उठाकर धर्म की रक्षा का मार्ग दिखाया।

वीर सावरकर की देशभक्ति और विचारशीलता के बावजूद उन्हें स्वतंत्र भारत में वह मान-सम्मान नहीं मिला, जिसके वे अधिकारी थे। नेहरूवादी धारा के वर्चस्व में उनका उल्लेख प्रायः टाल दिया गया, यहाँ तक कि उनकी तस्वीरें संसद भवन से गायब कर दी गईं। परंतु समय के साथ उनकी विचारधारा ने पुनः दस्तक दी और आज भारत के जनमानस में उनका योगदान स्वर्णाक्षरों में अंकित हो चुका है।

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1966 में जब उन्होंने अपने जीवन का अंत स्वेच्छा से उपवास द्वारा किया, तब भी उन्होंने जीवन का अंतिम पाठ राष्ट्र को ही समर्पित किया। उन्होंने ‘आत्मार्पण’ नामक संकल्प लेते हुए मृत्यु को गले लगाया, क्योंकि वे मानते थे कि जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो चुका है, अब शरीर को और बोझ न बनाया जाए। 26 फरवरी 1966 को यह महान आत्मा परलोक सिधार गई।

वीर सावरकर के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता थी उनका बौद्धिक साहस। वे न किसी विचारधारा से बँधे थे, न किसी दलगत राजनीति से। उन्होंने गांधी जी की अहिंसा की आलोचना भी की और हिंदू महासभा के मंच से अपनी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारणा को आगे बढ़ाया। उन्होंने दो राष्ट्र सिद्धांत का विरोध करते हुए भारत को एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में देखा, जहाँ विविधताएं होते हुए भी एकता बनी रहे। उनका हिंदुत्व किसी सम्प्रदाय के विरोध में नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना थी, जिसमें भारत की परंपराएं, भाषा, इतिहास और समाज एक सूत्र में पिरोए जाते हैं।

आज (28 मई) जब देश वीर सावरकर की जयंती मना रहा है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि वीर सावरकर को केवल एक ‘विवादास्पद व्यक्तित्व’ कहकर टालने की बजाय उनके योगदान को निष्पक्ष रूप से समझा जाए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं माना, बल्कि उसे सांस्कृतिक और सामाजिक नवजागरण से जोड़ा। उनकी लेखनी, उनका जीवन और उनकी मृत्यु तीनों ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नई चेतना प्रदान की।

वीर सावरकर की जयंती पर उन्हें स्मरण करना केवल एक श्रद्धांजलि नहीं है, यह आत्मनिरीक्षण का अवसर भी है! क्या हम आज भी उतने ही साहसी, प्रबुद्ध, और कर्मशील बन सके हैं, जितना वह भारत बनाना चाहते थे? यदि नहीं, तो उनके विचार आज भी हमारे मार्गदर्शक बन सकते हैं।

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