आज भी गवाहों को कचहरी आने के लिए मिलता है मात्र दो रुपए यात्रा भत्ता
साक्षी भत्ता कानून के तहत 49 वर्षों से नहीं हुआ बदलाव, न्याय की बुनियाद पर उठने लगे सवाल
लीगल डेस्क
साक्षी भत्ता कानून, भारतीय न्याय व्यवस्था में आज भी ऐसा एक उदाहरण है जो न सिर्फ व्यवस्था की सुस्त चाल का प्रतीक बन चुका है, बल्कि यह भी दिखाता है कि सुधार की घोषणाएं कितनी सतही साबित होती हैं। जबकि देश में डिजिटल कोर्ट, ई-फाइलिंग और वीडियो गवाही जैसे बदलाव तेजी से हो रहे हैं, वहीं आज भी अदालतों में गवाही देने आए गवाहों को मात्र 2 रुपये यात्रा भत्ता दिया जा रहा है और वह भी लंबी प्रक्रिया के बाद।
उत्तर प्रदेश परिवादी एवं साक्षी दंड न्यायालय व्यय भुगतान नियमावली 1976 के तहत तय यह राशि अब मजाक बनकर रह गई है। 49 वर्षों से साक्षी भत्ता कानून में कोई वास्तविक संशोधन नहीं हुआ है, जबकि इस बीच महंगाई दर सैकड़ों गुना बढ़ चुकी है।
दो श्रेणियों में बंटे गवाह, मगर समान रूप से उपेक्षित
साक्षी भत्ता कानून नियमावली के अनुसार गवाहों को उच्च श्रेणी और सामान्य श्रेणी में विभाजित किया गया है। उच्च श्रेणी को 2 से 4 रुपये और सामान्य को सीधे 2 रुपये का भत्ता देने का नियम है। सोचने की बात यह है कि जब यूपी में कानपुर जिले के घाटमपुर, बिल्हौर और आसपास के कस्बों से लोग 200-300 रुपये खर्च कर कानपुर कोर्ट गवाही देने आते हैं, तो दो रुपये का यह भुगतान उन्हें अपमान जैसा लगता है।
स्थानीय अधिवक्ताओं का कहना है कि इस व्यवस्था के कारण न्यायिक प्रक्रिया पर असर पड़ रहा है। साक्षी भत्ता कानून की जटिल प्रक्रिया और नाममात्र की राशि के चलते गवाहों की उपस्थिति लगातार कम हो रही है।
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गवाहों की अनुपस्थिति से मुकदमों पर असर
नियम के अनुसार गवाह को पहले अदालत में अर्जी देनी होती है, फिर सरकारी वकील की संस्तुति और न्यायालय की सहमति के बाद नजारत शाखा भुगतान करती है। यह पूरी प्रक्रिया इतनी पेचीदा और समय लेने वाली है कि अधिकतर गवाह इस भत्ते से वंचित रह जाते हैं।
कानपुर निवासी राम शरण, जिन्होंने हाल ही में कोर्ट में गवाही दी, कहते हैं, ‘200 रुपये खर्च करके 2 रुपये लेने के लिए कौन लाइन में लगेगा?’ उनका यह सवाल न्याय प्रणाली की उस कमज़ोर कड़ी की ओर इशारा करता है, जिसे सुधारने की ज़रूरत दशकों पहले थी।
नया कानून आया, फिर भी व्यवस्था में बदलाव नहीं
हाल ही में लागू हुए भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस, 2023) की धारा 398 के तहत यह जिम्मेदारी प्रदेश सरकारों पर डाली गई है कि वे गवाहों को समुचित भत्ता उपलब्ध कराएं। लेकिन साक्षी भत्ता कानून के क्रियान्वयन की स्थिति अब भी वही है। जिला शासकीय अधिवक्ता दिलीप अवस्थी बताते हैं कि कानपुर में हर माह लगभग 1600 गवाह गवाही देने आते हैं, लेकिन मात्र कुछ ही लोग भत्ता लेने आते हैं। इसका सीधा मतलब है कि कानून व्यावहारिक नहीं रह गया है।
वरिष्ठ अधिवक्ता कौशल किशोर शर्मा कहते हैं कि यह कानून अब समयानुकूल नहीं रहा और इसमें तत्काल संशोधन की जरूरत है। उन्होंने बताया कि NIA जैसे मामलों में गवाहों को पूरी यात्रा और खर्च की प्रतिपूर्ति मिलती है, तो आम नागरिकों के साथ यह दोहरा मापदंड क्यों?
कब बदलेगा यह हास्यास्पद कानून?
आज जब देश चांद पर जा चुका है, डिजिटल इंडिया की बात कर रहा है, उस दौर में साक्षी भत्ता कानून का यह प्रावधान एक बेहद शर्मनाक और अप्रासंगिक अवशेष बन चुका है। सरकार और न्याय विभाग को चाहिए कि इस नियमावली की समीक्षा कर इसे वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप बनाया जाए। गवाहों को सम्मान देने की शुरुआत तभी होगी जब उन्हें आर्थिक सुरक्षा दी जाएगी। अन्यथा, न्याय की पूरी प्रक्रिया गवाहों के बिना खोखली साबित होगी।
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