16 जातिगत संवादों और दृष्यों पर चली सेंसर बोर्ड की कैंची
धड़क 2 को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से मिला यू/ए सर्टिफिकेट
मनोरंजन डेस्क
बॉलीवुड की बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘धड़क 2’ को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) से यू/ए सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लिए 16 महत्वपूर्ण बदलावों से गुजरना पड़ा। शाजिया इकबाल के निर्देशन में बनी यह फिल्म, सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी की मुख्य भूमिकाओं में है, जो भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और प्रेम की जटिलताओं को उजागर करती है।
धड़क 2: चली सेंसर बोर्ड की कैंची
CBFC ने फिल्म ‘धड़क 2’ में कई संवादों और दृश्यों को आपत्तिजनक मानते हुए उन्हें संशोधित करने का निर्देश दिया। उदाहरणस्वरूप, एक संवाद “3,000 साल का बैकलॉग सिर्फ 70 साल में पूरा नहीं होगा” को बदलकर “इतने सालों का बैकलॉग सिर्फ 70 सालों में पूरा नहीं हो सकता” किया गया। इसके अलावा, जातिसूचक शब्दों को म्यूट कर दिया गया और उनकी जगह “जंगली” जैसे शब्दों का उपयोग किया गया। महिलाओं के खिलाफ हिंसा के दृश्यों को भी ब्लैक स्क्रीन में बदल दिया गया है।
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फिल्म ‘धड़क 2’ की कहानी तमिल फिल्म ‘परियेरुम पेरुमल’ पर आधारित है, जो एक दलित युवक और उच्च जाति की लड़की के बीच प्रेम कहानी को दर्शाती है। फिल्म में निलेश और विदिषा की प्रेम कहानी के माध्यम से जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानताओं को उजागर किया गया है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य और संवाद हैं जो समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव की वास्तविकता को सामने लाते हैं।

CBFC के इन बदलावों के बावजूद, फिल्म ‘धड़क 2’ को यू/ए सर्टिफिकेट प्राप्त हुआ है, जिससे यह फिल्म अब थिएटर में रिलीज के लिए तैयार है। हालांकि, सेंसर बोर्ड की इस सख्ती ने फिल्म के निर्माताओं और दर्शकों के बीच एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या ऐसी फिल्मों को सेंसरशिप के माध्यम से रोका जाना चाहिए या नहीं।
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फिल्म ‘धड़क 2’ की रिलीज की तारीख अभी तक घोषित नहीं की गई है, लेकिन उम्मीद है कि यह फिल्म जल्द ही सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी। फिल्म के ट्रेलर और पोस्टर पहले ही दर्शकों के बीच उत्सुकता पैदा कर चुके हैं। फिल्म में सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी की जोड़ी पहली बार साथ नजर आएगी, जो दर्शकों के लिए एक नया अनुभव होगा।
फिल्म ‘धड़क 2’ के सेंसरशिप से जुड़ी यह पूरी प्रक्रिया भारतीय सिनेमा में सेंसर बोर्ड की भूमिका और उसकी सीमाओं पर एक नई चर्चा को जन्म देती है। क्या सेंसर बोर्ड को सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्मों में इतनी सख्ती बरतनी चाहिए? क्या यह रचनात्मक स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं है? इन सवालों के जवाब आने वाले समय में भारतीय सिनेमा की दिशा तय करेंगे।

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