असभ्यताओं के बीच संघर्ष: पंथ, राष्ट्रविरोध और मानवता की टूटती कड़ी
सारांश
धर्म और पंथ के नाम पर हो रहे संहार दिखाते हैं कि यह वास्तव में ‘असभ्यताओं के बीच संघर्ष’ है, जहाँ मानवता टूट रही है। जब व्यक्ति अपने राष्ट्र से ज़्यादा पंथ को सर्वोच्च मानने लगता है, तब विश्व में अराजकता और सामूहिक हिंसा फैलती है। हमें ‘मेरा देश’ और ‘राष्ट्रप्रेम’ को प्राथमिकता देनी होगी, तभी हम आतंक और वैमनस्य की इस अंधेरी लहर—इस असभ्य संघर्ष—को रोक पाएंगे। भारत की सांस्कृतिक विरासत ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ को अपनाकर हम विश्व में सहिष्णुता और शांति लाई जा सकती है, जिससे इस ‘असभ्यताओं के बीच संघर्ष’ का अंत आसान होगा।
प्रो. संजय द्विवेदी
यूक्रेन-रूस और अब ईरान-इज़राइल की जंग, फ्रांस से लेकर सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर दुनिया के तमाम देशों में बहता खून आखिर क्या कह रहा है? मानवता के शत्रु, पंथ की नक़ाब पहनकर मनुष्यों के खून की होली खेल रहे हैं। वे यह सारा कुछ ‘पंथ राज्य’ की स्थापना के लिए कर रहे हैं। सैम्युअल पी. हटिंग्टन ने अपनी किताब ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन’ में इन खतरों पर बात करते हुए इसे ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की संज्ञा दी थी।
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सभ्यताएं भी संघर्ष करती हैं? वास्तव में इसे तो ‘असभ्यताओं के बीच संघर्ष’ की संज्ञा दी जानी चाहिए। लगता है यह पूरा समय असभ्यताओं के बीच संघर्ष का समय है और ऐसा प्रतीत होता है कि असभ्यताओं का नया उपनिवेश भी स्थापित हो रहा है। अगर दुनिया के महादेशों में मानवता के अंश और बीज होते, तो वे इन घटनाओं पर शर्मसार होते और उनकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए कदम उठाते। आखिर यह सिलसिला कब रुकेगा, इस प्रश्न के उत्तर भी नदारद हैं।
हम देख रहे हैं कि 21वीं सदी में यह खतरा और गहरा हो रहा है। अपने ही संप्रदाय बंधुओं का खून बहाने की वृत्ति भी देखी जा रही है। आतंकवादी संगठन नई तकनीकों और हथियारों से लैस हैं। वे राजसत्ता और समाज दोनों को चुनौती दे रहे हैं। मानवता सामने खड़ी सिसक रही है। ये चित्र हैरान करने वाले हैं, किंतु इससे निजात पाना कठिन दिखता है।
देखने में आ रहा है कि पंथ ने राष्ट्र-राज्य की सीमाएं तोड़कर एक नया संसार बना लिया है, जहां लोग अपने राष्ट्र की सीमाएं छोड़कर दूर देश में अपने पंथ की खातिर खून बहाने के लिए एकत्र हो रहे हैं। आतंकी संगठनों के आह्वान पर अपना देश छोड़कर खून बहाने के लिए निकलना साधारण बात नहीं है। भारत, फ्रांस और ब्रिटेन के नागरिक भी खून बहाने वाली जमातों में शामिल हैं। यह बात बताती है कि अब राष्ट्रीयता पर पंथ का विचार भारी पड़ रहा है। पंथ की उग्रता ने राष्ट्रों को शर्मसार किया है। क्या हमें उन पंथों की पहचान नहीं करनी चाहिए जो देश से बड़ा अपने पंथ को बता रहे हैं?
यह भी पढ़ें: सनसनीखेज ‘सोनम पार्ट-2’: प्रेमी से कराई पति की हत्या
भारत जैसे देश के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह नए विचारों के साथ खड़ा हो। क्योंकि वैश्विक आतंकवाद के सामने वह सबसे कमजोर शिकार है। देश के नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की भावना को गहरा करना जरूरी है। अपनी शिक्षा में, अपने नागरिक बोध में हमें देशभक्ति की भावना को तीव्रतम करना होगा। हम भारतीय हैं और यही भारतबोध हमें जागृत करना है। यही भारतबोध हमारा धर्म है और हमारा पंथ उसके बाद है। यह सवाल हर नागरिक से पूछने की जरूरत है कि पहले राष्ट्र है या उसका पंथ? हमें हर मन में यह स्थापित करना होगा कि पंथ या पूजा पद्धति हमेशा द्वितीयक है और हमारा राष्ट्र सर्वोच्च है। तभी हम इस आंधी को रोक पाएंगे।
‘मैं ही श्रेष्ठ हूं, मेरा पंथ ही सर्वश्रेष्ठ है’ की भावना के चलते ये स्थितियां पैदा हुई हैं। अगर तमाम देशों के लोग यह भाव अपने नागरिकों में भर पाते कि ‘मेरी माटी, मेरा देश सबसे बड़ा है—कोई भी पंथ या विचारधारा उसके बाद है’, तो खून बहने से रोका जा सकता था। भारत इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि हमारी सांस्कृतिक परंपरा के सूत्र ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की बात करते हैं। यह विचार आशा का विचार है क्योंकि यह ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की अवधारणा पर काम करने वाला समाज है।
पंथ के नाम पर हो रहे कत्लेआम के अलावा, विचारधारा के नाम पर भी खून बहा रहे कम्युनिस्ट या उग्र माओवादी इसी विचार का हिस्सा हैं। क्या किसी विचार, पंथ या समूह को लोगों की हत्याओं की आज़ादी दी जा सकती है? एक सभ्य समाज में रह रहे हम लोगों का मुकाबला कैसे असभ्यों से है, जो असहमति या विविध विचारों को फलने-फूलने तो दूर, उसे सांस लेने की भी अनुमति नहीं दे रहे हैं। ऐसे में हमें तय करना होगा कि हम पंथों की उस जड़ पर चोट करें जो खुद को ही श्रेष्ठ मानती है। इतना तक तो ठीक है, पर उन्हें न मानने वालों को खत्म कर देने के स्वप्न देखती है।
यह भी पढ़ें: युवक को जिंदा जलाना पड़ा भारी, मिली उम्रकैद
हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर बढ़ना होगा, जो विविध विश्वासों, विविध विचारों और पंथों के बीच सहजता से जी सके। एक-दूसरे के विश्वासों का आदर और उसकी अस्मिता की रक्षा कर सके। यह होगा, सिर्फ माटी के प्रति अटूट प्यार से। सबसे बड़ा है मेरा देश, मेरा राष्ट्र सर्वोपरि है। उसके एक-एक व्यक्ति से मेरा रिश्ता है। इस माटी का ऋण मुझे चुकाना है। यह भाव आते ही आप दूसरे देश में अपने पंथ की लड़ाई लड़ने नहीं जाएंगे। अपनी सेना और अपनी फौज पर पत्थर नहीं फेंकेंगे, अपने लोगों का खून बहाते हुए आपके हाथ कांपेंगे, मुंबई की अमर जवान ज्योति पर हमला करने की आप सोच भी नहीं पाएंगे।
हम सब एक माटी के पुत्र और एक सांस्कृतिक प्रवाह के उत्तराधिकारी हैं। मेरा राष्ट्र ही मेरा देवता है, मैं इस मादरे वतन के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दूंगा। आज इसी भावना की जरूरत है। ऐसा हो पाया तो हम दुनिया में शांति और सद्भावना को स्थापित होते हुए देख पाएंगे। खून बहाते लोगों को भी इससे सबक मिलेगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम यह भावना स्थापित करें कि ‘देश प्रथम’। देश सबसे ऊपर होगा, तो हम कई संकटों से निजात पा सकेंगे। अपने-अपने देश को सर्वोच्च बनाएं और विश्वबंधुत्व का प्रसार करें। भारत के वैश्विक परिवार दर्शन को दुनिया में स्थापित करें।
यही दर्शन विश्व मानवता को सुख-शांति का मार्ग दिखा सकता है, कटुता को समाप्त कर सकता है। विभिन्न पंथों के आपसी संघर्ष ने पूरी दुनिया में सिर्फ खून की नदियां बहाई हैं। क्योंकि ये पंथ विस्तारवाद की भावना से पीड़ित हैं। ये चाहते हैं कि पूरी दुनिया एक ही रंग में रंग जाए। जबकि हमें पता है कि यह असंभव है। दुनिया में विविध विचार, विश्वास और आस्थाएं साथ-साथ सांस लेती हैं, और ऐसा होना भी चाहिए। बावजूद इसके इस सत्य को स्वीकार कर लेने में कुछ पंथों को मुश्किल क्यों है, यह समझना कठिन है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष हैं।)
यह भी पढ़ें: सलमान खान को घुटनों पर बैठकर इस हीरोइन ने किया था प्रपोज!