केंद्र सरकार के इस फैसले से अर्थ जगत में मचा हड़कंप
सार्वजनिक बीमा कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया तेज
बिजनेस डेस्क
नई दिल्ली। सरकार ने बीमा कंपनियों में हिस्सेदारी घटाने की जो तैयारी की है, उसने निवेशकों से लेकर आम जनता तक के बीच हलचल मचा दी है। केंद्र सरकार न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (जीआईसी आरई) जैसी प्रमुख सार्वजनिक बीमा कंपनियों में अपनी आधी से अधिक हिस्सेदारी कम करने जा रही है। इस फैसले को लेकर सरकारी हलकों में गहमागहमी है और बाजार में इससे जुड़ी चर्चा जोरों पर है।
वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया कि यह कदम सेबी (SEBI) के नियामकीय मानकों का पालन सुनिश्चित करने के लिए उठाया जा रहा है। सेबी ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि सभी सूचीबद्ध कंपनियों में कम से कम 25 प्रतिशत सार्वजनिक हिस्सेदारी होनी चाहिए।
सेबी की शर्तें बनीं वजह, बढ़ा सरकार पर दबाव
फिलहाल सरकार न्यू इंडिया एश्योरेंस में 85.44 प्रतिशत और जीआईसी आरई में 82.4 प्रतिशत हिस्सेदारी की मालिक है। नियामकीय आवश्यकताओं के अनुसार, सरकार को न्यू इंडिया एश्योरेंस में कम से कम 10.44 प्रतिशत और जीआईसी आरई में 7.4 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचनी ही होगी।
इस नीतिगत फैसले के पीछे सरकार की मंशा है कि वह बीमा कंपनियों में हिस्सेदारी को समयबद्ध तरीके से चरणों में बेचे, जिससे बाजार पर अत्यधिक दबाव न पड़े और निवेशकों की रुचि बनी रहे।
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रोड शो के जरिए निवेशकों को लुभाने की रणनीति
उक्त अधिकारी ने संकेत दिया कि सरकार और बीमा कंपनियां मिलकर निवेशकों को आकर्षित करने के लिए रोड शो आयोजित करेंगी। जीआईसी आरई में 3.5 फीसदी और न्यू इंडिया एश्योरेंस में चालू वित्तीय वर्ष के अंत तक लगभग 5 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की योजना है।
यह बात भी सामने आई है कि सरकार ने बाजार की प्रतिक्रिया और मांग के अनुसार यह विनिवेश चरणबद्ध तरीके से करने का निर्णय लिया है। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार किसी एक झटके में पूरी हिस्सेदारी नहीं बेचेगी, बल्कि उसे रणनीतिक रूप से वितरित किया जाएगा।
फैसले की टाइमिंग और बाजार की नब्ज
सेबी की तरफ से सार्वजनिक बीमा कंपनियों को दी गई डेडलाइन अगस्त 2026 है, मगर सरकार इससे पहले ही अपनी प्रक्रिया को पूरा करने के पक्ष में नजर आ रही है। इस संदर्भ में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि फरवरी में सरकार ने कुछ सार्वजनिक बैंकों और वित्तीय संस्थानों में हिस्सेदारी घटाने के लिए आरएफपी (Request for Proposal) जारी किया था। इसी प्रक्रिया के तहत बीमा कंपनियों में हिस्सेदारी घटाने का निर्णय लिया गया है।
एक हालिया इंटरव्यू में दीपम सचिव अरुणीश चावला ने बताया था कि इन विनिवेश लेनदेन के लिए लगभग एक दर्जन मर्चेंट बैंकरों को मंजूरी दी गई है, जो यह संकेत देता है कि सरकार ने अपनी रणनीति को अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है।
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वित्त मंत्रालय की चुप्पी और निवेशकों की चिंता
इस मामले में खबर लिखे जाने तक वित्त मंत्रालय से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई थी। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अंतिम निर्णयों पर अब भी विचार हो रहा है। हालांकि बाजार में हलचल बढ़ गई है और निवेशकों के बीच इस खबर को लेकर असमंजस की स्थिति है। निवेशक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि बीमा कंपनियों में हिस्सेदारी घटाने से इन संस्थाओं के शेयरों पर क्या असर पड़ेगा और दीर्घकालिक निवेश रणनीतियों पर क्या पुनर्विचार जरूरी है।
सरकार का यह कदम एक ओर जहां नियामकीय बाध्यता के तहत उठाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह निजीकरण की दिशा में बढ़ते एक और बड़े कदम के रूप में देखा जा रहा है। बीमा कंपनियों में हिस्सेदारी घटाने की इस प्रक्रिया पर देशभर की निगाहें टिकी हुई हैं। यदि यह रणनीति सफल रहती है, तो यह सरकार के विनिवेश लक्ष्यों को साधने में सहायक हो सकती है, लेकिन विफलता की स्थिति में बाजार की अस्थिरता और निवेशकों की हानि की आशंका को नकारा नहीं जा सकता।
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