निजीकरण की जल्दी में गलत बयानी कर रहे मुख्य सचिव
कई राज्यों में सफलता नहीं, लूट की कहानी है बिजली का निजीकरण
निजीकरण के विरोध में 16 अप्रैल से संघर्ष समिति शुरू करेगी व्यापक जनसंपर्क
प्रादेशिक डेस्क
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में बिजली के निजीकरण की जल्दी में मुख्य सचिव मनोज कुमार सिंह निजी औद्योगिक घरानों के साथ मीटिंग कर गलत बयानी कर रहे हैं। उड़ीसा, दिल्ली और चंडीगढ़ में निजीकरण की कहानी कोई सफलता की कहानी नहीं, बल्कि निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति की लूट की कहानी है। यह बात उप्र विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति रविवार को प्रेस को जारी एक वक्तब्य में कही।
संघर्ष समिति के संयोजक शैलेंद्र दुबे ने कहा कि बिजली कर्मचारी किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार हैं, किंतु निजीकरण के नाम पर उत्तर प्रदेश में किसी भी कीमत पर सार्वजनिक संपत्ति की लूट नहीं होने देंगे। संघर्ष समिति के पदाधिकारियों ने कहा कि उड़ीसा के विद्युत नियामक आयोग के पूर्व अध्यक्ष उपेंद्रनाथ बेहरा को मीटिंग में बताना चाहिए था कि निजीकरण होने के 17 साल बाद उड़ीसा के विद्युत नियामक आयोग ने वर्ष 2015 में रिलायंस पावर की तीनों कंपनियों के लाइसेंस अक्षमता और भारी भ्रष्टाचार के चलते रद्द कर दिए थे। क्या यही सक्सेस स्टोरी है?
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संघर्ष समिति ने कहा कि उपेन्द्र नाथ बेहरा ने ही कोरोना के दौरान वर्ष 2020 में टाटा पावर को उड़ीसा की चारों विद्युत कंपनियों सौंपी थीं जब वे नियामक आयोग के अध्यक्ष थे। आज जब लखनऊ आकर वे निजीकरण की तारीफ कर रहे हैं, तो उन्हें यह भी बताना चाहिए था कि उन्होंने 2022 तक अपनी कार्यकाल के दौरान निजीकरण के लिए जो मापदंड तय किए थे, उन मापदंडों के अनुसार टाटा पावर की समीक्षा क्यों नहीं की? क्या निजी घरानों से मिली भगत ही सक्सेस स्टोरी है?
संघर्ष समिति ने कहा कि निजीकरण होने के बाद वर्ष 2000 में उड़ीसा में सुपर साइक्लोन आया था और अमेरिका की सबसे बड़ी निजी कंपनी एईएस कंपनी ने बिजली के ध्वस्त हुए ढांचे को पुनः निर्मित करने में धनराशि खर्च करने से मना कर दिया था और कम्पनी वापस अमेरिका भाग गई थी। इसके बाद 2020 तक यह कंपनी सरकारी नियंत्रण में रही। 2015 में रिलायंस का लाइसेंस रद्द हो जाने के बाद बाकी तीनों कंपनियां भी 2015 से 2020 तक सरकारी क्षेत्र में रही।
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दुबे ने कहा कि असली सुधार सरकारी क्षेत्र में ही हुआ है। टाटा पावर ने तो सुधार के बाद उड़ीसा की बिजली कंपनियों को टेकओवर किया है। उड़ीसा की सक्सेस स्टोरी निजीकरण की नहीं, अपितु उस अवधि की है जब विद्युत वितरण कंपनियां सरकारी क्षेत्र में रही हैं। संघर्ष समिति ने कहा कि चंडीगढ़ का विद्युत विभाग लगातार मुनाफा कमा रहा था और सालाना मुनाफा लगभग 200 करोड रुपए प्रति वर्ष का था। 22000 करोड रुपए की चंडीगढ़ विद्युत विभाग की परिसंपत्तियों मात्र 871 करोड रुपए में बेंच दी गई। यह सक्सेस की नहीं अपितु लूट की कहानी है। चंडीगढ़ में एटीएंडसी हानियां आठ फीसद थी। सक्सेस की कहानी तो सरकारी विभाग की थी जिसे कौड़ियों के दाम निजी कंपनी को बेंच दिया गया।
संघर्ष समिति ने कहा कि टाटा पावर के प्रतिनिधि किस मुंह से यह कह रहे हैं कि टाटा पावर में कर्मचारी बहुत खुश है। दिल्ली में निजीकरण होने के समय टाटा पावर कंपनी में 5431 कर्मचारी थे। एक वर्ष के अंदर ही 1970 कर्मचारियों को जबरिया सेवानिवृत्ति दे दी गई। टाटा पावर ने इन कर्मचारियों का 19 साल तक क्लेम नहीं दिया। मुकदमे चलते रहे। आज भी टाटा पावर ने 300 कर्मचारियों पर क्लेम के मामले को लेकर मुकदमे दायर कर रखें हैं। टाटा पावर इन मुकदमों पर प्रतिवर्ष 137 करोड रुपए खर्च कर रही है लेकिन कर्मचारियों को उनका जायज क्लेम देने के लिए तैयार नहीं है।
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संघर्ष समिति के संयोजक ने कहा कि मुख्य सचिव का यह कहना पूर्णतया भ्रामक है कि विकसित भारत और ग्रोथ के लिए बिजली का निजीकरण जरूरी है। उन्होंने कहा कि भारत के सबसे अग्रणी प्रांतों में गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल आदि में बिजली सार्वजनिक क्षेत्र में है, तो क्या इन सब प्रदेशों में कोई विकास और ग्रोथ नहीं हो रहा है। संघर्ष समिति ने कहा कि मुख्य सचिव का बयान पूरी तरह से अनुचित और भ्रामक है।
संघर्ष समिति ने कहा कि उड़ीसा, दिल्ली और चंडीगढ़ में बिजली कर्मियों का किस प्रकार से दमन हो रहा है इसकी कहानी सुनाने के लिए इन प्रांतों के बिजली कर्मी जल्दी ही लखनऊ आएंगे और लखनऊ में प्रेस के सामने उत्पीड़न की कहानी सुनाएंगे। संघर्ष समिति के पदाधिकारियों ने कहा कि निजीकरण के विरोध में 16 अप्रैल से व्यापक जनसंपर्क किया जाएगा और संघर्ष तब तक नहीं रुकेगा जब तक बिजली के निजीकरण का निर्णय वापस नहीं लिया जाता।
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