किशोरावस्था और सोशल मीडिया: एक दर्पण या धोखा
किशोरावस्था का प्रभाव और समाज की चुनौतियों पर गहरी नज़र
निकिता शर्मा
आज हर घर में और हर एक के हाथ में मोबाइल है। बच्चे सुबह से रात तक उसकी स्क्रीन में डूबे रहते हैं। लेकिन क्या हमने सोचा कि इस चमकती दुनिया के पीछे क्या छुपा है? नेटफ्लिक्स की नई सीरीज ‘Adolescence’ यही सवाल हमारे सामने रखती है। ये कहानी है एक 13 साल के लड़के जेमी की, जिस पर अपनी सहपाठी की हत्या का इल्जाम लगता है। हर सीन एक टेक में फिल्माया गया है, ऐसा लगता है जैसे हम उसकी जिंदगी को बिल्कुल करीब से देख रहे हों। पर ये सिर्फ एक कहानी नहीं बल्कि हमारे बच्चों की सच्चाई का आईना है। दुनियाभर के आलोचकों और लेखकों ने इसे टेलीविजन का मास्टरपीस कहा है। ‘द गार्जियन’ की लूसी मैंगन ने इसे ‘दशकों में टीवी की सबसे करीबी परफेक्शन’ बताया तो ‘रोलिंग स्टोन’ के एलन सेपिनवाल ने कहा ‘ये साल की सबसे बेहतरीन सीख है।’
जेमी की कहानी दिखाती है कि सोशल मीडिया आज की पीढ़ी को कैसे बदल रहा है। दोस्तों का मजाक, लाइक्स की होड़ और ‘टॉक्सिक मस्क्युलिनिटी’ का दबाव ये सब मिलकर उन्हें ऐसी राह पर ले जाता है, जहाँ से लौटना मुश्किल हो जाता है। हमारे देश में भी तो यही हो रहा है। बच्चे टिकटॉक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और गेम्स में खोए रहते हैं। ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की मार्गरेट लायंस लिखती हैं कि ‘ये दर्द सिर्फ दर्द नहीं, बल्कि समाज की गहरी सच्चाई को दिखाता है।’ क्या हम अपने बच्चों को इस चमक में अकेला छोड़ दें?
सीरीज में जेमी के माता-पिता भी उसकी परेशानी को नहीं समझ पाते और यही उसकी तकलीफ को और गहरा कर देता है। हमारे यहाँ भी ऐसा ही है। पहले बच्चे घर के आँगन में खेलते थे, माता-पिता के साथ हँसते बोलते थे। अब वो अकेले कमरे में मोबाइल लिए बैठे रहते हैं। हम सोचते हैं कि उन्हें आजादी दे रहे हैं, पर क्या ये आजादी उन्हें हमसे दूर नहीं कर रही? ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के रोहन नाहर का कहना है कि, “ये कहानी हमें हमारा अकेलापन दिखाती है।” पहले एक पिता अपने बच्चे को साइकिल चलाना सिखाते थे, हर छोटी-बड़ी बात सिखाया करते थे, लेकिन क्या हम उसे इस डिजिटल दुनिया में सही-गलत समझा रहे हैं?

किशोरावस्था से नई सीख
इस सीरीज ने हमें एक नई बात सिखाई कि बच्चों की दुनिया अब पहले जैसी नहीं रही। ये हमें बताती है कि सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन का स्रोत नहीं, बल्कि एक ऐसा जाल है, जिसमें हमारे बच्चे फँस सकते हैं। ‘इंडिया टुडे’ में हंसल मेहता ने कहा, ‘ये हमें डराती है, पर सचेत भी करती है।’ इसने हमें ये नया सबक दिया कि बच्चों की चुप्पी में भी एक आवाज होती है, जिसे हमें ही सुनना होगा और इस आश्वासन को भी बनाए रखना होगा कि हम हमेशा उनके साथ हैं।
हमारा समाज इससे बहुत कुछ सीख सकता है। ये सीरीज हमें बताती है कि बच्चों को अकेले छोड़ देना कितना खतरनाक हो सकता है। सोशल मीडिया का असर सिर्फ बच्चों पर नहीं बल्कि पूरे समाज पर पड़ता है। अगर हम इसे नजरअंदाज करेंगे, तो आने वाली पीढ़ी का भविष्य अंधेरे में डूब सकता है। हमें अपने बच्चों को समझना होगा, उनकी दुनिया में कदम रखना होगा। ‘द स्पिनऑफ’ ने इसे ‘सबसे गहरी सीख देने वाला शो’ कहा। हमें यह समझना होगा कि हमारा प्यार और वक़्त ही बच्चों को बचा सकता है।
हमें अपने बचाव के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। सबसे पहले, अपने बच्चों के साथ समय बिताएँ, उनकी बात ध्यान से सुनें और उनके दिल की उलझनों को बिना सवाल-जवाब किए समझने की कोशिश करें। स्कूल में जागरूकता बढ़ाना चाहिए जैसे ब्रिटेन में बच्चों को यह सीरीज दिखाने की योजना है, वैसे ही हमारे यहाँ भी स्कूलों में ऐसी शिक्षा शुरू होनी चाहिए। घर में स्क्रीन टाइम को सीमित करें, बच्चों को मोबाइल देने से पहले उनके साथ बैठें, उन्हें सही और गलत का अंतर समझाएँ। समाज के बुजुर्ग और बड़े लोग मिलकर बच्चों का मार्गदर्शन करें। खेल, बातचीत और प्यार के जरिए उनकी दुनिया को खुशहाल बनाएँ और सबसे जरूरी बात कि उन्हें उनकी रुचि अनुसार काम करने दें। अगर बच्चे को पेंटिंग करना, डांस करना या कुछ भी जो उसे पसंद हो, वह करने देना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि हम उन्हें अपने पसंद की चीजें नहीं करने देते और बच्चे मनोरंजन के लिए मोबाइल लेकर बैठ जाते हैं, जिसका परिणाम बिल्कुल भी अच्छा नहीं होता है।
‘Adolescence’ सीरीज देखकर मन में एक टीस उठती है कि हम अपने बच्चों को मोबाइल देकर क्या दे रहे हैं- खुशी या अनजाने में एक बोझ? ये सवाल हर घर में गूँजना चाहिए। तो आइए, अपने बच्चों के मन की बात सुनें, उनके साथ समय बिताएँ और उन्हें उस रास्ते पर ले चलें जहाँ उनकी हँसी और मासूमियत बची रहे। यही हमारा फर्ज है और उनके प्रति हमारा प्यार है।
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