साहित्यकार की व्यथा
ज्ञान सिंह
धीरे-धीरे ठंड बढ़ रही है। कहते हैं कि ठंड में चीजें सिकुड़ जाती हैं और गर्मी में फैलती हैं। मुझे लगता है कि यही फ़ार्मूला आदमी के दिमाग़ पर भी लागू होता है। कदाचित बढ़ रही ठंड की वजह से दिमाग़ भी सिकुड़ गया है और कुछ सूझ नहीं रहा है कि क्या लिखा जाये। इसलिए हमने तय किया कि लिखने की बजाय किसी से बात की जाये और दिमाग़ को पहले गरम किया जाये। जिस पहले आदमी को हमने फ़ोन मिलाया, वह इत्तफ़ाक़ से साहित्यकार निकल गये। लगे हाथ बताते चलें कि वैसे तो मनुष्य एक सामाजिक प्राणी माना जाता है, पर यह नियम साहित्यकारों पर पूरे तौर पर लागू नहीं होता है। तमाम साहित्यकारों के स्वभाव, आदतों और चाल चलन के नमूनों के परीक्षण के बाद यह बात निकल कर आई है कि आजकल बहुतायत में पाया जाने वाला यह जीव सामाजिक प्राणी नहीं होता है। यह समाज के अन्दर एक उप समाज निर्मित कर अपने सदृश प्राणियों के साथ रमण करता रहता है और बाक़ी समाज से इसका कोई सरोकार नहीं रहता है। जिस प्रकार भेड़ों को अपने ही झुंड में रहने की प्रवृत्ति होती है और श्वान बन्धु अपने साथियों के मध्य ही सहज महसूस करते हैं, उसी प्रकार यह बिरादरी भी अपनों के साथ ही विचरण करती देखी जा सकती है।
और गहराई से अध्ययन करने पर पता चला कि साहित्यकार नामधारियों का यह उप समाज और भी छोटे छोटे गुटों में विभाजित हो जाता है और फिर आपस में जूतम-पैजार करना इनका प्रिय शग़ल बन जाता है। चूँकि समाज से यह दूर बने रहते हैं इसलिए प्रायः एक दूसरे के यहाँ बैठकी कर यह आपस में ही एक दूसरे की पीठ ठोंकते रहते हैं। इनके मस्तिष्क में एक विशिष्ट प्रकार की रासायनिक क्रिया होती रहती है जिसके कारण उत्पन्न वैचारिक स्राव से यह कई टन कागज भिगो देने की क्षमता पैदा कर लेते हैं। अन्ततः यह कागज देश भर की पहले से बोझिल लाइब्रेरियों को और बोझिल बनाने के काम आता है। यद्यपि यह अधिकांशतः स्वयं बेरोज़गार होते हैं पर इनके द्वारा तैयार लाखों टन सामाग्री जिसे आम बोलचाल की भाषा में रद्दी कहा जाता है, को बारह रुपये प्रति किलो ख़रीद कर लाखों लोग अपनी बेरोज़गारी दूर करने में सफल हो जाते हैं। यह बात इसलिए सही लगती है कि आपके घरों में कोई आये या न आये पर कबाड़ी जरूर तीन बार आवाज़ लगा कर निकल जाता है। इससे यह भलीभाँति साबित हो जाता है कि सब मिलाकर अनुपयोगी होते हुए भी यह बेरोज़गारी दूर करने में काफ़ी हद तक उपयोगी हो जाते हैं। यह बेचारे सदैव एक अदृश्य भूख से पीड़ित बने रहते हैं।यह है प्रशंसा की भूख। प्रशंसा के दो शब्द कह देने या इनके गले में माला लटका देने मात्र से इनकी भूख अस्थाई तौर पर शान्त हो जाती है पर कुछ समय बाद फिर उभर आती है।कवि सम्मेलनों में कवि का ध्यान कविता सुनाने के बजाय इस बात पर ज़्यादा रहता है कि ताली बजी या नहीं।बीच बीच में वह श्रोताओं से जबरन तालियाँ बजवाने की कोशिश भी करता रहता है।ज़्यादातर साहित्यकारों को ग़रीबों और ग़रीबी से बड़ा आत्मिक लगाव होता है।यह वह मानसिक अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति हर समय व्यवस्था को कोसता रहता है तथा पैसे वालों और खुशहाल लोगों को देख कर भड़का बना रहता है और अपनी ग़रीबी के लिए उन्हीं को दोषी मानता रहता है और उनसे खार खाये रहता है। यह मानसिक अवस्था साहित्य लेखन में खाद का काम करती और उस व्यक्ति को साहित्यकार बना कर ही दम लेती है। सब प्रकार से संतुष्ट और सुखी व्यक्ति कभी भी सफल साहित्यकार बनता नहीं पाया गया है। साहित्यकार बनने की अनिवार्य क्वालीफिकेशन है कि आदमी निरंतर दुखी और असंतुष्ट बना रहे और उसका मुँह इस प्रकार लटका रहे जैसे किसी झोले में चार किलो आलू डाल दिए गए हों।
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बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई। हमारा फ़ोन जिन साहित्यकार महोदय से लग गया था। उनका दिमाग़ पहले से ही उबाल पर था। उन्हें शांत करने का कारगर तरीक़ा हमें पहले से मालूम था। इसलिए हमने उनके लेखन की भूरि भूरि प्रशंसा प्रारंभ कर दी। जिस तरह गरम तवे में पानी के छींटे डालने से तवे की ऊष्णता न्यून हो जाती है, उसी प्रकार उनका तप्त मस्तिष्क कुछ सीमा तक शीतल हो पाया। आगे की बातचीत में उन्होंने अपनी सारी ऊष्णता हिन्दी संस्थान द्वारा विगत दिनों प्रदान किये गये पुरष्कारों के तरीक़े पर उड़ेल डाली। बताया कि किस किस तरह के बक्लोल और जुगाड़िया लोगों को पुरस्कारों में शामिल किया गया है, जिन्हें कोई जानता पहचानता भी नहीं है और जिनका लेखन किसी पशु द्वारा अपने पृष्ठ भाग से निर्गत पदार्थ के समतुल्य है। उनका नाम तो महज यह कहकर हटा दिया गया कि अभी इनकी उम्र है कोई जल्दी नहीं है। यानि कि जब तक दाँत ढीले न हो जायें आँखों पर डोर से बंधी टूटी कमान का चश्मा न चढ़ जाये, और दो लोग बाँह पकड़ कर उसे स्टेज तक न घसीट लायें तब तक साहित्यकार पुरुष्कार के योग्य नहीं माना जायेगा। भला यह कोई बात हुई। मित्र साहित्यकार ने उजागर किया कि पिछले दो वर्षों से अपने श्वेत केशों को न रंगने की उनकी साधना व्यर्थ हो गई है इसलिए अब उन्होंने फिर से अपने बाल रंग लिये है, क्योंकि वह दंतहीन, श्रवण और दृष्टि बाधित तथा छिन्न भिन्न होने तक किसी पुरुष्कार की प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं। हमने उन्हें तसल्ली देते हुए कहा कि भाई जो खुद जुगाड़ से फिट हुए हैं उनसे आप मेरिट पर निर्णय लेने की उम्मीद क्यों पाले हुए हैं। रही बात पुरस्कार की तो इसे सुगमता से दो तरीक़ों से ही हासिल किया जा सकता है। पहला मक्खन-लेपन क्रिया निर्लिप्त और पूर्ण सेवा भाव से जारी रखी जाये और दूसरा संभव हो तो किसी छँटे हुए उस्ताद की सेवायें ली जायें जो हर प्रकार के जुगाड़ का माहिर हो। मैदाने-जंग में जमे रहिये,सब्र का फल सदैव मीठा होता है। ऐसा बुद्धिमानों को अक्सर कहते सुना गया है।
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