रघोत्तम शुक्ल
जब इतिहास सृजित हो रहा हो, तब शक्तिमान लोगों के पास दो ही विकल्प होते हैं- या तो वे उसका सक्रिय हिस्सा बनें, या फिर मौन रहकर एक नैतिक अपराध के भागीदार बन जाएँ। इतिहास के हर निर्णायक मोड़ पर, कुछ नायक अपनी तलवार से नहीं, बल्कि अपने निर्णयों से युग को दिशा देते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं, जो सामर्थ्य होने के बावजूद तटस्थ बने रहते हैं और उनके मौन का मूल्य पीढ़ियों को चुकाना पड़ता है।
महाभारत इसका कालजयी उदाहरण है। श्रीकृष्ण युद्ध में शस्त्र नहीं उठाते परंतु नीति, दृष्टि और दिशा वहीं से तय होती है। वे अर्जुन के सारथी बनकर परोक्ष रूप से पूरे युद्ध के निर्णायक बन जाते हैं। वहीं, विदुर जैसे नीतिज्ञ और धर्म के पुजारी युद्ध से दूर तीर्थयात्रा पर निकल जाते हैं। लेकिन भीष्म? उनके पास शस्त्र, शक्ति और नैतिक अधिकार भी था। फिर भी वे तटस्थ बने रहे। परिणामस्वरूप इतिहास ने उन्हें ‘महान योद्धा’ के रूप में नहीं, एक मौन अपराधी के रूप में याद किया।
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इमरजेंसी के दौर में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा था- ‘भीष्म को क्षमा नहीं किया गया।‘ कारण साफ था- उनकी तटस्थता ही उनके पतन का कारण बनी। क्योंकि जब अन्याय को देख कर भी कोई धर्म का पक्ष नहीं लेता, तो वह स्वयं अन्याय का सह-अपराधी बन जाता है।
समकालीन विश्व राजनीति में आज हम मध्यपूर्व के संकट से दो-चार हैं। ईरान और इज़रायल के बीच छिड़ी हुई सीधी भिड़ंत अब वैश्विक टकराव की ओर बढ़ रही है। अमेरिका इज़रायल के पक्ष में खुलकर कूद पड़ा है। वहीं रूस और चीन ईरान को परोक्ष समर्थन दे रहे हैं। तीनों महाशक्तियाँ किसी न किसी रूप में इस ‘महाभारत’ का हिस्सा बन चुकी हैं।
ऐसे में भारत की भूमिका पर गंभीर प्रश्न उठते हैं। हमारे प्रधानमंत्री बार-बार दोहराते हैं—’यह युद्ध का युग नहीं है।‘ यह कथन नैतिक दृष्टि से प्रशंसनीय अवश्य है, किंतु क्या यह पर्याप्त है? क्या यह तटस्थता उस नैतिक भूमिका का स्थान ले सकती है, जिसकी अपेक्षा भारत जैसे प्राचीन धर्मनिष्ठ राष्ट्र से की जाती है?
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हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि जब भारत ने पाकिस्तान से संघर्ष किया था, तब इज़रायल खुलकर हमारे समर्थन में आया था। आज जब वही मित्र जब संकट में है, तब क्या हमारी नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती कि हम धर्म और न्याय का पक्ष लें? भारत की भूमिका महाभारत के किसी भी पात्र से मेल खाती है तो वह श्रीकृष्ण से करनी चाहिए- न तो सीधा युद्ध में उतरना, न ही निष्क्रिय रहना।
इतिहास मौन रहने वालों को क्षमा नहीं करता। भीष्म को नहीं किया गया। विदुर भी उपेक्षित रहे। इतिहास में वही अमर हुआ, जिसने वक्त पर निर्णय लिया- कठोर, लेकिन धर्मसम्मत। आज के वैश्विक परिदृश्य में भारत यदि केवल तटस्थता का आश्रय लेता है तो भविष्य में कोई डॉ. द्विवेदी यह भी लिख सकता है- भारत को भी क्षमा नहीं किया गया।
