Saturday, June 14, 2025
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भारत में मानसिक स्वास्थ्य: जागरूकता से बदलाव की ओर

भारत में मानसिक स्वास्थ्य संकट बनता जा रहा है अदृश्य महामारी

निकिता शर्मा

भारत में प्रगति की रफ्तार तेज है, लेकिन इस दौड़ में मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसा अनकहा संकट है जो हमारे समाज को कमजोर कर रहा है। वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2025 के मुताबिक भारत का हैप्पीनेस इंडेक्स 147 देशों में 118वें स्थान पर है, जो दर्शाता है कि खुशियों की तलाश में हम कहीं पीछे रह गए हैं। तनाव, चिंता और अवसाद के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, खासकर युवाओं और छात्रों में। यह संकट केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी यह देश को प्रभावित करता है।

युवाओं पर बढ़ता दबाव

युवा पीढ़ी देश की मजबूती है, लेकिन वे मानसिक स्वास्थ्य संकट की सबसे बड़ी मार झेल रहे हैं। पढ़ाई का दबाव, नौकरी की अनिश्चितता और सोशल मीडिया की तुलनात्मक संस्कृति ने उन्हें तनावग्रस्त कर दिया है। ‘नागरिक’ में छपे एक लेख के अनुसार, कोचिंग हब के रूप में माने जाने वाले कोटा में 2025 में जनवरी से लेकर अब तक 10 छात्रों ने आत्महत्या की है। वहां के छात्रों के अनुसार ‘हर दिन टेस्ट, कम नंबर और माता-पिता की उम्मीदें उन्हें अंदर से तोड़ती हैं।’ यह कहानी उन लाखों छात्रों की है, जो कोटा, दिल्ली, इलाहाबाद या पटना जैसे शहरों में अपने सपनों के लिए जूझ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, भारत में 15-29 आयु वर्ग में आत्महत्या मृत्यु का तीसरा प्रमुख कारण है। शहरी क्षेत्रों में काम का दबाव और अकेलापन और ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाओं की कमी इस संकट को और गहरा रही है। हाल के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 90% भारतीय कर्मचारी कार्यस्थल पर सूचना अधिभार और तनाव से पीड़ित हैं, जो कार्यस्थल तनाव को ‘अगली महामारी’ के रूप में उजागर करता है। इसके अलावा, 2024 में बेरोजगारी दर 16.1% होने से युवाओं में अवसाद और चिंता बढ़ रही है।

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सामाजिक कलंक और समर्थन की कमी

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भारत में गंभीर सामाजिक कलंक भी है। ‘पागल’ या ‘कमजोर’ जैसे शब्दों ने इस मुद्दे को और जटिल बनाया है। अक्सर लोगों की घबराहट और चिंता को ‘ज्यादा सोचने की आदत’ कहकर टाल दिया जाता है। ये बातें उन्हें मदद मांगने से रोकती है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ लगभग न के बराबर है। सामाजिक समर्थन की कमी भी इस संकट का एक बड़ा कारण है। पहले के समय में संयुक्त परिवार और समुदाय भावनात्मक रूप से बल प्रदान करते थे, लेकिन शहरीकरण और एकल परिवार के ट्रेंड ने इस ताने-बाने को बहुत कमजोर कर दिया है। सोशल मीडिया ने तुलनात्मक संस्कृति को बढ़ावा दिया, जिससे युवा अकेलापन महसूस करते हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NMHS) 2015-16 के अनुसार, 10.6% वयस्क मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं और 70-92% लोगों को सही इलाज ही नहीं मिल पाता है। शहरी क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की व्यापकता 13.5% है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 6.9% है। हाल ही में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) द्वारा जारी नेशनल टास्क फोर्स की रिपोर्ट 2024 ने मेडिकल छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर चिंताजनक आँकड़े उजागर किए हैं। 84% स्नातकोत्तर (PG) छात्र मध्यम से अत्यधिक तनाव का अनुभव करते हैं और 64% का कहना है कि अधिक कार्यभार उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। 

सरकारी और सामुदायिक प्रयास

हालांकि भारत सरकार ने अब मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लेना शुरू किया है। 2017 का मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, MHCA) मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाने पर जोर देता है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP) के तहत जिला स्तर पर परामर्श केंद्र शुरू किया गया है और टेली-मानस जैसी टेलीमेडिसिन पहल ने दूरस्थ क्षेत्रों में मदद पहुंचाई है। 2022-23 के केंद्रीय बजट में राष्ट्रीय टेली-मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की घोषणा की गई, जो 24×7 मुफ्त परामर्श सेवाएँ प्रदान करता है।
लेकिन चुनौतियाँ अब भी बनी हुई हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक हर एक लाख लोगों पर 3 मनोचिकित्सक और कम-से-कम 1 मनोवैज्ञानिक की जरूरत है। हालांकि भारत में यह आंकड़े कुछ और ही कहते हैं, यहाँ एक लाख लोगों के लिए 1 मनोचिकित्सक भी नहीं है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक मौजूदा समय में देश भर में केवल 898 मनोवैज्ञानिक हैं जबकि देश की स्वास्थ्य प्रणाली को 20,250 मनोवैज्ञानिकों की जरूरत है। सामुदायिक स्तर पर कुछ संगठन इस कमी को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, पुणे की ‘कनेक्टिंग’ आत्महत्या रोकथाम के लिए हेल्पलाइन चलाती है, जिसने पिछले साल 10,000 लोगों को सहायता दी। चेन्नई की ‘द बानियन’ बेघर लोगों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करती है।

नए उभरते मुद्दे

कार्यस्थल का तनाव और बर्नआउट: हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में 74% लोग तनाव और 88% चिंता विकारों से पीड़ित हैं। कार्यस्थल पर वर्कलोड और भागदौड़ भरी जीवनशैली ने बर्नआउट को बढ़ाया है। विशेष रूप से, सूचना प्रौद्योगिकी और कॉर्पोरेट क्षेत्र के कर्मचारियों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं और हाशिए वर्ग पर प्रभाव: कोविड-19 महामारी के बाद, शहरी गरीब और प्रवासी श्रमिकों के परिवारों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ी हैं, खासकर महिलाओं में। सामाजिक और लैंगिक असमानताएँ, गरीबी और घरेलू हिंसा ने इन समुदायों में मानसिक स्वास्थ्य संकट को और गहरा किया है। नोमोफोबिया और तकनीकी लत: शहरीकरण के साथ, युवाओं में नोमोफोबिया (मोबाइल फोन से अलग होने का डर) और तकनीकी लत बढ़ रही है। यह नई चुनौती स्कूलों और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

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भविष्य की राह

मानसिक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए हमें सामूहिक और व्यक्तिगत कदम उठाने होंगे।

1. सामाजिक कलंक को तोड़ना: स्कूलों और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। शिक्षकों और परामर्शदाताओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य प्रशिक्षण अनिवार्य हो। 2. कार्यस्थल सुधार: कार्यस्थलों पर तनाव प्रबंधन और परामर्श सेवाएँ अनिवार्य होनी चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान लोगों को मदद मांगने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। 3. ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएँ: सरकार को टेलीमेडिसिन और मोबाइल हेल्थ यूनिट जैसे नवाचारों को बढ़ावा देना होगा। मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में एकीकृत करना जरूरी है। 4. स्वायत्त संस्था की स्थापना: HIV-AIDS के लिए NACO की तर्ज पर मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक स्वायत्त संस्था बनाई जाए, जो संसाधनों और समुदाय की भागीदारी को समन्वित करे। 5. व्यक्तिगत जिम्मेदारी: हमें अपने दोस्तों और परिवार के साथ खुलकर बात करनी चाहिए अगर कोई परेशान दिखे, तो बिना जज किए उनकी बात सुनना चाहिए। कुछ छोटे प्रयास जैसे ध्यान, व्यायाम या कोई शौक आदि भी मदद कर सकते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य हम सबकी जिम्मेदारी है। हमें एक ऐसा समाज बनाने की जरूरत है जहाँ हर कोई अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सके और मदद पा सके। इस दिशा में कदम उठाकर हम न केवल एक विशेष व्यक्ति, बल्कि पूरे समाज को सशक्त बना सकते हैं।

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