मंदिर वापस मिले! बस यही हल है!

के. विक्रम राव

अपनी प्राकृतिक, परम्परागत हिन्दु दरियादिली के कारण श्री मोहन मधुकरराव भागवतजी चाहते हैं कि ’हर मस्जिद के तले शिवलिंग न ढूंढा जाये।’ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की इस उदार तजवीज को सदियों से प्रताड़ित, पीड़ित हिन्दुओं का बहुलांश कम ही स्वीकार पायेगा। ज्ञानवापी में सदियों से बिछुड़े नन्दी का अपने स्वामी (शिवलिंग) के सम्मुख पेश होना एक ऐतिहासिक इस्लामी जुल्म का प्रतिकार है। अन्ततः काशी में वंचित को न्याय मिल ही गया। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में भारत की अब कोई लाचारी अथवा आत्मिक दुर्बलता नहीं रही कि वह शमशीरे इस्लाम के बूते छीने हुए अपने आस्थास्थल का स्वामित्व पुनः हासिल न कर सके। कानूनन ठीक, यदि संभव हो तो। सुचारु संघर्ष द्वारा, यदि जरुरत पड़े तो। यह भागवतजी द्वारा नयी दिल्ली में अक्टूबर 2019 के विद्यार्थी परिषद की सभा में श्री सुनील अंबेकर की उपस्थिति में प्रतिपादित सिद्धांतों के मुताबिक ही है। (पायनियर, 2 अक्टूबर 2019)। ये दो सिद्धांत हैं : राष्ट्रवाद तथा हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा। अखण्ड भारत के पक्षधर वे हैं। डा. राममनोहर लोहिया भी यही चाहते थे। मंदिरों के विषय में भागवतजी ने कहा था कि संघ अधुना मथुरा और काशी के पूजा स्थलों को मुक्त कराने का हिमायती नहीं है, (9 सितंबर 2020 : दि हिन्दू दैनिक)। यह अकीदतमंद हिन्दुओं के प्रति सरासर और सख्त नाइंसाफी होगी। भोलेनाथ और मथुराधिपति पैगम्बरे इस्लाम से पूर्व आये थे। साम्राज्यवादियों और इस्लामी हमलावरों ने जबरन कब्जियाकर शाही ईदगाह तथा ज्ञानवापी में तोड़फोड़ की है। यह प्रमाणित, निर्विवाद सत्य हैं। यदि नेहरु से नरेन्द्र मोदी तक को कोई भी शासक इतिहास के साथ हुये इन बलात्कारियों को दण्डित नहीं कर पाया तो वंचितों को लगातार प्रताड़ित क्यों रहना पड़े? यह ईश्वरीय इंसाफ की अवहेलना होगी। यदि भारत में मुस्तफा कमाल पाशा जैसा शासक होता तो ऐसा कभी न होता। कमाल पाशा ने खलीफा महमूद द्वितीय को गत सदी में अपदस्थ कर पहला काम किया था कि पांचवीं सदी की सोफिया हेदिया चर्च से मस्जिद को हटाकर उसे संग्राहलय बना दिया था। मगर अब अपनी इस्लामी कट्टरता के कारण राष्ट्रपति रिसेप एर्डोगन ने फिर मस्जिद बना डाला। मदरसा, मीनार, झूमर, मिनबार निर्मित कर दिया। सब सैन्य बल के आधार पर। लोक सहमति से नहीं।
वैसा ही हुआ जो भारत में भी मुगलों ने बदौलते (इस्लामी) शमशीरे किया था। वरना बाबर को मुस्लिम इबादतगाह बनाना ही था तो मुस्लिम बहुल धन्नीपुर में बनाता, जहां योगी सरकार ने मस्जिद हेतु पांच एकड़ जमीन सुन्नियों को दी है। औरंगजेब भी बजाय ज्ञानवापी मंदिर के निकटस्थ मुस्लिम गांव बजरडीहा में और कृष्ण जन्मभूमि से कुछ दूर फतेहपुर सीकरी में मस्जिद बना सकता था। केवल प्राचीन भारतीय गौरव को इस्लामी हुकूमत की जघन्यता दिखाने के मकसद से ही यह दोनों जोर जबरदस्तियां की गयीं। अतः भागवतजी की राय से अन्याय का अंत नहीं होता है। बल्कि वह उसे बरकरार ही रखती हैं। क्या हुआ था इस्लामी देशों में : उजबेकिस्तान, कजाक, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्तान आदि में? जोसेफ स्तालिन ने यहां मस्जिदों में रंगालय, मदिरालय, संगीतालय आदि बना दिये थे। मगर इस्लामी शासन के लौटते ही फिर से मस्जिदों ने रुप ले लिया। तो मथुरा, काशी तथा अन्य कब्जियाये गये वैदिक पूजास्थलों को मूल रुप में पुननिर्मित किया जाये। यही वाजिब होगा। यह संभव भी है। क्योंकि जमीयते उलेमा ए हिन्द के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने नयी दिल्ली के संघ मुख्यालय केशव कुंज (1 सितम्बर 2019) जाकर भागवतजी से भेंट की थी। रात सवा दस से पौने बारह बजे तक वार्ता हुयी थी। तब तक जमीयत बाबरी ढांचे के दावे में पक्षकार थी। अब ऐसी ही वार्ता काशी विश्वनाथ और मथुरा पर भी हो।
ठीक इसी भांति गाजियाबाद में (5 जुलाई 2021), एक पुस्तक विमोचन समारोह पर सह अस्तित्व तथा संग्रहित संस्कृति का उल्लेख संघ प्रमुख ने किया था (दि हिन्दू : 13 जुलाई 2021 अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति तारीक मसूद का लेख।) यूं भी संघ प्रमुख ब्रिटिश राज द्वारा भारतीय इतिहास का विकृत प्रस्तुतिकरण की याद दिलाते है तथा भारत के सशक्तिकरण पर बल देते रहे हैं। (दि हिन्दुस्तान टाइम : 28 नवम्बर 2021)। विधि विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा (इंडियन एक्सप्रेस 24 सितम्बर 2021) स्मरण करते हैं कि कैसे 1857 के बाद से ’’बाटो और राज करो,’’ वाली नीति अंग्रेजों ने चलायी। जिन्ना माध्यम बने। नतीजा सामने है। स्काटिश इतिहासकार और बम्बई के (1859) गवर्नर लार्ड माउन्ट स्टुवर्ट एलफिंस्टन इस नीति के प्रबल क्रियान्वयक थे। इन प्रमाणित तथ्यों तथा आग्रहों के आधार पर अब भारतीय इस्लामी तंजीमों को शाश्वत हल निकालना चाहिये। भागवतजी प्रेरक पहल करें। यदि आक्रमकों और अरबी लुटेरों को आधुनिक भारतीय मुसलमान इक्कीसवी सदी में भी अपना पुरखा मानेंगे तो फिर इस्राइल फिलिस्तीन की माफिक भारत में भी संघर्ष तथा वैमनस्य गहराता जायेगा। समाधान बीरबल की खिचड़ी जैसा हो जायेगा, जो कभी पक ही न सकता। अब इस्लामी पृथकतावाद को प्रोत्साहित करने वाले मुगल तथा ब्रिटिश साम्राज्यवादी नहीं रहे। मोहम्मद अली जिन्ना की इस्लामी एकजुटता का ख्वाब बांग्लादेश ने दफन कर दिया। सिंधु, बलोचिस्तान, पख्तनिस्तान की अगली बारी है। सोचने की दरकार हैं, कहीं ज्यादा देर न हो जाये। भारत में संप्रदायों का समन्वयवादी बन कर रहना अनिवार्य है। सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खा का यही अनुरोध रहा, अपील रही। ठीक यही लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर सर्द दिसम्बर (1916) में बापू ने दो चाय वालों को पास बुला कर किया था। वे ’हिन्दू चाय’ और ’मुस्लिम चाय’ पुकार कर बेच रहे थे । बापू ने तीसरे कुल्हड में आधी-आधी चाय डाली और कहा : ’अब इस हिन्दुस्तानी चाय को बेचो।’ यही होना चाहिये आज, जो भी इसकी पहल करेगा इतिहास में वही अव्वल होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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