बसपा का संकट और भाजपा

राज खन्ना

2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बसपा की क्या स्थिति होगी? पार्टी की कमजोर होती उपस्थिति के बीच राजनीति के जानकार प्रदेश की राजनीति पर इसके सम्भावित असर को मापने की कोशिश कर रहे हैं। 2012 से ही पार्टी काफी खराब दौर से गुजर रही है। पिछले दिनों पहले उत्तर प्रदेश में पार्टी के दो परिचित चेहरे राम अचल राजभर और लालजी वर्मा को बसपा सुप्रीमो मायावती ने बाहर का रास्ता दिखाया है। 2017 के चुनाव में पार्टी के हिस्से में आये 19 विधायक घटकर सात रह गए हैं। इनमें भी कुछ और के छिटकने के संकेत हैं। आमतौर पर चुनावों के वक्त पार्टियां अपने कुनबे को मजबूती देने और उनके विस्तार की कोशिशों में दिखती हैं। बसपा में विपरीत स्थिति है। वहां से निकलने वालों या निकाले जाने वालों से जुड़ी खबरों का जोर है। बेफिक्र मायावती अपनी पुरानी शैली और तेवर में हैं। वह जानती हैं कि बसपा को वोट सिर्फ और सिर्फ उनके नाम पर मिलते हैं। हालांकि उनकी इस सोच और पार्टी चलाने के तौर-तरीकों ने बसपा को बुरी हालत में पहुँचा दिया है।

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उत्तर प्रदेश में 1993 से 2007 के बीच के विधानसभा चुनाव बसपा की तरक्की के लिए याद किये जाते हैं। 1993 में सपा से गठबन्धन में लड़ी 164 सीटों पर पार्टी ने 67 पर जीत दर्ज की थी। वोट प्रतिशत 28.32 था। सपा से गठबन्धन और सरकार दोनों ही अल्पजीवी रहे। 1996 में कांग्रेस से गठबन्धन में पार्टी ने चुनाव मैदान में 296 उम्मीदवार उतारे। सीटें पिछली बार की तरह 67 ही मिलीं। प्राप्त मतों में मामूली गिरावट हुई। यह 27.73 प्रतिशत था। लेकिन 2002 में मतों में चार प्रतिशत से अधिक गिरावट अर्थात 23.19 प्रतिशत मत प्राप्त करने के बाद भी उसकी सीटें बढ़कर 98 हो गईं। 2007 में पार्टी का प्रदर्शन धमाकेदार था। वोट प्रतिशत 30.43 पर पहुंच गया और 206 सीटें जीतकर पार्टी ने अपने दम पर सरकार बना ली। पराभव इसके बाद शुरू हुआ। 2012 में वोट घटकर 25.95 प्रतिशत रह गए। सीटें 80 बचीं। 2014 का लोकसभा चुनाव पार्टी के लिए और निराशाजनक रहा। 503 उम्मीदवार मैदान में उतारे। नतीजा शून्य था। उत्तर प्रदेश में वोट प्रतिशत में हिस्सेदारी घटकर 19.60 रह गई। पार्टी को अगला झटका 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में लगा। 2012 की तुलना में लगभग तीन प्रतिशत वोटों में और 61 सीटों की कमी हुई। इस चुनाव में वोट प्रतिशत 22.24 था और सीटें अब तक की न्यूनतम 19 रह गईं। प्रदेश के दो विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव की तीन सिलसिलेवार हार से परेशान मायावती ने 2019 में निजी खुन्नस को किनारे रखते हुए मिजाज के खिलाफ एक बड़ा राजनीतिक फैसला किया। यह फैसला मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार से 25 साल पुरानी बैर को भूलते हुए लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन का था। इस गठबन्धन के जरिये सपा-बसपा दोनों ने बड़ी उम्मीदें लगा रखीं थीं। ये उम्मीदें 1993 के प्रदर्शन को दोहराने से भी ज्यादा दूर की थीं। केंद्र से भाजपा की विदाई और गठबन्धन दौर की सरकार की वापसी की आस संजोई गई थी। समर्थक मायावती को प्रधानमंत्री बना रहे थे। मायावती को प्रधानमंत्री बनाये जाने के सवाल पर तब अखिलेश यादव जबाब दे रहे थे, ’अगला प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से ही होना चाहिए। आप जानते हैं मैं किसे चाहता हूँ।“ जाहिर था कि अगर अखिलेश यादव, मायावती को प्रधानमंत्री बना रहे थे तो एवज में 2022 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने लिए पक्की कर रहे थे। विपरीत इसके इस चुनाव में भाजपा और मोदी ज्यादा मजबूती से उभरे। फायदा बसपा का भी हुआ। 2014 के शून्य की तुलना में मायावती की लोकसभा सीटें 10 हो गईं। सभी उत्तर प्रदेश से थीं। सपा पाँच पर ही अटक गई। सपा की तुलना में दोगुनी सीटें पाने के बाद भी मायावती ने गठबंधन तोड़कर 2022 के उत्तर प्रदेश के लिए, खुद को सपा को मदद की जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया।

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मायावती का अगला कदम क्या होगा? 2022 के नजरिये से बसपा उत्तर प्रदेश की सत्ता के दौड़ से बाहर मानी जा रही हैं। 2007 में सर्वजन की जिस सोशल इंजीनियरिंग ने उसे सत्ता में पहुँचाया था, वह करिश्मा फिर नहीं दोहराया जा सका। 2012 से लगातार शिकस्त ने उनके कैडर को निराश किया है। इस बीच अनेक नेताओं की पार्टी से विदाई हुई है। निष्क्रियता के कारण पार्टी का संगठनात्मक ढांचा कमजोर हुआ है। 2021 में उत्तर प्रदेश में बसपा उस मुकाम पर है, जहां उसकी मौजूदगी का आकलन 2022 के चुनाव में भाजपा और सपा के संभावित प्रदर्शन पर पड़ने वाले परिणामों के लिए हो रहा है। भाजपा को लेकर नरमी के आरोपों से भी मायावती घिरती रही हैं। लेकिन उनके और भाजपा के बीच चुनाव पूर्व के गठबंधन की अटकल को सीधे मोदी की लोकप्रियता पर सवाल मानते हुए खारिज किया जा रहा है। बसपा की कमजोरी का लाभ किसके हिस्से में जायेगा? मुस्लिम मतों का एकजुट समर्थन सपा को मजबूती देता है। बसपा अपने मुस्लिम उम्मीदवारों के जरिये इसमें सेंधमारी करती रही है। तय है कि बसपा की कमजोरी का संदेश मुस्लिम मतदाताओं को और मजबूती से सपा के पक्ष में लामबंद करने में मददगार होगा। बसपा समर्थक गैर यादव पिछड़ों का बिखराव भी सपा को अतिरिक्त ताकत दे सकता है। ऐसी संभावनाएं भाजपा के सामने सपा को अकेली चुनौती के रूप में पेश करेंगी। जाहिर है, इससे भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव रुकेगा। दूसरी तरफ भाजपा के लिए यह घाटे की स्थिति होगी। एक दौर में विपक्षी वोटों का बिखराव कांग्रेस को लाभ देता था। आज उस स्थान पर भाजपा है। सीधा मुकाबला भाजपा की मुश्किलें बढ़ाता है।

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मध्यप्रदेश ,राजस्थान, छतीसगढ़, गुजरात और दिल्ली जैसे राज्यों के पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजें इसकी पुष्टि करते हैं। ताजा प्रसंग पश्चिम बंगाल का है जहाँ वाम-कांग्रेस मोर्चे के बेहद निराशाजनक प्रदर्शन ने भाजपा को सीधे तृणमूल कांग्रेस के सामने करके पार्टी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव में राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारों की असफलताओं की जबाबदेही पार्टी को परेशान करेगी। उधर सत्ता विरोधी रुझानों के बीच विपक्षी वोटों की एकजुटता भाजपा की मुश्किलें और बढ़ा सकती है। स्वाभाविक है कि भाजपा के लिए दोहरी चुनौती है। एक ओर अपने वोट को संजोना है और साथ ही मायावती के वोट बैंक में सेंधमारी करके खुद को मजबूत करना है। लेकिन बसपा की कमजोरी सपा की मजबूती का कारण बन जाये, यह स्थिति भाजपा को परेशान करेगी। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41.57 प्रतिशत वोट मिले थे। सपा के 28.32 और बसपा के 22.23 का जोड़ 50.55 प्रतिशत था। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में साथ लड़ने वाले इन दोनों दलों को हासिल वोटों का जोड़ 37.22 प्रतिशत पर सिकुड़ गया था। तब भाजपा को प्रदेश में 49.56 प्रतिशत वोट मिले थे। माना जाता है कि लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की चयन प्राथमिकताएं अलग होती हैं। सवाल सिर्फ फर्क की सीमाओं का है। सपा और भाजपा दोनों की बसपा के वोट बैंक पर नजर है। लेकिन फिर भी भाजपा उत्तर प्रदेश में सीधे मुकाबले से बचना चाहेगी। उसके लिए जरूरी होगा कि बसपा लड़ती नजर आए।

(लेखक अधिवक्ता व सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं।)

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