आपदा में अवसर नहीं, प्रबंधन!

शंभूनाथ शुक्ल

अनिल अम्बानी के बेटे अनमोल अंबानी ने ट्वीट किया है, कि सरकार की लॉक डाउन पॉलिसी से छोटे उद्योग ख़त्म हो रहे हैं। इसका लाभ बड़े उद्योगपतियों को मिलता है। उन्होंने कहा है कि क्रिकेटरों को क्रिकेट खेलने की छूट है, फ़िल्मकारों को फ़िल्म बनाने की तथा राजनेताओं को रैलियाँ करने की। लेकिन आम आदमी और कारोबार को आवश्यक श्रेणी में नहीं रखा गया है। उनके ट्वीट की भाषा है- ‘Professional, actors can continue shooting their films. Professional cricketers can play their sport late into the night. Professional politicians can continue their rallies with masses of people. But YOUR business or work is not ESSENTIAL.  Still don’t get it?’ अनमोल का यह ग़ुस्सा जायज़ है। और इससे सरकार के कोरोना प्रबंधन की पोल भी खुलती है। साल भर से ऊपर हो गए कोरोना महामारी को लेकिन सरकार इससे निपटने को लेकर बिल्कुल गम्भीर नहीं है। कभी मॉस्क लगा लो तो कभी हटा दो। कभी लॉक डाउन तो कभी आंशिक लॉक डाउन। सरकार कुछ भी स्पष्ट नहीं कर पा रही। जनता के हाल बहाल हैं परंतु सरकार मस्त है।
अब देखिए, वियतनाम एक समाजवादी देश है। वहाँ के लोग कोई बहुत समृद्ध नहीं है न ही वहाँ की सरकार हर आपदा से निपटने में सक्षम। लेकिन वहाँ कोरोना से एक मौत नहीं हुई। इसकी वजह है, वहाँ की सरकार की रणनीति। जापान एक पूँजीवादी देश है। हर तरह से विकसित और सुख-संपदा से भरपूर। इस देश में लॉक डाउन नहीं हुआ, और हो भी नहीं सकता क्योंकि वहाँ का संविधान इसकी अनुमति नहीं देता। किंतु जापान की सरकार का कोरोना मैनेजमेंट अन्य सभी विकसित देशों से बेहतर रहा। तब फिर क्या बात है, कि वैक्सीन डिप्लोमेसी में निपुण मोदी जी कोरोना के आगे हाथ बांधे खड़े हैं। कोई कह रहा हनुमान चालीसा बाँचो तो कोई गो-मूत्र सेवन की सलाह दे रहा है। आज कोरोना की स्थिति सबसे ख़राब भारत में है। पिछले चार-पाँच दिनों से भारत में कोरोना संक्रमण की रफ़्तार रोज़ाना एक लाख से ऊपर की है। इसके बाद कहीं भीड़ को बेलगाम छूट तो कहीं हर क्षण जाँच-टीम द्वारा घेर लिए जाने का ख़तरा। पश्चिम बंगाल में कोरोना का भय नहीं दिखता और होली में तो इस बार ब्रज में ऐसी भीड़ जुटी कि सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए। इसके बाद मॉस्क पहनाने को लेकर पुलिस की लूट। रात कर्फ़्यू का ख़तरा। यह कैसा प्रबंधन है?
इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना भयानक महामारी है और विश्वव्यापी है। मगर जहां दुनियाँ भर के देशों में कोरोना को लेकर सरकारों और जनता ने मिल-जुल कर बेहतरीन प्रदर्शन किया है, वहीं भारत में सरकार और जनता परस्पर लुका-छिपी का खेल खेलती रहीं। आपदा में अवसर ढूँढ़ने वाली मोदी सरकार ने क्या किया? जबकि इस बीच पीएम केयर फंड में खूब पैसा आया। डब्लूएचओ ने भी दिया। वह सब पैसा गया कहाँ? न कोई नए सरकारी अस्पताल खुले, न पुराने अस्पतालों में व्यवस्था हुई। सब कुछ वैसा ही चल रहा है जैसा 2019 में था। सिवाय बढ़ते कोरोना मरीज़ों के। ऐसे में इसे सरकारी की लचरपन न कहा जाए, तो क्या कहा जाए? मॉस्क लगाए रहना या सोशल डिस्टैंसिंग कोरोना से निपटने के कोई कारगर उपाय नहीं हैं। क्योंकि कोरोना एक ऐसी आपदा है, जो लोगों को शारीरिक पीड़ा ही नहीं दे रही बल्कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से भी अलग-थलग करती है। कोरोना एक ऐसी महामारी है, जिससे निपटने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य योजना बनायी जानी चाहिए थी। कोरोना की भयावहता का अनुमान जिन देशों की सरकारों ने लगा लिया, वहाँ शुरू में भले केस बढ़े हों लेकिन शनैः-शनैः उन पर क़ाबू पाया गया। यहाँ तक कि अपने देश में भी केरल की सरकार ने इस महामारी से निपटने का सर्वाधिक बेहतर तरीक़ा निकाला था। पिछले वर्ष 25 मार्च से जून तक संपूर्ण लॉक डाउन के चलते जिस तरह के भय-दहशत और पलायन का माहौल दिखा था, तब केरल सरकार ने प्रवासी मज़दूरों को मँझधार में नहीं छोड़ा था। उनके रहने और उनके भोजन की व्यवस्था की गई। मालूम हो कि केरल तटवर्ती राज्य है और वहाँ काम कर रहे प्रवासी मज़दूर यूपी, बिहार, बंगाल और ओडीसा के थे। सभी का खान-पान अलग। इसलिए वहाँ की सरकार ने सरकारी भवनों में सबके रहने की व्यवस्था की तथा सबकी रुचि के अनुकूल राशन दिया, ताकि वे स्वयं अपनी पसंद का खाना पकाएँ।
यहाँ एक बात बात देना आवश्यक समझता हूँ। खान-पान की भिन्नता भी लोगों के लिए मुश्किल बनती है। 1942 में जब बंगाल में अकाल पड़ा, तो पंजाब से हज़ारों टन गेहूं उनके लिए भेजा गया। कहा जाता है कि जितने लोग भूख से मारे, उससे अधिक गेहूं खाकर। क्योंकि गेहूं उनके शरीर के अनुकूल नहीं था। संभवतः इसीलिए केरल की सरकार ने सबको उनकी रुचि का भोजन देने के लिए भंडारा नहीं खुलवाया बल्कि कच्चा राशन बाँट दिया। लॉक डाउन में जब प्रवासी मज़दूरों का पलायन शुरू हुआ था, तब मैंने कुछ दूर तक साथ चल कर देखा था, कि उन मज़दूरों को भंडारे की पूरी-सब्ज़ी में रुचि नहीं थी। ग़ाज़ियाबाद में प्रशासन से उन्होंने आटा, दाल, चावल की माँग की थी जो उन्हें नहीं मिला। ऐसे में कुछ लोगों ने सत्तू पी कर काम चलाया अथवा भुने चने खाकर। इसलिए राशन देना बेहतर विकल्प था। तेलंगाना की सरकार ने तो प्रवासी मज़दूरों को कह दिया था, कि उनके क़रीब जो भी सरकारी भवन हों, वे वहाँ रहें जाकर। परंतु उत्तर भारत की कोई भी सरकार ऐसी व्यवस्था नहीं कर सकी थी। उस समय केंद्र से सिर्फ़ आश्वासन मिलते रहे। ज़मीनी स्तर पर कोरोना से निपटने के कोई ठोस उपाय नहीं किए गए, इसीलिए इस साल मार्च के तीसरे हफ़्ते से कोरोना ने जिस तरह पाँव फैलाया है, उससे निपटने में सरकार के पास आश्वासन भी नहीं बचे हैं। कभी अचानक सारे प्रतिबंध ख़त्म तो कभी शुरू। मॉस्क को लेकर अभी तक यूपी में कोई सरकारी गाइड लाइंस नहीं थी, अब अचानक दो दिन से यह है कि पुलिस वाले किसी को भी बिना मॉस्क लगाए देखकर छीना-झपटी करने लगते हैं अथवा लाठी भांजने लगते हैं। इसी तरह लखनऊ, कानपुर सहित राज्य के कई जिलों में नाइट कर्फ़्यू लागू कर दिया गया है। शादी-विवाह में सौ से ऊपर संख्या होते ही जुर्माना वसूली चालू। मनुष्य समाज से कटकर नहीं रह सकता। उसे घर पर क़ैद कर देना या उसके ऊपर किसी तरह की बंदिश थोपी नहीं जा सकती। न पुलिसिया बल-प्रयोग से आज्ञा मनवाई जा सकती हैं। ब्रिटेन में कोरोना के भारी प्रकोप के बावजूद वहाँ पुलिस किसी तरह का बल-प्रयोग नहीं करती। अमेरिका और कनाडा में तो लोगों ने मॉस्क का भारी विरोध किया। इसलिए वहाँ भीड़-भाड़ वाले स्थलों को छोड़ कर बाक़ी जगह मॉस्क से छूट है। इसके बाद इन सब मुल्कों की सरकारें कोरोना ग्रस्त मरीज़ों का घर जाकर इलाज करवाती हैं। उनके यहाँ कोरोना को लेकर एक जागरूकता है, लेकिन ख़ौफ़ का माहौल नहीं बनाया गया। वहाँ की जनता और सरकार के बीच परस्पर विश्वास का भाव है। इस कारण इन सभी देशों में कोरोना से निपटने के बेहतर प्रयोग हुए। जबकि अपने यहाँ डींगें ज़्यादा हाँकी गईं, धरातल पर कुछ नहीं हुआ। जब अनिल अंबानी के बेटे अनमोल अंबानी और उद्योगपति राजीव बजाज के बेटे ने इस तरह के ट्वीट किए हैं, तो इससे लगता है कि सरकार न सिर्फ़ आम लोगों में बल्कि एलीट क्लास के बीच भी अपनी साख खो रही है। कोरोना जैसी आपदा को अवसर न बनाएँ बल्कि इससे निपटने के उपाय तलाशें। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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