जानिए Supreme Court ने क्यों लिया ये ऐतिहासिक फैसला
न्यायाधीशों की संपत्ति अब होगी सार्वजनिक, जस्टिस यशवंत वर्मा केस ने उठाए थे गंभीर सवाल!
नेशनल डेस्क
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के सभी 33 न्यायाधीशों ने अपनी संपत्तियों को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया है। इस फैसले को न्यायपालिका में पारदर्शिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। अब शीर्ष अदालत के न्यायाधीश अपनी संपत्ति का ब्योरा सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक वेबसाइट पर साझा करेंगे। यह निर्णय 1 अप्रैल को आयोजित फुल कोर्ट बैठक में सर्वसम्मति से लिया गया और यह भविष्य में नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों पर भी लागू होगा। इस निर्णय की पृष्ठभूमि में न्यायपालिका की कार्यप्रणाली को लेकर हाल ही में उठे गंभीर सवालों की अहम भूमिका रही है। विशेष रूप से, दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास पर कथित तौर पर भारी मात्रा में नकदी बरामद होने की खबरों ने न्यायपालिका की साख को गहरा आघात पहुंचाया था। इस प्रकरण के उजागर होने के बाद न्यायिक पारदर्शिता को लेकर जनता का आक्रोश तेजी से बढ़ा, जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वच्छता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए।
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इस घटना ने आम जनता के बीच यह धारणा मजबूत कर दी कि न्यायिक तंत्र भी संभावित भ्रष्टाचार की चपेट में है। न्यायपालिका पर उठते इन सवालों और सार्वजनिक विश्वास में आई गिरावट को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को अपनी छवि सुधारने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता महसूस हुई। जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए न्यायाधीशों की संपत्तियों को सार्वजनिक करने का निर्णय इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास माना जा रहा है। यह कदम दर्शाता है कि शीर्ष अदालत खुद को जवाबदेही के दायरे में लाने के लिए प्रतिबद्ध है और न्यायपालिका की स्वायत्तता एवं निष्पक्षता को पुनर्स्थापित करने की दिशा में सक्रिय रूप से काम कर रही है। इससे पहले, 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने संपत्तियों के विवरण को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया था लेकिन यह न्यायाधीशों की इच्छा पर निर्भर था। 1997 में पारित एक प्रस्ताव के तहत सभी न्यायाधीशों के लिए अपनी संपत्तियों का ब्योरा मुख्य न्यायाधीश को देना अनिवार्य किया गया था लेकिन उसे सार्वजनिक करने की कोई बाध्यता नहीं थी। न्यायाधीश यशवंत वर्मा प्रकरण के बाद बढ़ती आलोचनाओं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को आखिरकार यह कड़ा कदम उठाना पड़ा।
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इसी बीच, सुप्रीम कोर्ट में पारिवारिक प्रभाव को लेकर द प्रिंट की एक जांच रिपोर्ट ने नए सवाल खड़े कर दिए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, शीर्ष अदालत के मौजूदा 33 न्यायाधीशों में से 30 प्रतिशत ऐसे हैं, जो पूर्व न्यायाधीशों के परिवार से आते हैं जबकि अन्य 30 प्रतिशत के माता-पिता या दादा-दादी वकील थे। इस खुलासे के बाद न्यायिक नियुक्तियों की निष्पक्षता पर बहस तेज हो गई है। पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एम. बी. लोकुर ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि किसी भी पेशे में पारिवारिक विरासत का प्रभाव देखा जा सकता है, चाहे वह राजनीति हो, चिकित्सा क्षेत्र हो, प्रशासनिक सेवाएं हों या फिल्म उद्योग। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इससे कुछ व्यक्तियों को शुरुआती बढ़त जरूर मिलती है लेकिन उन पर सफलता बनाए रखने का भी दबाव रहता है। वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने इसे ‘विशेषाधिकार का विशेषाधिकार को जन्म देना’ करार देते हुए कहा कि न्यायिक सेवा एक सार्वजनिक सेवा है, न कि पारिवारिक व्यवसाय। उन्होंने इस प्रवृत्ति को अनुचित बताया।
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वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे का कहना है कि यह एक पुरानी समस्या है लेकिन इसका कोई स्पष्ट समाधान नजर नहीं आता। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को व्यापक और निष्पक्ष बनाया जाना चाहिए ताकि अन्य प्रतिभाशाली वकीलों को भी मौका मिल सके। दवे ने कोलेजियम प्रणाली को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा कि इसमें व्यक्तिगत पसंद-नापसंद, अहंकार और पक्षपात का प्रभाव देखा जाता है। उन्होंने सुझाव दिया कि इस व्यवस्था को एक अधिक पारदर्शी और प्रभावी प्रणाली से बदलना चाहिए जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे और न्यायिक नियुक्तियों में निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की संपत्तियों को सार्वजनिक करने का निर्णय पारदर्शिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है लेकिन न्यायिक नियुक्तियों में परिवारवाद और सीमित दायरे की बहस को यह पूरी तरह समाप्त कर पाएगा या नहीं, यह देखना अभी बाकी है। न्यायपालिका में सुधार और पारदर्शिता की मांग लगातार उठती रही है लेकिन सवाल यह है कि क्या यह कदम इन चुनौतियों का समाधान कर पाएगा या सिर्फ एक प्रतीकात्मक प्रयास बनकर रह जाएगा?
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