Saturday, June 14, 2025
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नेहरू के निधन पर पाक ने क्यों झुकाया था आधा झंडा?

चीन का युद्ध हारने के बाद पंडित नेहरू रहने लगे थे ज्यादा गुमशुम

नालेज डेस्क

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिनका व्यक्तित्व मजबूत इच्छाशक्ति, सक्रिय जीवनशैली और सियासी परिपक्वता का प्रतीक था, 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद पूरी तरह टूट गए थे। वह पहले जैसे ऊर्जावान नहीं रहे। जो नेता कभी अपने विचारों और भाषणों से देश को प्रेरित करते थे, वे युद्ध के बाद खामोश और भीतर से थके हुए दिखने लगे। अंततः 27 मई 1964 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया, लेकिन कई करीबी मानते हैं कि असल में उनका अंत 1962 में ही शुरू हो गया था।

नेहरू की फिटनेस और सक्रियता की मिसाल
पंडित नेहरू का जीवन शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद सक्रिय रहा। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी के साथ कई पदयात्राएं कीं, जेल यात्राएं कीं और राष्ट्रनिर्माण की नींव रखी। देश को ‘आधुनिक मंदिर’ यानी वैज्ञानिक संस्थानों, आईआईटी और एआईआईएमएस और पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए विकास की राह पर आगे बढ़ाने वाले नेहरू का व्यक्तित्व समर्पित और कर्मशील नेता का रहा है। वह योग और नियमित टहलने के लिए भी जाने जाते थे। भले ही उम्र बढ़ रही थी, लेकिन 70 की उम्र में भी वह राष्ट्र को लेकर बेहद सजग और सक्रिय थे। लेकिन 1962 के युद्ध ने उन्हें भीतर तक हिला दिया।

1962 का युद्धः भरोसे का अंत
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद वर्षों से चला आ रहा था। चीन द्वारा अक्साई चिन क्षेत्र में सड़क निर्माण करना, लद्दाख और अरुणाचल में घुसपैठ की घटनाएं और तिब्बत पर कब्जा कृ इन सभी घटनाओं के बावजूद पंडित नेहरू ने चीन से भाईचारे की नीति अपनाई। ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा पूरे देश में गूंजता रहा, लेकिन चीन इस नारे के पीछे सामरिक योजनाएं बना रहा था। 1954 में पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर कर भारत ने तिब्बत पर चीन के नियंत्रण को मान्यता दी। लेकिन इसका जवाब चीन ने युद्ध से दिया। अक्टूबर 1962 में जब हमला हुआ तो भारत तैयार नहीं था। भारतीय सेना ने साहसपूर्वक मुकाबला किया लेकिन संसाधनों और रणनीतिक नेतृत्व की कमी के कारण हार हुई।

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युद्ध के घाव और आत्मग्लानि
युद्ध के बाद नेहरू बेहद आहत थे। इस घटना ने न केवल उनकी विदेश नीति की आलोचना को जन्म दिया, बल्कि उनके नेतृत्व पर भी सवाल उठने लगे। करीबियों के अनुसार, उन्होंने खुद को जिम्मेदार मानते हुए एक बार इस्तीफा देने की पेशकश की थी, लेकिन मंत्रिमंडल ने इसे अस्वीकार कर दिया। नेहरू के स्वभाव में भारी परिवर्तन देखा गया। वह सार्वजनिक कार्यक्रमों से दूरी बनाने लगे। संसद में भाषण देते हुए उनकी आवाज पहले जैसी दृढ़ नहीं रहती थी। देशभर में उनकी नीतियों की आलोचना हो रही थी और कई मोर्चों पर वह अकेले पड़ते जा रहे थे।

स्वास्थ्य में गिरावट और अंतिम दिन
नेहरू की मानसिक अवस्था का प्रभाव उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगा। वह पहले जैसे ऊर्जावान नहीं रहे। जनवरी 1964 में उन्हें पहला हल्का हार्ट अटैक आया, लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। डॉक्टरों ने आराम करने की सलाह दी, लेकिन नेहरू देश की सेवा में लगे रहे। 26 मई 1964 को वह देहरादून से लौटे थे। उस दिन वह बेहद थके हुए थे और जल्दी सोने चले गए। लेकिन रात भर उन्हें नींद नहीं आई। सुबह होते-होते उन्हें पैरालिटिक अटैक आया और दोपहर लगभग दो बजे उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।

पाकिस्तान तक ने जताया दुख
नेहरू की मृत्यु की खबर दुनिया भर में फैल गई। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस सहित दर्जनों देशों के नेताओं ने श्रद्धांजलि दी। लेकिन सबसे चौंकाने वाली प्रतिक्रिया पाकिस्तान की थी। पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में शोक प्रस्ताव पारित किया गया और झंडा आधा झुका दिया गया। यह उनके प्रोटोकॉल से परे था, पर पंडित नेहरू के सम्मान में किया गया। इसके पीछे कई राजनयिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत कारण थेः

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नेहरू के प्रति व्यक्तिगत सम्मान
नेहरू ने हमेशा पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने की कोशिश की। विभाजन के बाद उपजे तनाव के बावजूद उन्होंने युद्ध को अंतिम विकल्प मानते हुए संयम की नीति अपनाई। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब ख़ान ने भी कई बार सार्वजनिक रूप से नेहरू के व्यक्तित्व की प्रशंसा की थी। नेहरू ने दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता को प्राथमिकता दी। पाकिस्तान भले ही राजनीतिक रूप से भारत से टकराव की स्थिति में रहा हो, लेकिन यह स्वीकार किया जाता था कि नेहरू जैसे नेता के जाने से क्षेत्र में अस्थिरता और अनिश्चितता बढ़ सकती है। इस स्थिति पर दुख जताना पाकिस्तान की कूटनीतिक रणनीति भी थी।

अंतरराष्ट्रीय दबाव और छवि निर्माण
उस समय पाकिस्तान भी संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक मंचों पर अपनी छवि को एक जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करना चाहता था। नेहरू के निधन पर संवेदना जताकर और झंडा झुकाकर उसने यह दिखाया कि वह मानवता और राजनयिक शिष्टाचार का पालन करता है। झंडा झुकाना, एक श्रद्धांजलि का प्रतीकात्मक हिस्सा था। यह अपवादस्वरूप फैसला था, जो किसी शत्रु देश के नेता के लिए सामान्यतः नहीं होता।

नेहरू की विरासत की स्वीकार्यता
हालांकि भारत-पाक संबंध बेहद तनावपूर्ण रहे, लेकिन पंडित नेहरू की वैश्विक और ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता था। वह केवल भारत के नेता नहीं थे, बल्कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन और आंतरिक लोकतंत्र के वैश्विक प्रतीक बन चुके थे। इसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के कारण पाकिस्तान ने भी उन्हें वह सम्मान दिया, जो किसी विशिष्ट नेता को ही मिलता है।

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नेहरू की विरासत और युद्ध की टीस
नेहरू की आलोचना करने वालों की भी एक बात पर सहमति है-उन्होंने जो किया, राष्ट्र के लिए किया। उन्होंने अपनी नीतियों को मानवतावादी और विश्वास आधारित रखा, लेकिन चीन ने इस भरोसे का सबसे क्रूर तरीके से जवाब दिया। युद्ध भले ही सीमाओं पर लड़ा गया, लेकिन यह नेहरू के आत्मबल पर भी भारी पड़ा। उनकी मृत्यु केवल एक हार्ट अटैक से नहीं हुई, बल्कि एक राष्ट्र निर्माता के टूटने की त्रासदी थी कृ एक ऐसा नेता जिसने देश को खड़ा किया, लेकिन अंत में देश के विश्वास के टूटने से खुद बिखर गया।

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