Saturday, June 14, 2025
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बकरीद (ईद-उल-अजहा): पशु बलि पर पुनर्विचार

रघोत्तम शुक्ल 

मुसलमानों के दो बड़े त्योहारों में से एक बकरीद (ईद-उल-अजहा) या कुर्बानी है। इस अवसर पर विश्व-भर में बड़े पैमाने पर पशु-बलि -ख़ासकर बकरों की- जाती है। इस प्रथा की जड़ें पैग़म्बर इब्राहीम के उस स्वप्न में हैं जिसमें अल्लाह ने उनसे अपने पुत्र इस्माइल की कुर्बानी देने को कहा। जब वे आदेश का पालन करने ही वाले थे, अल्लाह ने एक मेढ़ा भेजकर संकेत दिया कि परीक्षा सफल रही। अब पशु-बलि से ही रस्म पूरी हो सकती है। तभी से यह परंपरा किसी न किसी रूप में जारी है और व्यापक जीव-संहार होता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  1. पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद साहब मक्का प्रवास के दौरान काफ़ी समय तक कुर्बानी-पद्धति से दूर रहे। वहाँ की कुर्बानियों में वे शामिल नहीं होते थे- यानी मन में हिचक थी। बाद में क़ौम की एकता बनाए रखने के लिए उन्होंने भाग लेना स्वीकार किया और क़ुरान-ए-पाक की सूरा क़ौसर तथा सूरा हज में इससे जुड़े निर्देश नाज़िल हुए। क़ुरान की सूरा माइद, आयत 95 में उल्लेख है कि एहराम पहन लेने के बाद शिकार मत करो। एहराम वही खास परिधान है जो हज यात्रा में पहना जाता है। इसका तात्पर्य है कि इबादत के दौरान हत्या वर्जित है, यानी किसी स्तर पर पाप अवश्य लगता है।

समकालीन प्रश्न

यदि पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने प्रथम चरण में संकोच दर्शाया और क़ुरान स्वयं एहराम की अवस्था में हिंसा से रोकता है, तो मौजूदा दौर में मुस्लिम उलेमा को इस पद्धति में सुधार पर गंभीर विचार करना चाहिए। वास्तविक पशु के बजाय किसी अन्य पदार्थ (जैसे मिट्टी, तिल या आटे) से बने प्रतीक पशु की कुर्बानी करके रस्म पूरी की जा सकती है; इससे धार्मिक भावना भी सुरक्षित रहेगी और जीव-हिंसा भी रुकेगी।

अंतर-धर्मीय मिसाल

हिंदू समाज में भी प्राचीन यज्ञों में पशु-बलि प्रचलित थी, जिसे गौतम बुद्ध ने रोकने का प्रयास किया। आज सकट चौथ नामक पर्व पर महिलाएँ तिल का बकरा बनाकर प्रतीकात्मक बलि देती हैं और परंपरा पूरी हो जाती है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ धार्मिक आचार-विचार में सुधार और सामाजिक समायोजन होते रहते हैं; यही स्वस्थ समाज का संकेत है।

आगे की राह

धर्म के प्रति सम्मान बनाए रखते हुए समयानुकूल परिवर्तन भी ज़रूरी हैं। प्रतीकात्मक कुर्बानी की ओर कदम बढ़ाकर हिंसा रोकी जा सकती है और उत्सव की आध्यात्मिक मूल भावना अक्षुण्ण रह सकती है। मुस्लिम समुदाय के विद्वानों को इस दिशा में संवाद शुरू करना चाहिए, ताकि करुणा, पर्यावरण संरक्षण और आध्यात्मिकता- तीनों का संतुलन संभव हो।

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रघोत्तम शुक्ल 


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