डा. जगन्नाथ दुबे
उत्तर भारत की एक मात्र शास्त्रीय नृत्य शैली कथक और उसके पर्याय बन चुके पंडित बिरजू महाराज (बृजमोहन मिश्र) अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके न होने से उत्तर भारत के नृत्य और संगीत में जो खालीपन आया है, उसे किसी और के द्वारा भर पाना संभव नहीं होगा। उनके जाने से किसी मुहावरे में नहीं, सचमुच में एक युग का अंत हो गया है। घरानेदारी के लिहाज से देखें तो वे लखनऊ घराने के नर्तक थे लेकिन वे अपने आप में खुद किसी घराने से कम नहीं थे। कथक का लखनऊ घराना पंडित बिंदादीन महाराज से शुरू होता है जो अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय में अपने उत्कर्ष पर दिखाई देता है। कथक जैसी पारंपरिक नृत्य शैली में पं. बिरजू महाराज अपने नवीन प्रयोग के लिए ज्यादा जाने जाते हैं।
इन प्रयोगों की वजह से अनेक बार पारंपरिक किस्म के कथक नर्तकों, शिक्षकों और गुरुओं द्वारा समय-समय पर आलोचनाएँ भी सुननी और सहनी पड़ीं। पंडित बिरजू महाराज अपने प्रयोगधर्मी नृत्य के माध्यम से लगातार कथक के लिए आधुनिक और नवीन शिल्प गढ़ रहे थे। नई लय और नया ताल खोज रहे थे। आठ वर्ष की उम्र में घुँघरू पहनकर तबले की थाप पर तिहाईयों के बोल को नृत्य में ढालने की जो यात्रा शुरू हुई वह अंत-अंत तक नयेपन के आग्रह के साथ जारी थी। लखनऊ घराने के नायाब नर्तक पंडित लच्छू महाराज की संतान ने अभी ठीक से घुँघरू पर थाप देना भी नहीं सीखा था कि सर पर से पिता का साया उठ गया, लखनऊ घराना उजड़ गया। नए-नए आज़ाद हुए देश में पंडित बिरजू महाराज को जीविका की तलाश में दर-दर भटकने पर मजबूर होने तक की नौबत आ गयी लेकिन इसी बीच निर्मला जोशी जैसी कला पारखी की नजर पंडित बिरजू महाराज पर पड़ी और वे उन्हें दिल्ली ले आईं। यहाँ से पंडित जी की एक नई यात्रा शुरू हुई। इस यात्रा में उन्हें सहयोगी और सहधर्मी के रूप में कला के दुनिया की अनेक नामचीन हस्तियाँ मिलीं, जिनके साथ उन्हें कथक और खुद को सँवारने का बेहतर अवसर मिला।
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कथक को समान्यतः एक बेहद पारंपरिक किस्म का नृत्य माना जाता है जिसके केंद्र में अध्यात्मिकता है। एक नृत्य के रूप में कथक की विकास यात्रा को देखें तो पाएंगे कि इसकी शुरुआत मंदिरों से हुई जहां यह भक्त द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए एक माध्यम की तरह था। आगे चलकर यह नृत्य रूप मंदिर से राज घरानों में आया जहां इसका जुड़ाव रास आदि विशुद्ध शृंगारिक शैलियों से हो गया। लखनऊ घराना वाजिद अली शाह के समय में कथक का केंद्र बना जिसके दरबार की शोभा पंडित बिरजू महाराज के पूर्वजों से बढ़ती थी। पंडित बिरजू महाराज ने मंदिर और दरबार तक महदूद रहने वाले कथक को जन-जन के नृत्य के रूप में स्थापित करने का बीड़ा उठाया।
उन्होने पारंपरिक तौर पर होने वाले कथक से हटकर ऐसी तिहाइयों और बोलों की रचना की जिनका सीधा संबंध हमारे दैनंदिन जीवन से है। ऐसा वे कैसे कर सके इसके पीछे की वजह है उनका हरेक वस्तु,व्यक्ति और स्थान में लय और नृत्य देखना। लय और नृत्य के बारे में बताते हुये एक जगह वे कहते हैं ‘ज़िंदगी तो नाच ही है, नृत्य है, उसमें गति है, लय है, भाव है। हर इंसान नाच रहा है। जिज्ञासा अंदर नाच रही है। बुद्धि से कलम कागज पर नाच रही है, फोटोग्राफर की उँगलियाँ नाच रही हैं।’ यही नहीं लय के बारे में उनका मानना है ‘नृत्य ही नहीं हमारी हर गतिविधि में लय होती है। घसियारा तक जब घास काटता है, घास को हाथ से पकड़कर उस पर हंसिया मारता है, फिर घास हटाता है। मारने और हटाने की इस लय में जरा सी गड़बड़ी हुई कि उसका हाथ गया। लय हर काम में, नृत्य में, जीवन में संतुलन बनाए रखती है।’
कहने का मतलब यह कि पंडित बिरजू महाराज की नृत्य साधना के इस आध्यात्मिक ऊंचाई तक पहुँचने के पीछे उनका समस्त सृष्टि में लय और नृत्य का देखना है। जिस साधक को सृष्टि का हर क्षण और हर कर्म लय और नृत्य में दिखता हो उसके लिए किसी खास दायरे में बंधकर रह पाना संभव ही नहीं है। बिरजू महाराज भी किसी दायरे में बंधकर नहीं रहे। उन्होने चिड़ियाँ की चाल को, आफिस-आफिस भटकने वाली फाइल को आधार बनाकर तिहाइयाँ कीं। सूरदास, तुलसीदास, कबीर आदि भक्त कवियों से लेकर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जयशंकर प्रसाद से होते हुये नरेश मेहता, धूमिल आदि आधुनिक कवियों की कविताओं तक को कथक के भीतर समाहित किया। संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों से लेकर आधुनिक युग के नवीन से नवीन ग्रन्थों तक को अपने प्रयोग का हिस्सा बनाया।
बिरजू महाराज यह सब करते हुये एक नए भारत को अपने भीतर और बाहर समाज में लगातार खोज रहे थे। यह खोज कुछ उसी तरह की खोज थी, जिस तरह अपने समय में निराला और प्रेमचंद एक नए भारत की खोज कर रहे थे। जिस तरह पंडित जवाहर लाल नेहरू एक नए भारत को खोज रहे थे। आइडिया आफ इंडिया की तलाश कर रहे थे उसी तरह कथक करते हुये पंडित जी एक नए भारत की खोज कर रहे थे। एक ऐसा भारत जो नया नया लोकतन्त्र बना था। जिसके सामने अनेक समस्याएँ और चुनौतियाँ थीं तो बहुत कुछ उम्मीद बंधाने वाला और आगे बढ्ने का सहारा देने वाला भी था। उस भारत के पास जवाहर लाल नेहरू जैसा व्यक्तित्व था जो संगीत नाटक अकादमी बना रहा था। ध्यान रखने की जरूरत है कि यह वही संगीत नाटक अकादमी है जो बिरजू महाराज जैसे न जाने कितने कलाकारों का पनाहगाह तब बनी जब उनके पास कोई ठिकाना नहीं था।
पंडित बिरजू महाराज के पास अपने परिवार की थाती के रूप में जो मिला, वह तो था ही, उसके अतिरिक्त उन्हें बृजमोहन मिश्र से पंडित बिरजू महाराज बनाने में जिसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वे हैं उनके साथ काम करने और रहने वाले वे अनेक लोग जो अलग-अलग विधाओं के सिद्ध पुरुष और कलावंत थे।
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केशव कोठारी ने लिखा है ‘बिरजू महाराज और उनकी उपलब्धियों की चर्चा करते हुये कोई भी व्यक्ति इस तथ्य को नहीं भूल सकता कि बिरजू महाराज समग्र पर्यावरण का एक हिस्सा और उत्पाद हैं। इस पर्यावरण में न केवल उनके पूर्वज परंतु उनके वे अनेक समकालीन, वरिष्ठ और कनिष्ठ साथी भी शामिल हैं जो उनके अपने विकास और समग्र रूप में कथक के विकास के लिए कार्य कर रहे हैं तथा योगदान कर रहे हैं।’ कोई भी कलाकार कलावंत तब तक नहीं बन सकता जब तक कि उसके साथ काम करने वाले बड़े या ऊंचे दर्जे के न हों। बिरजू महाराज का रिश्ता जिन कलाकारों से रहा वे निश्चित ही ऊंचे दर्जे के कलावंत रहे हैं। अभी पिछले दिनों (14-15 नवंबर 2021) रजा फाउंडेशन ने कला की विभिन विधाओं के मूर्धन्य सात कलाकारों पर दो दिवसीय आयोजन किया था जिसमें एक व्यक्तित्व बिरजू महाराज भी थे।
इन पंक्तियों का लेखक भी उस आयोजन का हिस्सा था। सुखद यह था कि जिन साथ कलावंतों पर वह आयोजन था, उसमें अकेले पंडित बिरजू महाराज ही थे जो जीवित थे। वे आयोजन में आए। तबीयत तब भी पूरी तरह ठीक नहीं थी, बावजूद इसके लगभग दो घंटे तक चले सत्र में पूरे मनोयोग से बैठे सुनते रहे। उस दिन मिलकर बात करते क्या मालूम कि यह पंडित जी से आमने-सामने की पहली और आखिरी मुलाक़ात है। उन्हें नृत्य करते हुये, नृत्य सिखाते हुये, नृत्य पर बात करते हुये लंबे समय से हम सब ने देखा है। वे जिस तल्लीनता से नृत्य को जीते थे, वह सचमुच किसी ईश्वरीय वरदान सरीखे लगते थे। संकट मोचन के संगीत समारोह में वे अक्सर आते रहते थे।
उन्हें नृत्य करते हुये देखना नृत्य को साक्षात देखने जैसा था। अब जबकि वे नहीं हैं सिर्फ उनकी यादें हैं, तब आने वाली पीढ़ियों को हम उनकी यही यादें बता सकेंगे। इस मामले में हम सौभाग्यशाली पीढ़ी के लोग हैं कि हमने पंडित बिरजू महाराज को देखा है। फिराक साहब का एक मशहूर शे’र थोड़े से बदलाव के साथ दर्ज करना चाहता हूँ। आने वाली नस्लें तुम से रश्क करेंगी वो हम अश्रो। उनको जब मालूम ये होगा तुमने बिरजू महाराज को देखा था।’
(लेखक हिन्दी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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कलमकारों से अनुरोध..
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