1965 की वह जीत जो …….

लाल बहादुर शास्त्री (11 जनवरी) पुण्य तिथि पर विशेष

राज खन्ना

प्रधानमंत्री का पद संभालने के सिर्फ सात महीने के भीतर लाल बहादुर शास्त्री के सामने घरेलू मोर्चे के साथ ही सीमाओं की रक्षा की दोहरी चुनौती थी। कच्छ के रण में पाकिस्तान ने मोर्चा खोल दिया। फरवरी 1965 में गुजरात पुलिस के गश्ती दस्ते ने सीमा के 2.4 कि.मी. भीतर 32 किलो मीटर लम्बी एक पगडंडी देखी। पाकिस्तान ने इसे भारी वाहनों के लिए बनाया था। उसका एयरपोर्ट भी पास था। सामरिक दृष्टि से वह बेहतर स्थिति में था। अमेरिका उसे मदद कर रहा था। सोवियत संघ भी पाकिस्तान से संबंध सुधारने की राह पर था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने उन्हें तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के लिए राजी कर लिया। यह भारी रियायत थी। पर युद्ध टालने की शर्त थी। बाद में 18 फरवरी 1968 के फैसले में कच्छ के रण पर भारत के पूर्ण अधिकार को नही माना गया। कुल 3500 वर्ग मील के क्षेत्र में 300 वर्ग मील इलाका पाकिस्तान के हिस्से में गया। पर शांति की यह कोशिश निरर्थक थी। कश्मीर के मोर्चे पर पाकिस्तानी गोलीबारी बढ़ती गई। बड़े पैमाने पर पाक सेना से प्रशिक्षित घुसपैठियों के जरिये कश्मीर में बगावत का स्वांग रचा जा रहा था। कूटनीतिक मोर्चे पर भारत के ऐतराज बेअसर थे। भारत के लिए सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन का 4 सितम्बर 1965 का पत्र बड़ा झटका था। कोसिगिन ने लिखा,“ यह समय सही-गलत का फैसला करने का नही है। यह समय सैनिक कार्यवाई को फौरन खत्म करने, टैंकों को रोकने और तोपों को खामोश करने का है।“ अमेरिका का पाकिस्तान की ओर झुकाव। चीन के खतरे और सोवियत संघ की बेरुखी के बीच भारत को अपनी धरती और सम्मान दोनो की रक्षा करनी थी।
पाकिस्तान ने एक सितम्बर को कश्मीर के अखनूर-जम्मू सेक्टर में युद्ध विराम सीमा का उल्लंघन करके हमला बोल दिया था। 3 सितम्बर को शास्त्रीजी ने पंजाब में अंतर्राष्ट्रीय सीमा लांघकर पाकिस्तान कूच करने का आदेश दे दिया। उन्होंने जनरल जे एन चौधरी से कहा कि इससे पहले कि वे कश्मीर पहुंचे ,मैं लाहौर पहुँच जाना चाहता हूँ। सच तो यह है कि चीन के हाथों पराजय के सबक से भारत काफी सीखा था। कच्छ के रण में पाकिस्तान की सैन्य गतिविधियों के बाद से ही भारत की सेना युद्ध के लिए तैयार थी। कश्मीर के मोर्चे पर दबाव कम करने के लिए अमृतसर,फिरोजपुर और गुरुदासपुर से तीन तरफा हमला किया गया। दो दिन बाद ही स्यालकोट का भी मोर्चा खोल दिया गया। 23 सितम्बर 1965 को भारत-पाकिस्तान ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। शास्त्री जी को आगे बढ़ती भारतीय सेना के फिरोजपुर सेक्टर के जवानों को राजी करने के लिए मशक्कत करनी पड़ी थी। उन्हें अंतरराष्ट्रीय और खासकर अमेरिका के दबाव की जानकारी दी गई थी। इस युद्ध में भारत पाकिस्तान के 470 वर्ग मील और पाक अधिकृत कश्मीर के 270 वर्गमील इलाके को कब्जे में लेने में सफल हुआ था। पाकिस्तान के कब्जे में भारत का 210 वर्गमील इलाका गया था। थल सेनाध्यक्ष जनरल जे एन चौधरी से सवाल हुआ था कि भारतीय सेनाओं की बढ़त धीमी क्यों थी? जनरल का जबाब था कि हम इलाके पर कब्जे के लिए नही, पाकिस्तान के हथियार भण्डार नष्ट करने के लिए लड़ रहे थे। वायु सेनाध्यक्ष एयर मार्शल अर्जुन सिंह ने भी इसकी पुष्टि की थी। पश्चिमी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हर बक्श सिंह के मुताबिक लाहौर पर कब्जा सैन्य लक्ष्य में शामिल नही था। लाहौर एक बोझ होता। युद्ध हम पर थोपा गया। हम दुश्मन को सबक सिखाने में पूरी तरह सफल रहे। इस जीत के साथ शास्त्री जी का कद बहुत बड़ा हो गया। उनकी जयकार देश के हर हिस्से और हर जुबान पर थी। उनकी पुकार पर देश एकजुट था। राष्ट्रीय संकट की घड़ी में सारे मतभेद और कमियां दर किनार थीं। खाद्यान्न संकट और अमेरिका की सहायता शर्तों के बीच उन्होंने कहा बेइज्जती की रोटी से इज्जत की मौत भली। थाली में सब्जी है तो दाल छोड़ो। हफ्ते में एक शाम उपवास करो। लोग उससे आगे के लिए तैयार थे। सिर्फ तैयार नही। आबादी के बड़े हिस्से में ऐसा करके दिखाया। क्यों ? लोगों को पता था कि गरीबी में पला-बढ़ा उनका नायक उस जिंदगी को सिर्फ जी नही चुका। सबसे बड़ी कुर्सी पर रहकर भी जी रहा है। उसकी वाणी-आचरण एक है। उनका जय जवान जय किसान नारा घर-घर गूंजा। अमीर-गरीब सब सेवा-सहयोग के लिए तन-मन-धन साथ जुटे। कांग्रेस के लिए त्याज्य आर एस एस को युद्ध के समय उन्होंने दिल्ली की ट्रैफिक नियन्त्रण व्यवस्था सौंप दी। कामराज योजना में मंत्रिपद छोड़ने के बाद शास्त्री जी के भोजन की थाली एक सब्जी में सीमित हो गई थी। उन्होंने अपनी मनपसंद आलू की सब्जी खानी छोड़ दी थी, क्योंकि उन दिनों आलू महंगे हो गए थे। दम्भी, बड़बोले और दौलत बटोरने में लगे नेताओं की भीड़ में शास्त्री जी की विनम्रता-कर्मठता-ईमानदारी खुशबू के झोंके जैसी थी। रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जूझती-पिसती आबादी आगे के सफर के लिए उसे साँसों में भर लेना चाहती थी।
कुछ शेष था। बात-चीत की शक्ल में। जिसके लिए तैयार होने का जबरदस्त दबाव था। 20 सितम्बर 1965 को सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया। भारत-पाकिस्तान दोनो की सेनाएं 5 अगस्त 1965 के पहले की स्थिति में वापस जाएं की हिदायत साथ। अमेरिका और सोवियत संघ दोनो इस प्रस्ताव को लागू करने पर आमादा थे। ताशकंद वार्ता उसी का हिस्सा थी। कोसिगिन 10 जनवरी 1966 को दोनो देशों से ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर कराने में सफल हो गए। सार था,“ भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति के बीच यह सहमति हुई है कि दोनों देशों के सभी आदमियों को 25 फरवरी 1966 के पहले, 5अगस्त 1965 से पहले की जगहों पर हटा लिया जाएगा और दोनो देश युद्ध विराम रेखा पर युद्ध विराम की शर्तों का पालन करेंगे।“ समझौते पर देश की प्रतिक्रिया को लेकर शास्त्री जी चिंतित थे। रात के ग्यारह बजे सबसे पहले शास्त्री जी की अपने दामाद से बात हुई। फिर फोन पर उनकी बेटी कुसुम थी। पूछा कैसा लगा? बेटी का जबाब था हमे तो अच्छा नही लगा। अम्मा (पत्नी ललिता शास्त्री) को कैसा लगा? उन्हें भी अच्छा नही लगा। शास्त्री जी ने कहा उनसे बात कराओ। जीवन के हर मोड़ पर साथ निभाने वाली पत्नी ललिता, उस दिन बात करने को तैयार नही हुईं। बेटी ने कहा वह बात नही करना चाहतीं। उदास शास्त्री जी ने कहा कि अगर घर वालों को अच्छा नही लगा तो बाहर वाले क्या कहेंगे?“ उस रात 1.20 शास्त्री जी, सेवक जगन्नाथ के कमरे के दरवाजे तक पहुंचे। बड़ी मुश्किल से डॉक्टर के लिए पूछ सके।। जगन्नाथ और सहयोगियों ने बिस्तर तक पहुंचाया। फौरन ही डॉक्टर चुग भी पहुंच गए। पर तब तक देर हो चुकी थी। बाहं और सीधे दिल मे लगे इजेक्शन और मुहँ से कृत्रिम सांस देने की कोशिशें बेअसर रहीं। तिरंगा जिसे लहराने के लिए वह आजादी की लड़ाई लड़े। आजादी बाद जिसकी शान-बान जोश भरती थी। वह तिरंगा उनकी निस्तेज देह पर फैला दिया गया। ताशकंद की सड़कों के दोनों किनारे दो दिनों पहले स्वागत में चहक रहे थे। आज उदासी से बोझिल थे। ’’’’’’ और भारत! वहां आंखों में सिर्फ आंसू थे। आंसू बात-चीत की मेज पर जीता युद्ध हारने के! आंसू अपने लाडले नायक को खोने के।

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