सहज उल्लास और समरसता का उत्सव है होली

गिरीश्वर मिश्र

प्रकृति के सौंदर्य और शक्ति के साथ अपने हृदय की अनुभूति को बांटना वसंत ऋतु का तकाजा है। मनुष्य भी चूंकि उसी प्रकृति की एक विशिष्ट कृति है इस कारण वह इस उल्लास से अछूता नहीं रह पाता। माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को वसंत की आहट मिलती है। परंपरा में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है इसलिए उसके जन्म के साथ इच्छाओं और कामनाओं का संसार खिल उठता है। फागुन और चैत्र के महीने मिल कर वसंत ऋतु बनाते हैं। वसंत का वैभव पीली सरसों, नीले तीसी के फूल, आम में मंजरी के साथ, कोयल की कूक प्रकृति सुंदर चित्र की तरह सज उठती है। फागुन की बयार के साथ मन मचलने लगता है और उसका उत्कर्ष होली के उत्सव में प्रतिफलित होता है। होली का पर्व वस्तुतः जल, वायु, और वनस्पति से सजी संवरी नैसर्गिक प्रकृति के स्वभाव में उल्लास का आयोजन है।

रंगोत्सव या होली का पर्व हर्ष और उल्लास के साथ आबालबृद्ध सबको अनूठे ढंग से जीवंत और स्पंदित कर उठता है। पूर्णिमा तिथि की रात को होलिका दहन से जो शुरुआत होती है वह सुबह रंगों के एक अनोखे त्योहार का रूप ले लेती है जिसमें ‘मैं’ और ‘तुम’ का भेद मिटा कर नकली दायरों को तोड़कर, झूठ-मूठ के ओढ़े लबादों को उतार कर सभी ‘हम’ बन जाते है। यह उत्सव आमंत्रण होता है उस क्षण का जब हम अहंकार का टूटना देखते हैं और उदार मन वाला हो कर, अपने को खो कर पूर्ण का अंश बनने के साक्षी बनते हैं। रंग, गुलाल और अबीर से एक दूसरे को सराबोर करते लोग अपनी अलग-अलग पहचान से मुक्त हो कर एक दूसरे छकाने और हास-परिहास का पात्र बनाने की छूट ले लेते हैं।

वस्तुतः सुख की चाह और दुःख से दूरी बनाए रखना सभी जीवित प्राणियों का सहज स्वाभाविक व्यवहार है। इसलिए पशु मनुष्य सब में दिखता है । मोटे तौर पर सुख दुःख का यह सूत्र जीवन के सम्भव होने की शर्त की तरह काम करता है। पर इसके आगे की कहानी हम सब खुद रचते हैं। आहार, निद्रा, भय और मैथुन भी संस्कृति से प्रभावित होते हैं और बहुत सारी व्यवस्था धन, दौलत, पद, प्रतिष्ठा, आदर, सम्मान, प्रेम, दया, दान आदि के इर्द-गिर्द आयोजित होती है। आज की दुनिया में हर कोई कुंठा और तनाव से जूझ रहा है। दबाव बढ़ता जा रहा है। सभी अपनी स्थिति से असंतुष्ट हैं, कुछ जितना है उसकी कमी से तो कुछ जो नहीं है उसे पाने की चिंता से।

भारतीय मानस ने श्रीकृष्ण का एक चरित ऐसा गढ़ा है जो संक्रमण और युग-संधि की वेला में उपस्थित होता है और धर्म की स्थापना के वादे के अनुसार निरंतर सक्रिय रहता है। उनकी पूरी जीवन की कथा तमाम विलक्षणताओं और जटिलताओं के साथ नित्य नई-नई उलझनों के बीच जीना सम्भव कर दिखाती है। यह निश्चय ही किसी सामान्य जीव के बस का नहीं है। और तो और उनकी पहचान भी स्थिर नहीं है। गीता का उपदेश उन्हीं पर पूरी तरह से घटित होता है। वह सबका अतिक्रमण करते हैं और असम्पृक्त हो कर जीना सिखाते हैं। कुछ कहना तो सरल है पर उसे करना कठिन है। कृष्ण हैं कि वह सब कुछ कर के दिखाते हैं। जीवन की गतिशीलता क्या होती है और जीवन के कुरुक्षेत्र का संग्राम किस तरह लड़ा जाता है यह श्रीकृष्ण से ही सीखा जा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण एक तरफ अगर वंशीधर हैं तो दूसरी ओर चक्रधर हैं। माखन चुराने वाले हैं तो दूसरी तरफ पूरी सृष्टि को खिलाने और आप्यायित करने वाले हैं।

हमारी होली कैसी हो इसका वर्णन करते हुए मीरा बाई कहती हैं कि फागुन तो बहुत थोड़े दिनों का मेहमान होता है पर होता है सबको छकाने वाला। इस होली में शील और संतोष की केसर घोल कर प्रेम और प्रीति की पिचकारी होनी चाहिए :

फागुन के दिन चार होरी खेल मना रे ।

बिन करताल पखावज बाजे, अणहद की झनकार रे ।

बिन सुर राग छतीसू गावै, रोम-रोम रणकार रे ।।

सील संतोख की केसर घोली, प्रेम प्रीत पिचकार रे ।

उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।

घट के पट सब खोल दिए हैं, लोकलाज सब डार रे ।

‘मीरा’ के प्रभु गिरधर नागर, चरण कंवल बलिहार रे ।।

भारतीय मन सारी प्रकृति के साथ सहज निकटता का रिश्ता जोड़ कर जीने के लिए उत्सुक रहता है। समस्त सृष्टि परस्पर जुड़ी हुई है। उसके अवयव के रूप में मनुष्य, पशु-पक्षी लता गुल्म सहित सारा वनस्पति जगत फागुन में एक लय में जुड़ संगीतबद्ध हो उठता है। अलग और दूर करने की आंख मिचौली खेलते तकनीकी हस्तक्षेपों के बावजूद आज भी फागुन आते न आते दुर्निवार ढंग से प्रकृति का मधुर राग वायु मंडल और आसपास की दुनिया में प्रकट ही होता है। वसंत के आने की मुनादी हो रही है। तांत्रिक व्यवस्था में सभी अपनी-अपनी गति से फूल, फल, और पत्तों आदि के साथ सज्जित हो कर सुशोभित होने लगते हैं।

सच कहें तो होली, फागुन और उमंग एक दूसरे के पर्यायवाची हो चुके हैं। वसंत नए के स्वागत के लिए उत्कंठा का परिचायक है और होली का उत्सव इसका साक्षात मूर्तिमान आकार है। रसिया, फाग और बिहू के गान गाए जाते हैं। रंग शुभ है और जीवन का द्योतक है इस समझ के साथ होली के आयोजनों में करुणा, उत्साह और आनंद के भावों पर जोर रहता है। होली के बहाने मतवाला वसंत रंग भरने, हंसने-हंसाने, चिढने–चिढाने की हद में राम, शिव, और कृष्ण को भी सहजता से शामिल कर लेता है। अवध, काशी और वृंदावन में होली की अपनी खास विशेषताएं पर सबमें आनंद की अभिव्यक्ति उन्मुक्त होने में ही प्रतिफलित होती है।

(लेखक, अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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