सरदार पटेल और कश्मीर

राज खन्ना

कबाइलियों की आड़ थी। पाक सैनिक तेजी से श्रीनगर के नजदीक पहुँच रहे थे। राजा हरी सिंह 25 अक्टूबर 1947 की शाम श्रीनगर छोड़ने को मजबूर हो गए। पूरी रात सफ़र कर अगले दिन जम्मू पहुंचे। लाचारी। हताशा। सफ़र की थकावट। सोने जाते समय उन्होंने ए डी सी से दोनो ही सूरतों में जगाने को मना किया था। मेनन आ जायें तो मत जगाना। उनके आने का मतलब भारत सरकार मदद को तैयार है। न आयें तो इसका मतलब भारत की मदद नही मिलेगी। तब मुझे सोते में ही गोली मार देना। 26 अक्टूबर को कश्मीर के भारत में विलय की रजामंदी और मदद की पुकार का पत्र सौंपते हुए स्टेट सेक्रेटरी वी पी मेनन से राजा हरी सिंह ने यह बात खुद कही थी। ( इंटीग्रेशन ऑफ़ द इंडियन स्टेट्स- मेनन-359 )
राजा हरी सिंह का असमंजस और अनिर्णय उनके और रियासत की जनता दोनो के लिए भारी पड़ा। लार्ड माउन्टबेटन इसी साल 18 से 23 जून तक कश्मीर में थे। उन्होंने राजा से कहा था कि अगर वह पाकिस्तान में भी शामिल होने का फैसला करते हैं तो भारत को उसमे ऐतराज नही होगा। उन्होंने इसके लिए सरदार पटेल के पक्के आश्वासन का हवाला दिया था। उधर पण्डित नेहरु का कश्मीर से भावनात्मक लगाव था। शेख अब्दुल्ला की दोस्ती ने इसे और गाढ़ा किया। राजा हरी सिंह इस नाजुक मसले को लगातार टाल रहे थे। वह “ कोई फैसला न करने में “ अच्छे नतीजे की उम्मीद लगाये थे। पाकिस्तान का मुस्लिम देश होना उन्हें उस ओर जाने से रोक रहा था। जम्मू-कश्मीर की हिन्दू आबादी का भविष्य उन्हें चिन्तित कर रहा था। दूसरी ओर भारत की ओर जाने में उन्हें बहुसंख्य मुस्लिम आबादी के गुस्से से ज्यादा शेख़ अब्दुल्ला की तब बढ़ने वाली अहमियत परेशान कर रही थी। पण्डित नेहरु का शेख़ अब्दुल्ला पर गहरा विश्वास था। अब्दुल्ला नजदीक थे तो राजा हरी सिंह को नेहरु नापसन्द करते थे। पटेल दूसरे छोर पर थे। राजा से उन्हें सहानुभूति थी तो शेख अब्दुल्ला के प्रति अविश्वास। राजा भारत-पाकिस्तान बीच एक स्वतंत्र राज्य की भी आस संजोए थे।
ये सच है कि शुरुआत में पटेल कश्मीर को लेकर उत्साहित नही थे। उनके प्रतिनिधि के तौर पर रियासतों के भारत में विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वी पी मेनन ने लिखा ,“ हमारे पास कश्मीर के बारे में सोचने के लिए समय नही था।“ 13 सितम्बर 1947 की सुबह रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह को लिखे पत्र में सरदार पटेल ने संकेत दिया कि कश्मीर अगर पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला करता है तो इस सच को वह स्वीकार करेंगे। (पटेल अ लाइफ-439) लेकिन यही तारीख़ थी, जिस दिन हिन्दू बहुल पर मुस्लिम शासित रियासत जूनागढ़ के विलय को पाकिस्तान ने मंजूरी दे दी। सरदार को जैसे ही इसकी जानकारी मिली, उन्होंने कहा कि अगर हिन्दू बहुमत और मुस्लिम शासक वाली जूनागढ़ को पाकिस्तान ले सकता है, तो मुस्लिम बहुमत और हिन्दू शासक की रियासत में सरदार की दिलचस्पी क्यों नही हो सकती? भारत-पाकिस्तान बीच सत्ता की बिसात पर हैदराबाद-बादशाह था तो कश्मीर-रानी और जूनागढ़ -प्यादा। सरदार ने प्यादे और बादशाह की हिफाजत तो रानी हासिल करने को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल कर लिया। सरदार तेजी से सक्रिय हुए। पंजाब हाइकोर्ट के जज मेहर चंद महाजन (बाद में सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस) ने सरदार की सलाह पर राजा हरी सिंह का प्रधानमंत्री पद स्वीकार किया। इसके लिए उन्हें हाईकोर्ट से आठ महीने की छुट्टी दिलाई गई। सरदार ने 21 सितम्बर 1947 को राजा हरी सिंह को लिखा, “जस्टिस मेहर चन्द आपको कश्मीर के हित में हमारी बातचीत का ब्यौरा देंगे। मैंने उन्हें पूर्ण सहयोग-समर्थन का आश्वासन दिया है।“ विभाजन में गुरुदासपुर भारत के हिस्से में आया था। जम्मू-कश्मीर को भारत से जोड़ने वाली इकलौती सड़क यही से निकलती थी। उन दिनों यह सड़क बैलगाड़ी से चलने लायक भी नही थी। सरदार ने तेजी से जीर्णोद्धार कराया। उनकी पहल पर कई हवाई उड़ानों को मोड़कर दिल्ली-श्रीनगर से जोड़ा गया। अमृतसर-जम्मू लिंक पर वायरलेस और तार सयंत्र स्थापित किये गए। पठानकोट-जम्मू के बीच टेलीफोन लाइनें खींची गईं। उस वक्त के कार्य-ऊर्जा-खनन मंत्री बी एन गाडगिल ने याद किया, “अक्टूबर के आखि़री हफ्ते में सरदार पटेल ने नक्शा निकाला और जम्मू-पठानकोट इलाके को इंगित करते हुए कहा कि दोनों को जोड़ देने वाली भारी वाहनों लायक 65 मील लम्बी सड़क आठ महीने में तैयार हो जानी चाहिए। गाडगिल ने कहा कि बीच में पड़ने वाली नदी-नाले-पहाड़ नक्शे में नजर नही आ रहे हैं। सरदार ने दो टूक कहा आपको करना है। राजस्थान से विशेष ट्रेनों से लगभग दस हजार मजदूर लाये गए। रात में काम जारी रखने के लिए फ्लड लाइट लगाई गईं। डिस्पेंसरी-बाजार और जरूरी इंतजाम किए गए। समय से सड़क बनकर तैयार हुई।“
शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए 1930 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना की थी। 1938 में इसका नाम नेशनल कॉन्फ्रेंस कर दिया गया। शेख प्रायः अपने आंदोलन के सिलसिले राजा की जेल में रहे। उनके समर्थन में पण्डित नेहरु भी जून 1946 में बन्दी बनाये गए। कश्मीर के बढ़ते संकट के बीच अब्दुल्ला और उनके अनेक साथियों को राजा हरी सिंह ने 29 सितम्बर 1947 को रिहा किया। सितम्बर के आखिरी हफ़्ते में पण्डित नेहरु को जानकारी मिली कि पाकिस्तानी सेना बड़ी संख्या में कश्मीर में प्रवेश की तैयारी कर रही हैं। सरदार को जानकारी देते हुए नेहरु ने कहा कि जाड़ा नजदीक है। कश्मीर को बचाने के लिए जल्द से जल्द बड़ा कदम उठाना होगा। उन्होंने कहा कि जितनी जल्दी मुमकिन हो कश्मीर का भारत में विलय, शेख अब्दुल्ला के सहयोग से किया जाए। शेख के विषय में अपनी विपरीत सोच के बाद भी सरदार इस मौके पर नेहरु की राय का विरोध नही कर पाए। सरदार ने 2 अक्टूबर को राजा हरी सिंह को लिखा, “शेख अब्दुल्ला जल्द ही दिल्ली आने वाले हैं। उनसे बात करके उनकी ओर से आने वाली दिक्कतों का रास्ता खोजेंगे। उसके बाद कैसे आगे बढ़ सकते हैं, इस बारे में लिखूंगा।“ शेख के साथ अपनी कई बैठकों के बाद सरदार ने तब तक कश्मीर के प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभाल चुके महाजन को लिखा कि शेख बाहरी खतरे का मुकाबला करने के लिए सहयोग को तैयार हैं। वह चाहते हैं कि कुछ प्रभावी कर सकें, इसके लिए उन्हें शक्ति दी जाए। सरदार ने शेख की बात समझ में आने वाली मानी। राजा हरी सिंह की हैसियत को बरकरार रखते हुए उन्होंने सत्ता में शेख की हिस्सेदारी की सलाह दी।
महाजन को यह चिठ्ठी मिलने के पहले ही 22 अक्टूबर को कश्मीर पर हमला हो गया। पाकिस्तान की ओर से तीन सौ से अधिक लारियों में लगभग पाँच हजार हमलावर कश्मीर में दाखिल हुए। भारी मात्रा में हथियार-गोला बारूद उनके साथ थे। जाहिर तौर पर वे कबाइली थे, लेकिन असलियत में उनमें बड़ी संख्या में प्रशिक्षित फौजी थे। उसी दिन हमलावरों ने मुजफ्फराबाद पर कब्जा करके शहर को आग के हवाले कर दिया। रियासत की सेना की कमान लेफ्टिनेंट नारायण सिंह के हाथों में थी। उनकी बटालियन के मुस्लिम जवानों ने उन्हें गोली मार दी। सेना के मुस्लिम अफ़सर-जवान जिनकी संख्या दो हजार से अधिक थी हमलावरों से मिल गए। असलियत में वे अग्रिम दस्ते के रुप में पाकिस्तानियों की मदद कर रहे थे। विडम्बना देखिए कुछ दिन पहले ही राजा ने लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह सिंह से पूछा था कि क्या वह अपने मुस्लिम सहयोगियों पर भरोसा कर सकते हैं? नारायण सिंह का जबाब था, “डोगरा से ज्यादा।“ चीफ़ ऑफ स्टाफ़ ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने अपने सिर्फ डेढ़ सौ जवानों के साथ हमलावरों को रोकने के लिए मोर्चा लिया। उरी में उन्होंने वीरतापूर्वक संघर्ष कर पाकिस्तानियों को दो दिन तक आगे बढ़ने से रोके रखा। वे हमलावरों को बारामुला नही पहुंचने देना चाहते थे। वहाँ से श्रीनगर प्रवेश आसान हो जाता। ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह और सभी साथी शहीद हो गए। पर शत्रुओं को दो दिन तक रोककर श्रीनगर को बचाने में उनका योगदान अद्भुत था। 23 अक्टूबर को महाजन ने सरदार को लिखा कि हमारी मुस्लिम सेना और पुलिस ने या तो हमारा साथ छोड़ दिया है या फिर सहयोग नहीं कर रहे। 24 अक्टूबर को हमलावरों ने महुरा पावर हाउस पर कब्जा करके श्रीनगर को अंधेरे की चादर ओढा दी। रात तक वे राजधानी श्रीनगर से सिर्फ चालीस मील दूर थे।
भारत सरकार को हमले की जानकारी 24 अक्टूबर की शाम हताश राजा हरी सिंह की मदद की अपील के जरिये मिली। ठीक उसी समय भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ़ जनरल लॉकहार्ट के पास उनके पाकिस्तानी सहयोगी के जरिये यह सूचना पहुंची। 25 अक्टूबर को कैबिनेट की डिफेन्स कमेटी की बैठक में सरदार पटेल ने कश्मीर के राजा की मदद की जबरदस्त पैरोकारी की। इस बैठक के पहले वह महात्मा गांधी की भी सहमति ले चुके थे। गाँधीजी कश्मीर के जरिये द्विराष्ट्र के सिद्धान्त को गलत साबित करना चाहते थे। पण्डित नेहरु ने कहा कि राजा हरी सिंह को दुश्मन के मुकाबले के लिए शेख अब्दुल्ला को साथ लेना चाहिए। कमेटी के चेयरमैन माउन्टबेटन ने कहा कि ऐसा राज्य जिसका भारत में विलय नही हुआ है, वहाँ भारत की सेना कैसे जा सकती है? सरदार पटेल ने बहुत ही दृढ़ता के साथ कहा कि विलय हुआ हो अथवा नही। कश्मीर को सैन्य सहायता में कुछ भी बाधक नही हो सकता। आखिर में तय हुआ कि मेनन तुरन्त श्रीनगर रवाना हों। वहाँ हथियार भी भेजे जायें। 25 अक्टूबर को मेनन को श्रीनगर में सिर्फ सन्नाटा मिला। राज्य पुलिस का कहीं पता नहीं था। नेशनल कॉन्फ्रेंस के कुछ वालंटियर सड़कों पर लाठियां लिए तैनात थे। राजा अकेले पड़ जाने से गुम-सुम थे। महाजन निराश थे। मेनन ने हरी सिंह को परिवार और जेवर-नकदी लेकर जल्दी से जल्दी श्रीनगर छोड़ कर जम्मू पहुंचने की सलाह दी। राजा शाम को ही श्रीनगर छोड़ चुके थे। मेनन अगली सुबह फिर दिल्ली में थे। पण्डित नेहरु के आवास पर 26 अक्टूबर को अपराह्न तीन बजे महत्वपूर्ण बैठक हुई। बैठक में नेहरु, सरदार पटेल, बलदेव सिंह के साथ शेख अब्दुल्ला, महाजन और कश्मीर के उपप्रधानमंत्री बत्रा मौजूद थे। शेख और महाजन ने कहा कि कश्मीर को फौरन फौजी मदद की जरूरत है। माउन्टबेटन के रुख और कश्मीर के प्रति गहन लगाव के बाद भी नेहरु की हिचकिचाहट ने महाजन को असहज कर दिया। महाजन ने कहा कि भारत अगर सहायता नही करता तो कश्मीर जिन्ना की शर्तों को जानेगा। नेहरु की इस पर प्रतिक्रिया तीव्र थी। उन्होंने महाजन को वहां से चले जाने को कहा। महाजन जाने के लिए उठ खड़े हुए। सरदार ने उन्हें रोका। कहा, “यकीनन आप पाकिस्तान नहीं जा रहे।“ सरदार अपना मन पहले ही बना चुके थे। सरदार की साफ़गोई और शेख के समझाने पर नेहरु अनिर्णय से उबरे। मेनन को तुरन्त कश्मीर वापस जाने और महाराजा को सूचित करने के लिए कहा गया कि भारतीय सेना रास्ते में है। लेकिन माउन्टबेटन ने सरदार के विरोध के बाद भी ये सहमति हासिल कर ली कि सेना भेजने के पहले राजा से विलय पत्र हासिल कर लिया जाए। दूसरा आश्वासन वहाँ की हालत सामान्य होने पर जनमतसंग्रह के विषय में था।
अगले दिन सौ नागरिक और सैन्य विमानों से सेना और हथियार कश्मीर भेजने का सिलसिला शुरु हुआ। यह अभूतपूर्व सैन्य अभियान था, जिसकी कोई तैयारी नहीं थी। पर सेना ने अद्भुत और अप्रतिम शौर्य का परिचय दिया। शुरुआती लड़ाई में यह साफ़ हो गया कि ये कबाइलियों का सामान्य अतिक्रमण नही है। प्रशिक्षित शत्रु सेना का मुकाबला किया जाना है। चुनौती के मुताबिक ही दिल्ली से अतिरिक्त सैनिक और हथियार पहुंचते गए। बहादुर सैन्य अफसर के.एस थिमैय्या, जो बाद में सेना प्रमुख बने, टैंकों को 11,575 फीट की ऊंचाई तक जोजिला पास तक ले गए। वह भी बर्फ़ीली सर्दियों में और जल्दी ही जीत हासिल करने में सफल रहे। भारतीय सेना पूरा कश्मीर लेने की जगह बीच में क्यों रुक गई ? ये सवाल पूछा था, मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने कश्मीर अभियान का नेतृत्व करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल कुलवंत सिंह से लड़ाई के कई वर्षों बाद। जनरल का जबाब था, “प्रधानमंत्री ने उन्हें सिर्फ उस इलाके तक जाने के लिए कहा था जहां कश्मीरी बोली जाती है । नेहरु पंजाबी भाषी इलाके (गुलाम कश्मीर) में जाने के इच्छुक नही थे। एक तरह से नेहरु की दिलचस्पी सिर्फ कश्मीर घाटी में थी। अक्टूबर 1947 में लन्दन में हुई कामनवेल्थ कॉन्फ्रेंस में उनका दृष्टिकोण खुलकर सामने आ गया था। उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि एक तरह से कश्मीर का बंटवारा हो गया है। (एक जिंदगी काफी नहीं-कुलदीप नैय्यर-पेज 88)। यह जानना दिलचस्प होगा कि हमेशा से अहिंसा के पक्षधर गांधी जी ने भारत की सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया। कहा कि किसी समुदाय की रक्षा करने में अगर कायरता आड़े आ रही हो तो उसे बचाने के लिए लड़ाई का सहारा लेना कहीं बेहतर होगा।
सरदार पटेल पहले 28 अक्टूबर और फिर 2 दिसम्बर को कश्मीर पहुंचे। उन्होंने सेना के अफसरों-जवानों में जोश भरा। राजा और शेख अब्दुल्ला के बीच की तल्खी भी कम करने की कोशिश की। शेख प्रधानमंत्री पद पर अपनी ताजपोशी की औपचारिक मंजूरी चाहते थे। उन्हें पण्डित नेहरु का पूर्ण समर्थन था। 2 दिसम्बर 1947 को नेहरु ने राजा हरी सिंह को लिखा, “शेख़ अब्दुल्ला को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। वह प्रधानमंत्री होंगे। मेहर चंद महाजन कैबिनेट के एक मंत्री हो सकते हैं। वह कैबिनेट की मीटिंग की अध्यक्षता कर सकते हैं। अगर महाजन खुद को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करते हैं, तो इससे भ्रम फैलेगा। अंतरिम सरकार को पूरे अधिकार होंगे। आप सांविधानिक राज्य प्रमुख होंगे।“ नेहरु ने शेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर के भविष्य की कुंजी माना। यह मानते हुए कि सरदार, शेख के साथ सही तरीके से काम नही कर पायेंगे, नेहरु ने कश्मीर का मामला अपने हाथ में ले लिया। नेहरु ने जल्दी ही वहाँ से महाजन को हटाने का फैसला किया। सरदार ने अप्रसन्नता जाहिर की लेकिन महाजन से कहा कि अगर आप बाधक समझे जा रहे हैं, तो आप हटने में देर न कीजिये। अपनी सहायता के लिए नेहरु ने कश्मीर के पूर्व दीवान और संविधान विशेषज्ञ एन गोपाल स्वामी आयांगर को बिना विभाग के मंत्री के तौर पर कैबिनेट में शामिल किया। दिसम्बर 1947 के पहले पखवारे की गोपालस्वामी की दो कश्मीर यात्राओं की जानकारी नेहरु ने सरदार को दीं। आयांगर को लेकर नेहरु की योजना को समझने में सरदार चूक गए। आयांगर ने पूर्वी पंजाब के प्रीमियर को एक तार भेजकर कश्मीर के लिए 150 वाहन भेजने को कहा। सरदार को यह उचित नही लगा। उन्होंने आयांगर को भविष्य में गृह मन्त्रालय से पत्रव्यवहार के लिए कहा। खिन्न आयांगर ने कैबिनेट मंत्री के तौर पर पोस्ट ऑफिस की भूमिका निभाने से इनकार कर दिया। सरदार को अगर जानकारी रही होती तो यकीनन वह इस स्थिति से बचते। 23 दिसम्बर को सरदार ने उन्हें लिखा कि मैं अपना पत्र वापस लेता हूँ। पर इस समय तक आयांगर अपना 22 दिसम्बर का पत्र प्रधानमंत्री को भेज चुके थे।
पण्डित नेहरु ने सरदार के पत्र को काफी गम्भीरता से लिया। 23 दिसम्बर को उन्हें लिखा, “गोपालस्वामी आयांगर को कश्मीर की आन्तरिक स्थिति की जानकारी और अनुभव के कारण खासतौर पर, वहाँ के विषय में सहायता के लिए कहा गया है। उन्हें इसके लिए पूरी छूट देनी होगी। मैं समझने में विफल हूँ कि इसमें गृह मन्त्रालय बीच में कहां से आता है? सिवाय इसके कि उसे की जाने वाली कार्रवाई की जानकारी दी जाती रहे। यह सब मेरी पहल पर हो रहा है। ऐसा विषय जिसके लिए मैं जिम्मेदार हूँ, उसे करने में मैं दख़ल नही चाहूँगा। मैं कहना चाहूँगा कि सहयोगी गोपालस्वामी के साथ ऐसा व्यवहार नही किया जाना चाहिए था।“
सरदार ने तुरन्त ही अपने हाथ से पण्डित नेहरु को पत्र लिखा,“ अभी दोपहर एक बजे आपका पत्र मिला और मैं आपको तुरन्त यह बताने को लिख रहा हूँ। इसने मुझे पर्याप्त पीड़ा दी है …. आपके पत्र से साफ है कि मुझे सरकार में आगे नही रहना चाहिए। इसलिए मैं त्यागपत्र दे रहा हूँ। मैं सरकार में रहने के दौरान , जो कि काफी तनाव का समय रहा है, के दौरान प्राप्त आपकी शिष्टता-उदारता के लिए आभारी हूँ।“ उसी दिन पण्डित नेहरु ने फिर पत्र लिखकर सरदार से अफसोस जताया। स्वीकार किया कि हमारी कार्यशैली में अंतर है। फिर भी हम एक-दूसरे का बहुत आदर करते हैं। अपने इस्तीफे की पेशकश करते हुए उन्होंने कहा कि यदि वह प्रधानमंत्री के पद पर काम करेंगे तो चाहेंगे कि उनकी स्वतंत्रता बाधित न हो और काम करने की आजादी हो। अन्यथा मेरा अवकाश प्राप्त कर लेना बेहतर होगा। यदि हममें से किसी को सरकार से हटना पड़े तो हम वह काम गरिमा और विश्वास के साथ करें। अपनी ओर से मैं त्यागपत्र देने और पदभार आपको सौंपने को तैयार हूँ। सरदार ने 24 दिसम्बर को पण्डित नेहरु को फिर पत्र लिखा कि उन्होंने पहले भी कभी उनकी ( नेहरु ) की आजादी में बाधा नही डाली है और न ही ऐसी कोई इच्छा रखते हैं। नेहरु के इस्तीफे या पद छोड़ने का कोई प्रश्न न होने का जिक्र करते हुए सरदार ने सहमति जाहिर की कि जो भी निर्णय हो वह गरिमा के साथ हो। साथ ही उन्हें याद दिलाया कि वह खुद ( नेहरु भी ) नही चाहेंगे कि एक निष्प्रभावी सहयोगी के रुप में मैं काम करता रहूँ।
उसी शाम सरदार ने गांधी जी से भेंट की। गांधी जी की नेहरु से भी अलग से मुलाकात हुई। किसी का इस्तीफ़ा नही हुआ। पर सरदार की कश्मीर में भूमिका खत्म हो चुकी थी। मन्त्रिमण्डल के सहयोगी के तौर पर सरदार फिर भी खामोश नही रहे। माउन्टबेटन के साथ नेहरु की प्रस्तावित लाहौर यात्रा का उन्होंने कड़ा विरोध किया। कहा,“ जब हम सही हैं। मजबूत हैं तो जिन्ना के सामने रेंगने क्यों जायें ? देश की जनता हमे क्षमा नही करेगी।“ नेहरु की बीमारी के साथ ही सरदार के कड़े विरोध ने नेहरु का माउन्टबेटन के साथ लाहौर जाना रोका। माउन्टबेटन की सलाह पर कश्मीर के सवाल को सयुंक्त राष्ट्र संघ को सिपुर्द करने का भी सरदार ने कड़ा विरोध किया था। वह इस सवाल को समय से कार्रवाई के जरिये कश्मीर की जमीन पर ही हल करने के हिमायती थे। पर सरदार की नही चली। नेहरु कश्मीर की जिम्मेदारी ले चुके थे। इसमें दख़ल उन्हें नापसन्द था।

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