ये कहां आ गए हम…

संजय स्वतंत्र

पूर्णबंदी खत्म होते ही दिल्ली चल पड़ी है। आज इसकी रफ्तार से कदमताल करने की कोशिश की। मगर वह मुझसे आगे निकल गई। कभी मेट्रो से तो कभी हरी-नारंगी और नीली बसों से। वह आज हर उस शख्स के साथ थी जो रोजी-रोटी के लिए अपने-अपने वाहनों से निकले थे। वह उनके साथ चल रही थी। लेकिन सोचिए जरा हम किसके साथ थे। न इस शहर के न यहां के लोगों के साथ थे। सोमवार को उम्मीदों का सूरज अपनी लालिमा बिखेरता आया। हर तरफ एक नई ऊर्जा थी। कई दिनों से बंद पड़ी दुकानें खुल रही थीं। चाहे वह पटेल नगर और करोल बाग हो या ज्वालाहेड़ी हो। हर तरफ दुकानदार एक दूसरे का हौसला बढ़ा रहे थे। मगर उनकी दुकानों के कर्मचारियों का क्या हुआ, ये वही जानें। संकट की इस घड़ी में किसने किस की मदद की, ये कौन जानता है। पुराने कर्मचारियों में एक दो ही आए थे जो साफ-सफाई में इन दुकानदारों की मदद कर रहे थे। जो भी हो, सड़कों पर रौनक लौट आई है। बस स्टापों पर कई यात्री दिखे। ठेले पर सामान बेचने वाले भी दिखे। लोग उनसे खरीदारी करते नजर आए। शहर का मिजाज भांपते हुए मैं पश्चिम विहार पहुंचा। यहां जन स्वास्थ्य विज्ञानी डॉ. एके अरुण अपने मरीजों की सूची तैयार करवाते मिले। मैंने पूछा इसकी क्या जरूरत है। डॉक्टर साहब का जवाब था, ये सूची उन मरीजों की है जो आर्थिक तंगी के कारण फीस नहीं दे पा रहे हैं। यह उनकी मदद के लिए है कि जब वे आएं तो उनसे फीस न ली जाए। कुछ की नौकरी चली गई है। कुछ का कारोबार ठप पड़ा है तो कुछ आर्थिक तंगी से परेशान हैं। हम लोग इनकी मदद करेंगे। वे बेशक फीस न दें मगर स्वस्थ रहे। बाद में पैसे दे या न दें इसकी चिंता नहीं। कम से कम उन्हें याद रहे कि संकट की घड़ी में हम उनके साथ थे। उन्हें अकेला नहीं छोड़ा गया। डॉक साब की बात सुन कर मैं भाव विह्वल हो गया। लगा अरुण जी जैसे नागरिकों के कारण इंसानियत बची है। हमारा जमीर जिंदा है। समाज इसलिए बचा है क्योंकि परस्पर सहयोग की भावना कहीं व कहीं हमारे दिल में सलामत है। अलबत्ता हमारी आंखों का पानी जरूर सूख गया है। अब हम दूसरों के प्रति दयालु नहीं रहे। हम बांटने में नहीं बटोरने में विश्वास करते हैं। ज्यादातर की मनोवृत्ति ऐसी ही हो गई है। क्यों हो गए हम ऐसे? खुशियां बांटने की परंपरा कहां खो गई। हमारे भीतर का मनुष्य कहां खो गया? हमें ढूंढना होगा। अगर उसे हम ढूंढ़ लेंगे तो खुद को पा लेंगे। मगर जिस मोड़ पर आकर खड़े हैं, वहां लगता हैं ये कहां आ गए हम।
ख्यात रंगकर्मी और जन कवि गिरीश तिवारी गिर्दा ने हम जैसों के लिए ही लिखा होगा :
एक तरफ बर्बाद बस्तियां-एक तरफ हो तुम
एक तरफ डूबती कश्तियां- एक तरफ हो तुम।
एक तरफ सूखी नदियां-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ प्यासी दुनिया-एक तरफ हो तुम।
अजी वाह क्या बात तुम्हारी,
जिस दिन डोलेगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती
महल चौबारे बह जाएंगे
खाली रौखड़ रह जाएंगे
बूंद-बूंद तरसोगे जब
बोल व्यापारी-तब क्या होगा?
नगद उधारी- तब क्या होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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