भारत को नये संसद भवन के साथ ही नए संविधान की भी जरूरत

वीर विक्रम बहादुर मिश्र

भारतीय किसान यूनियन ने केंद्र के साथ ग्यारहवें दौर की वार्ता में भी अपना अड़ियल रुख जारी रखा और तीनों कृषि कानूनों को रद्द किये जाने की अपनी मांग जारी रखी। यही नहीं किसानों की ओर से गणतंत्र दिवस पर दिल्ली की सड़कों पर दो लाख ट्रैक्टरों की रैली निकाल समूचा आवागमन बाधित करने की योजना है। आश्चर्यजनक बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने लोकसभा के पूर्ण बहुमत द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिक वैधता पर विचार किये बिना उस पर क्रियान्वयन स्थगित कर दिया और अपनी ओर से किसानों से बातचीत के लिए समिति बनाकर रिपोर्ट के लिए दो महीने का समय दे दिया। जबकि दिल्ली की सड़कों को अवरूद्ध कर रहे किसानों की रैली पर रोक नहीं लगायी। गणतंत्र दिवस पर सड़कों से अवरोध हटाने के संदर्भ में दिल्ली पुलिस की याचिका याचिका पर न्यायालय ने कोई निर्णय नहीं दिया और उसे पुलिस के विवेक पर छोड़ दिया। मुझे लगता है कि न्यायालय ने अपने निर्णय से विधायिका और कार्यपालिका दोनों के क्षेत्र का अतिक्रमण किया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट लोकसभा द्वारा पारित किसी विधेयक की गुणवत्ता पर विचार के बाद उसे असंवैधानिक पाये जाने पर कानून रद्द कर सकता है। परंतु बिना विचार किये उसे रोक नहीं सकता। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से गलत परंपराओं के शुरू होने का खतरा पैदा हो गया है। अब राष्ट्रहित के किसी भी विधेयक के पारित होने पर सड़कों को घेरकर उसे रद्द करने की मांग पर कामकाज ठप करने की चेष्टा कर सकता है। फैसले यदि सड़क पर दबाव से ही होने हैं तो लोकसभा और विधानसभाओं की जरूरत क्या है? अब आइए विधायिका पर। लोकमहत्व के तीनों कृषि कानून लोकसभा में हंगामे के दौरान बिना बहस के पारित हुए। इन पर व्यापक बहस होनी चाहिए थी। परंतु लोकसभा और विधानसभाओं में बहस की प्रवृत्ति घट रही है। इन सदनों में अब वे लोग पहुंच रहे हैं, जिनकी विधायिका में रुचि ही नहीं। देश और समाज के प्रति समर्पित लोग अब इन सदनों में पहुंच ही नहीं पाते। अपने घर परिवार की समृद्धि की भावना वाले लोगों की भीड़ ने विधायिका पर कब्जा कर लिया है। बहुत से लोग हैं जिन्होने अपने पूरे कार्यकाल में सदन में मुंह तक नहीं खोले। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने ठीक कहा था कि अब राजनीति से राजनेता खत्म हो रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि दूसरों के लिए विधेयक पारित करने वाले विधायकों के लिए कोई शैक्षिक अनिवार्यता नहीं। सदन में उन्हे अपनी संपत्ति की घोषणा के सबंध में विधेयक है, पर यह उनकी इच्छा पर है। देने की कोई बाध्यता नहीं। लचर कानूनों के चलते बहुत से दागी और अपराधी मानसिकता के लोग इन सदनों में पहुंच रहे हैं, जो केवल अपने अपने निजी दमखम के लिए राजनीति में है। उनका अपने क्षेत्र की और समाज की समस्याओं से कोई मतलब नहीं। यदि जन प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति जागरूक रहें तो संभवतः इस तरह की परिस्थितियां पैदा ही न हों। आजादी के पचहत्तर वर्षों तक देश के चारित्रिक विकास पर ध्यान न देने का परिणाम है कि देश में सिद्धांतवादिता और कर्मठता की पीढ़ी कमजोर हो गयी। इसी का परिणाम है कि विधायिका से जुड़े लोग खुले आक्षेप का शिकार हो रहे हैं। देखिए न, बाराबंकी के दिवंगत कवि करुणा शंकर ’बदनाम’ क्या कह रहे हैं :
’मैं क्या करूं किसी लायक नहीं हूं,
किसी के लिए लाभदायक नहीं हूं,
मैं ’बदनाम’ हूं बुरा आदमी हूं,
मगर आदमी हूं विधायक नहीं हूं’।
अब कार्यपालिका की हालत देखिए। भारतीय संविधान जो देश की सत्ता के संचालन का मेरुदंड है, वह वोट का जो मूल्य दागी अपराधी का देता है, वही मूल्य निरपराधी बेदाग व्यक्ति का देता है। राष्ट्रद्रोह में लिप्त व्यक्ति और राष्ट्रभक्त दोनों के वोट का मूल्य समान है। वोट के लिए कर्तव्यपरायण और निष्ठावान व्यक्ति तथा अकर्मण्य व संदिग्ध निष्ठा के लोग एक ही तराजू पर तौले जाते हैं। वह भी वोट देने की कोई बाध्यता नहीं है, जबकि टैक्स देने की बाध्यता है और सुवधाएं सभी को प्राप्त करने का अधिकार है। संविधान में सभी को समानता का अधिकार है, जबकि देश में ही अल्पसंख्यकों के अधिकार अलग से हैं। बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए कोई पर्सनल ला नहीं, जबकि अल्पसंख्यकों में मात्र मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल ला है। सिख ईसाई बौद्ध भी अल्पसंख्यक हैं, उनके लिए भी कोई पर्सनल ला नहीं। संविधान में एक ओर जाति व्यवस्था के उन्मूलन की बात है, जबकि जातीय आरक्षण देकर जातीयता को और पुष्ट कर दिया गया। हालांकि इसे केवल दस वर्षों के लिए लागू किया गया था, तथापि आज तक यह लागू है। अब अगर यह आरक्षित वर्गों के उत्थान में अपेक्षित योगदान नहीं दे सकी तो इसकी पद्धति में परिवर्तन होना चाहिए। काश आरक्षण का आधार सभी वर्गों के लोगों की ईमानदारी समझदारी और ईमानदारी को बनाया गया होता तो देश की तस्वीर कुछ और होती। यह संविधान अराजक लोगों को पुष्ट करता है। स्वार्थी लोगों की झोली भरता है और राष्ट्रीयता को कमजोर करता है। सरकारी नौकर आज भी ’अफसर’ ’अधिकारी’ और ’साहब’ कहकर संबोधित किया जाता है और जनता उसकी रियाया होती है। यह व्यवस्था बदली जानी चाहिए। गोण्डा के मरहूम शायर ’अदम गोंडवी’ ने सत्तानशीनों पर क्या कटाक्ष किया है :
’आंख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे।
मेरे साहिबे वक्त का यह मर्तबा आला रहे।
देखने को दे उन्हें अल्लाह कम्प्यूटर की आंख।
सोचने को कोई बाबा बाल्टी वाला रहे।
मिल गयी कुर्सी अदम तो और फिर क्या चाहिए।
चार छः चमचे रहें, माइक रहे माला रहे।
चिंता की बात है कि संविधान द्वारा प्रदत्त सत्ता से संचालित तीनों संस्थाएं अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पा रही हैं। लोकसभा के पूर्ण बहुमत से पारित कानूनों के रद्द करने की मांग का तरीका असंवैधानिक है। आंदोलनकारियों को न्यायपालिका पर विश्वास नहीं कार्यपालिका और विधायिका पर विश्वास नहीं। यह स्थिति विषम है। संसद की नयी दीवारों से कुछ खास नहीं बदलने वाला। देशद्रोहियों गद्दारों स्वार्थ में अंधे नेताओं पर नकेल कसने के लिए आधुनिक भारत को नया संविधान चाहिए।

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