प्रत्याहार सिद्ध होने पर कोई बनता है योगी

डा. माधव राज द्विवेदी

पतंजलि ने अपने योगसूत्र में योग साधना के आठ अंगों का वर्णन किया है, जिन्हें अष्टांग योग कहते हैं। वे हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें प्रथम पांच को बहिरंग और अन्तिम तीन को अन्तरंग साधन कहते हैं। पातंजल योग दर्शन के अनुसार, यम के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच भेद हैं। हठयोग प्रदीपिका में यम के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, क्षमा, धृति, दया, आर्जव, मिताहार और शौच ये दस भेद बतलाए गए हैं। पातंजल योग दर्शन के अनुसार शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम निर्धारित किए गए हैं। हठयोग प्रदीपिका में नियम के तप, सन्तोष, आस्तिक्य, दान, पूजा, सिद्धान्त वाक्य श्रवण, ह््री, मति, जप और होम ये दस भेद कहे गए हैं। हठयोग प्रदीपिका में आसन और प्राणायाम साधना के पूर्व कायाशुद्धि के लिए षट् कर्मों के अन्तर्गत धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौलि तथा कपालभाति क्रियाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। योगसूत्र के अनुसार, प्रत्याहार सिद्ध हो जाने पर योगी की इन्द्रियां पूर्णरूपेण वशवर्तिनी हो जाती हैं। सन्त सुन्दर दास ने कहा है कि जिस प्रकार कच्छप अपने अंगों को भीतर समेट लेता है अथवा सूर्य की किरणें रस द्रव्यों का कर्षण करती हैं, उसी प्रकार साधक प्रत्याहार साधना द्वारा इन्द्रिय निग्रह कर उन्हें अन्तर्मुखी बना लेता है। आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक देशों में से किसी ध्येय देश के विषय में चित्त को एकाग्र करना ही धारणा है। धारणा की साधना में मन को किसी स्थान या वस्तु विशेष में लगाना पड़ता है। शरीर के अन्तर्गत इसके लिए नाभि, हृदय, वक्षस्थल, कण्ठ, मुख, नासिकाग्र, नेत्र, भ्रूमध्य, मूर्धस्थान और प्रांग ये दस आश्रयभूत स्थान निर्धारित हैं। ध्येय वस्तु का ज्ञान जब एकाकार रूप से प्रवाहित होता है और उसे दबाने के लिए कोई अन्य ज्ञान नहीं होता तब उसे ध्यान कहते हैं। महर्षि पतंजलि के मतानुसार ध्येय वस्तु में चित्त को नियोजित करना, उसी में चित्त का एकाग्र होना अर्थात् केवल ध्येयमात्र की एक ही तरह की वृत्ति का क्रम चलाना, उस क्रम में अन्य वृत्ति का उद्रेक न होना ही ध्यान है। मन की एकतानता की चरम सीमा समाधि है। समाधि दशा को प्राप्त होना योग साधना की अन्तिम परिणति है। समाधि दशा को प्राप्त कर साधक के हृदय और मस्तिष्क में केवल एक विचार और एक ही प्रकाश रह जाता है और यह विचार या प्रकाश है ब्रह्म का। साधक इसी प्रकाशपुंज में स्वयं लीन हो जाता है। जब ध्यान और ध्येय वस्तु एकमेल हो जाती है तब उसे समाधि कहते हैं। पतंजलि के अनुसार ध्यान करते करते चित्त ध्येय के ही आकार में परिणत हो जाता है, और उस ध्येय तथा ध्याता की एकात्मता, ज्ञाता और ज्ञेय की भिन्नता का अभाव ही समाधि है। समाधि की अवस्था में साधक समस्त भेदभावों, मनोविकारों एवं शीतोष्णादि प्रभावों से परे हो जाता है। जिस प्रकार लवण जल में,दुग्ध दुग्ध में घृत घृत में एवं जल जल में मिला देने से भेदरहित हो जाते हैं, उसी प्रकार समाधि दशा में ध्याता और ध्येय एकमेक हो जाते हैं। समाधि दो प्रकार की मानी गई है सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि ।सम्प्रज्ञात समाधि में ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है किन्तु असम्प्रज्ञात समाधि में ध्येय, ध्याता और ध्यान का एकात्म हो जाता है। प्रथम को सबीज और द्वितीय को निर्बीज समाधि कहते हैं।

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