पंडित नेहरू और विपक्ष

(पुण्य तिथि 27 मई पर विशेष)

राज खन्ना

सत्ता अभी दूर थी। पर इसके हाथ आने पर खुद के भटकने की आशंका को लेकर पंडित नेहरू फिक्रमंद थे। 1937 में वे तीसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। देशवासियों के बीच उनकी लोकप्रियता अपार थी। गाँधीजी का उनके प्रति विशेष अनुराग था। माना जाता था कि आजादी बाद देश की बागडोर उन्हीं के हाथों में होगी। उस समय खुद पंडित नेहरू के मन में क्या चल रहा था? अपनी कमियों-कमजोरियों के लिए खुद के भीतर झांकते हुए कलकत्ता की पत्रिका ’माडर्न रिव्यू’ के नवम्बर 1937 के अंक में’ ’राष्ट्रपति जवाहर लाल’ शीर्षक से उन्होंने एक लेख लिखा। यह छपा चाणक्य के छद्म नाम से। उन्होंने लिखा, “एक छोटा सा मोड़ जवाहर लाल को तानाशाह बना सकता है जो धीमी गति से चलने वाले लोकतंत्र के विरोधाभास को भी पार कर सकता है। वह अभी भी लोकतंत्र, समाजवाद की भाषा और नारे का उपयोग कर सकता है लेकिन हम सभी जानते हैं कि इस भाषा की आड़ में फासीवाद कितना फैल चुका है और इसे बेकार काठ बना दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष में तानाशाह बनने की तमाम योग्यताएं, सोच और गुण मौजूद हैं। मसलन लोकप्रियता, मजबूत और परिभाषित उद्देश्य, ऊर्जा, गौरव भाव, संगठनात्मक क्षमता, कठोरता, भीड़ के साथ घुल-मिल जाना, दूसरों के प्रति असहिष्णुता और कमजोर लोगों के प्रति एक अवमानना का भाव।“
यह लेख तो छद्म नाम से था लेकिन आने वाले दिन बताने वाले थे कि खुद की आशंकाओं के विपरीत वह लोकतंत्र के प्रति कितने प्रतिबद्ध और असहमति के प्रति कितने सहनशील हैं। दूसरों के उंगली उठाने पर ही नहीं, बल्कि अपनी और सरकार की कमियों को खुद ही कुबूल करने का उनमें अद्भुत माद्दा था। वह सदन के पटल पर भी अपनी आलोचना करने में नहीं चूके। आजादी के बाद संविधान सभा का कार्य पूर्ण हो जाने के बाद उसे अस्थायी संसद के तौर पर बदल दिया गया था। पंडितजी ने वहाँ बोलते हुए कहा, ’मैं अक्सर ताज्जुब करता हूँ कि पिछले कुछ महीनों में जो कुछ हुआ है उसके बाद हिंदुस्तान के लोग मुझ जैसे आदमी को क्यों बर्दाश्त करते हैं? मैं खुद यकीन के साथ नहीं कह सकता हूँ कि अगर मैं सरकार में न होता तो क्या मैं इस सरकार को बर्दाश्त कर सकता था? इस 313 सदस्यीय सदन में औपचारिक तौर पर कोई विपक्ष नहीं था। जो कांग्रेस में नहीं थे उन्हें असम्बद्ध सदस्य माना जाता था। शुरुआत में उनकी सँख्या 22 थी। 1951 में यह संख्या 28 हो गई। लेकिन दिलचस्प है कि उनसे अधिक ’कांग्रेस के भीतर का विपक्ष’ अधिक सक्रिय था। कांग्रेस के ऐसे कई सदस्य थे जो सरकार की आलोचना का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। पार्टी में रहते हुए सरकार के आलोचक महावीर त्यागी और आर.के.सिधवा मंत्री बनाये गए। आचार्य कृपलानी भी सरकार के काम पर तीखी नजर रखते थे। उन्होंने पहले कांग्रेस के भीतर ही एक लोकतांत्रिक दल बनाया। फिर पार्टी में अलग-थलग अनुभव करने पर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई। रफ़ी अहमद किदवई से पार्टी छोड़ देने के बाद भी मंत्री बने रहने का नेहरू ने आग्रह किया। बाद में किदवई कांग्रेस में वापस आ गए। आचार्य कृपलानी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आलोचना को पंडितजी बहुत गौर से सुनते थे। बजट पर बहस के दौरान सरकार की कमजोरियों और भ्रष्टाचार पर कृपलानी के तीखे हमलों के उत्तर में पंडित जी ने 14 मार्च 1951 के अपने यादगार भाषण में आरोपों-आलोचना को बहुत कुछ सही माना लेकिन निष्कर्षों से असहमति व्यक्त की। उन्होंने कहा, ’माननीय सदस्यों को पूरा अधिकार है कि देश के वर्तमान चित्र को आलोचनात्मक दृष्टि से देखें। यदि सदन में कोई प्रभावी विपक्ष होता तो अवश्य ही यह उसका अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी होता कि वह सरकार की कमियों की ओर ध्यान दिलाते हुए रचनात्मक सुझाव रखता। क्योंकि कोई प्रभावी विपक्ष है ही नहीं इसलिए मैं अपने साथियों की आलोचना का स्वागत करता हूँ, जो नीतियों के मामले में प्रायः हमारे साथ हैं।’
पहली निर्वाचित लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चार दिन चली बहस का 22 मई 1952 को उत्तर देते हुए विपक्ष और असहमति की अनिवार्यता को एक बार फिर उन्होंने जरूरी बताया। उन्होंने कहा, ‘मेरा विश्वास है कि किसी भी सरकार के लिये आलोचकों और विपक्ष का होना जरूरी है, क्योंकि आलोचना के बिना लोग अपने में संतुष्ट अनुभव करने लगते हैं। सरकार आत्म संतुष्ट हो जाती है। सारी संसदीय व्यवस्था आलोचना पर आधारित है। विपक्ष में जो हैं उनका स्वागत है। इससे अंतर नहीं पड़ता कि हम उनसे सहमत हैं अथवा नहीं। महत्व इस बात का है कि वे देश के किसी भी किसी हिस्से के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक सदस्य के इस कथन पर कि उन्होंने (नेहरू ने) इतिहास में अपना स्थान खो दिया के जबाब में उन्होंने कहा कि महत्व इस बात का नहीं है कि इतिहास मेरा क्या मुकाम तय करेगा? महत्व इस बात का है कि इसका देश और उसकी चालीस करोड़ जनता के भाग्य पर क्या प्रभाव होगा?’ इसी लोकसभा में संसदीय शिष्टाचार का एक अनूठा दृश्य तब देखने में आया, जब पंडित जी ने बिना किसी लाग-लपेट के श्यामा प्रसाद मुखर्जी से क्षमा मांगी। उत्तर में मुखर्जी ने कहा था कि क्षमा याचना की कोई आवश्यकता नहीं है। इतना पर्याप्त है कि प्रधानमंत्री ने माना कि जिस भाषा का उन्होंने प्रयोग किया वह अनुचित थी। प्रसंग यह था कि मुखर्जी के भाषण के सही संदर्भ को समझे बिना पंडित जी ने कह दिया, ’मैं तो समझ रहा था कि किसी सज्जन व्यक्ति को सुन रहा हूँ। उन्हें (मुखर्जी को) सच का सामना करना चाहिए।’ इस पर मुखर्जी के जबाब से सदन ठहाकों से गूंज उठा। हँसने वालों में पंडित जी आगे थे। मुखर्जी ने कहा था, ’मैं सच का कैसे सामना करूँ। मैं तो सरकार का सामना कर रहा हूँ।’ पंडितजी ने खेद व्यक्त करने में तनिक भी देरी नहीं की।
पंडित नेहरू देश के उन महानायकों में हैं जिन्होंने पहले आजादी की लड़ाई और फिर आजाद भारत के नवनिर्माण में अप्रतिम भूमिका निभाई। पहले गाँधीजी और फिर जल्दी ही सरदार पटेल के निधन के बाद देश की दिशा तय करने का अधिकार उनके हाथों में था। उन्होंने तकनीक-विज्ञान से लैस विकसित भारत का सपना देखा। पंचवर्षीय और निर्माण-विकास की तमाम योजनाओं पर द्रुत गति से कार्य कराकर वह देश को सम्मानजनक स्थिति में लाने में सफल रहे। उन्होंने वैदेशिक मोर्चे पर गुटनिरपेक्षता की नीति का रास्ता चुना। वह आधुनिक भारत के निर्माता थे। वह उस भारत के लिए जिये जो विविधता में एकता तलाशता है और जाति-धर्म रंग भेद से अलग समता और समानता में भरोसा रखता हैं। बेशक विकास के जिस मॉडल को उन्होंने चुना उस पर बहस होती रही है लेकिन उनकी अथक कोशिशों ने तमाम क्षेत्रों में सकारात्मक बदलाव किए। उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की मजबूत आधारशिला तैयार की। वह उन संस्थाओं के निर्माता के तौर पर याद किये जाते हैं जिसने देश के लोकतंत्र को सही अर्थ दिया। संवैधानिक संस्थाओं के मध्य समन्वय और उनकी स्वायत्तता के प्रति अपनी निष्ठा के जरिये उन्हें पुष्ट किया। लोकतंत्र की इस मजबूती ने जनता को अपनी पसंद की सरकार चुनने का अधिकार दिया। इन सरकारों ने देश को स्थिरता दी। इस स्थिरता ने विकास को गति दी और देश की एकता- अखंडता की रक्षा में सहायता की। उन्होंने इस लोकतंत्र को स्वर और प्राणवायु प्रदान करने के लिए सदन को एक प्रभावी मंच बनाया। कांग्रेस के प्रचंड बहुमत से इतर उन्होंने सदन की कार्यवाही अथवा कानूनों के निर्माण में विपक्ष की कम संख्या के बाद भी उसे यथोचित अवसर और उसकी राय को महत्व दिया। उन्होंने निरंतर प्रयास किया कि सदन जनभावनाओं को प्रतिबिंबित करे। उन्होंने सदन की कार्यवाही में लगातार हिस्सा लिया। विपक्ष को उत्तर देने से पूर्व देर-देर तक सुना। बेशक उनकी विफलताएं भी हैं। कमजोरियां भी रही हैं। कश्मीर समस्या और 1962 में चीन से शर्मनाक पराजय के लिए उनकी काफी आलोचना होती रही है। चीन के धोखे ने निजी तौर पर भी उन्हें बहुत आघात पहुंचाया। इस पराजय ने देश को जो जख्म दिए वह उन्हें बेचैन करते रहे। लेकिन पराजय की इस पीड़ा में भी अपनी जबाबदेही से बचने या सदन से कतराने की उन्होंने कोशिश नही की। खराब सेहत के बीच भी सदन की कार्यवाही में अपनी सक्रिय भागीदारी को लेकर वे सजग रहे। सदन के जरिये वह लगातार देश की जनता और व्यवस्था के अन्य अंगों को इस नाजुक सवाल पर भरोसे में लेते रहे। 16 अगस्त 1961 से 12 दिसम्बर 1962 के मध्य सदन की बैठकों में उन्होंने चीन के संबंध में 32 अवसरों पर बयान दिए अथवा बहस में हस्तक्षेप किया। ये बयान लगभग दो सौ पृष्ठों में एक लाख चार हजार शब्द समेटे हुए हैं। 12 से 14 नवम्बर 1962 के तीन दिनों में सदन के 165 सदस्यों ने चीन हमले को लेकर अपने विचार रखे। रक्षा तैयारियों की कमी और देश का सम्मान सुरक्षित रखने में सरकार की विफलता के लिए तीखे प्रहार हुए। पंडित नेहरू सीधे निशाने पर थे। परन्तु पूरे समय वह सदन में बैठे। धैर्यपूर्वक सभी को सुना। रक्षा और विदेश मंत्रालय की दोहरी जिम्मेदारी उनके पास थी। विस्तार से उन्होंने उत्तर दिया और सदन को आश्वस्त किया कि चीन के हमले से जुड़ा कागज का हर पुर्जा सदन के समक्ष रखा जाएगा। देश ने 1998 में परमाणु विस्फोट करके अपनी शक्ति-सामर्थ्य का परिचय दिया। पर इस दिशा में उनके जीवनकाल में काम शुरू हो चुका था। 10 अगस्त 1960 को लोकसभा में परमाणु ऊर्जा विभाग की एक विस्तृत रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान उन्होंने कहा था, ’जहाँ तक हमारा संबंध है, हमने एटम बम या इसी प्रकार की चीजें न बनाने का निश्चय किया है। लेकिन इस नई शक्ति के इस्तेमाल की उन्नति में पीछे रहने का हमारा कोई इरादा नहीं है। यह सच है कि जिस देश ने परमाणु ऊर्जा का पूरी तरह विकास कर लिया है, वह अंततः इसे अच्छे या बुरे प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल कर सकता है। मैं आज जो कह रहा हूँ वह जरूरी नहीं है कि भविष्य के लोगों पर बंधन होगा, लेकिन मुझे आशा है कि हम इस देश में ऐसा वातावरण बनाएंगे जिससे कोई भी सरकार भविष्य में इसका प्रयोग बुरे प्रयोजनों के लिए नहीं करेगी।’
वह राजनीति में धर्म की दख़ल के खिलाफ थे। निजी जीवन में भी धार्मिक अनुष्ठानों में उनका भरोसा नहीं था। 21 जून 1954 को उन्होंने अपनी वसीयत लिखी और उसमें इच्छा जाहिर की, ’मैं पूरी ईमानदारी से घोषित करता हूँ कि मैं नहीं चाहता कि मेरी मृत्यु के बाद किसी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान किया जाए। मैं ऐसे किसी अनुष्ठान में विश्वास नहीं करता। अतः मेरी मृत्यु के बाद ऐसा करना पाखंड होगा तथा स्वयं और अन्य लोगों को धोखा देना होगा। यदि मेरी मृत्यु विदेश में हो तो वहीं दाह संस्कार कर दिया जाए। एक मुठ्ठी राख गंगा में प्रवाहित कर दी जाए। इसका कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं हैं और न ही इसके पीछे ऐसी कोई भावना है। मैं बचपन से ही इलाहाबाद में पला-बढ़ा हूँ। स्वाभाविक रूप से गंगा-यमुना से मेरा लगाव है।’ यह भी लिखा कि राख का कोई हिस्सा संरक्षित न रखा जाए। उसे आसमान से देश की धरती जिस पर मैं जन्मा उस पर बिखेर दिया जाए। 27 मई 1964 को उनका दुःखद निधन हुआ। दाह संस्कार में उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों की भले मनाही की हो लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हुआ। विमान से काशी के पंडित दिल्ली बुलाये गए। गंगा जल भी लाया गया। पूरे विधि विधान से पंडितों ने उनका अंतिम संस्कार और बाद की क्रियाएं सम्पन्न कराईं। संजय गांधी ने अपने नाना को मुखाग्नि दी थी। अपनी वसीयत लिखने के एक दशक बाद तक वह जीवित रहे। क्या अपने आखिरी दिनों में उनका धर्म और उसके अनुष्ठानों के प्रति झुकाव हो गया था? उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगी गुलजारी लाल नंदा का कहना था कि पंडितजी की सहमति से उनकी लम्बी उम्र के लिए महामृत्युंजय मंत्र का सवा चार लाख बार जाप कराया गया था। इस जाप के दौरान कई अवसर पर वह स्वयं भी उपस्थित रहे। उनके एक अन्य मंत्री साथी टी.टी. कृष्णामचारी का भी यही कहना था कि अपने अंतिम दिनों में पंडितजी काफी धार्मिक हो गए थे। उनकी मृत्यु के समय उनके बिस्तर के पास गीता और उपनिषदों की प्रतियाँ रखी हुई थीं। देश की जनता का उनको बेपनाह प्यार और विश्वास प्राप्त हुआ। उनकी अंतिम यात्रा उनके सपनों के भारत का प्रतिनिधित्व कर रही थी। इसमें उमड़े जनसमुद्र की हर आँख नम थी। वैचारिक भिन्नता और असहमतियों के बीच लोकतंत्र की सेहत के लिए पंडितजी विपक्ष को मजबूत देखना चाहते थे। संघ-जनसंघ की विचारधारा से उनका जीवनपर्यन्त सतत संघर्ष चला। लेकिन उस धारा के प्रतिनिधि चेहरे अटल बिहारी बाजपेयी ने पंडितजी के निधन के बाद सदन में श्रद्धांजलि देते हुए जो विचार व्यक्त किये वह लोकतंत्र की खूबसूरती का नायाब नमूना हैं। इतिहास की अनमोल धरोहर हैं।
अटल जी ने कहा था, ’एक सपना खत्म हो गया है, एक गीत खामोश हो गया है, एक लौ हमेशा के लिए बुझ गई है। यह एक ऐसा सपना था, जिसमे भुखमरी, भय डर नहीं था, यह ऐसा गीत था जिसमे गीता की गूंज थी तो गुलाब की महक थी। यह चिराग की ऐसी लौ थी जो पूरी रात जलती थी, हर अंधेरे का इसने सामना किया, इसने हमे रास्ता दिखाया और एक सुबह निर्वाण की प्राप्ति कर ली।’ ’मृत्यु निश्चित है, शरीर नश्वर है। वह सुनहरा शरीर जिसे कल हमने चिता के हवाले किया उसे तो खत्म होना ही था, लेकिन क्या मौत को भी इतना धीरे से आना था, जब दोस्त सो रहे थे, गार्ड भी झपकी ले रहे थे, हमसे हमारे जीवन के अमूल्य तोहफे को लूट लिया गया। आज भारत माता दुखी हैं, उन्होंने अपने सबसे कीमती सपूत खो दिया। मानवता आज दुखी है, उसने अपना सेवक खो दिया। शांति बेचैन है, उसने अपना संरक्षक खो दिया। आम आदमी ने अपनी आंखों की रोशनी खो दी है, पर्दा नीचे गिर गया है। मुख्य किरदार ने दुनिया के रंगमंच से अपनी आखिरी विदाई ले ली है। ’रामायण में महर्षि बाल्मीकि ने भगवान राम के बारे में कहा था कि वह असंभव को साथ लेकर आए थे। पंडित जी के जीवन में हमने उस महान कवि की झलक को देखा है। वह शांति के साधक थे तो साथ ही क्रांति के अग्रदूत भी थे। वह अहिंसा के भी साधक थे, लेकिन हथियारों की वकालत की और देश की आजादी और प्रतिष्ठा की रक्षा की। वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक थे, साथ ही आर्थिक समानता के पक्षधर थे। वह किसी से भी समझौता करने से नहीं डरते थे, लेकिन उन्होंने किसी के भय से समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन को लेकर उनकी नीति जबरदस्त मिश्रण का उदाहरण थी। यह एक तरफ सहज थी तो दूसरी तरफ दृढ़ भी थी। यह दुर्भाग्य है कि उनकी सहजता को कमजोरी समझा गया, लेकिन कुछ लोगों को पता था कि वह कितने दृढ़ थे।
’मुझे याद है मैंने उन्हें एक दिन काफी नाराज होते हुए देखा था, जबकि उनके दोस्त चीन ने सीमा पर तनाव को बढ़ा दिया था। उस वक्त चीन भारत पर पाकिस्तान के साथ कश्मीर के मुद्दे पर समझौता करने के लिए मजबूर कर रहा था। लेकिन जब उन्हें बताया गया कि उन्हें दो तरफ से लड़ाई लड़नी पड़ेगी तो वह समझौते के बिल्कुल भी पक्ष में नहीं थे। नेहरू जिस आजादी के समर्थक थे वह आज खतरे में है। हमे उसे बचाना होगा। जिस राष्ट्रीय एकता और सम्मान के वह पक्षधर थे वह आज खतरे में है। हमे इसे किसी भी कीमत पर बचाना होगा। जिस भारतीय लोकतंत्र को उन्होंने स्थापित किया, उसका भी भविष्य खतरे में है। हमें अपनी एकजुटता, अनुशासन, आत्मविश्वास से एक बार फिर से लोकतंत्र को सफल बनाना होगा।

(लेखक अधिवक्ता व सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं।)

हमारी अन्य खबरों को पढ़ने के लिए www.hindustandailynews.com पर क्लिक करें।

कलमकारों से ..

तेजी से उभरते न्यूज पोर्टल www.hindustandailynews.com पर प्रकाशन के इच्छुक कविता, कहानियां, महिला जगत, युवा कोना, सम सामयिक विषयों, राजनीति, धर्म-कर्म, साहित्य एवं संस्कृति, मनोरंजन, स्वास्थ्य, विज्ञान एवं तकनीक इत्यादि विषयों पर लेखन करने वाले महानुभाव अपनी मौलिक रचनाएं एक पासपोर्ट आकार के छाया चित्र के साथ मंगल फाण्ट में टाइप करके हमें प्रकाशनार्थ प्रेषित कर सकते हैं। हम उन्हें स्थान देने का पूरा प्रयास करेंगे :
जानकी शरण द्विवेदी
सम्पादक
E-Mail : jsdwivedi68@gmail.com

error: Content is protected !!