गौरैया हमारी सबसे अच्छी दोस्त

प्रभुनाथ शुक्ल

हमारी सोच अब आहिस्ता-आहिस्ता बदलने लगी है। हम प्रकृति और जीव जंतुओं के प्रति थोड़ा मित्रवत भाव रखने लगे हैं। घर की टैरिश पर पक्षियों के लिए दाना-पानी डालने लगे हैं। गौरैया से हम फ्रेंडली हो चले हैं। किचन गार्डन और घर की बालकनी में कृतिम घोंसला लगाने लगे। गौरैया धीरे हमारे आसपास आने लगी है। उसकी चीं-चीं की आवाज हमारे घर आंगन में सुनाई पड़ने लगी है। गौरैया संरक्षण को लेकर ग्लोबल स्तर पर बदलाव आया है यह सुखद है। फिर भी अभी यह नाकाफी है। हमें प्रकृति से संतुलन बनाना चाहिए। हम प्रकृति और पशु -पक्षियों के साथ मिलकर एक सुंदर प्राकृतिक वातावरण तैयार कर सकते हैं। जिन पशु-पक्षियों को हम अनुपयोगी समझते हैं, वह हमारे लिए प्राकृतिक पर्यावरण को संरक्षित करने में अच्छी खासी भूमिका निभाते हैं, लेकिन हमें इसका ज्ञान नहीं होता। गौरैया हमारी प्राकृतिक मित्र है और पर्यावरण में सहायक है।

गौरैया प्राकृतिक सहचरी है। कभी वह नीम के पेड़ के नीचे फुदकती और चावल या अनाज के दाने को चुगती है। कभी घर की दीवार पर लगे आईने पर अपनी हमशक्ल पर चोंच मारती दिख जाती है। एक वक्त था जब बबूल के पेड़ पर सैकड़ों की संख्या में घोंसले लटके होते थे, लेकिन वक्त के साथ गौरैया एक कहानी बन गई। हालांकि पर्यावरण के प्रति जागरुकता के चलते हाल के सालों में यह दिखाई देने लगी है। गौरैया इंसान की सच्ची दोस्त भी है और पर्यावरण संरक्षण में उसकी खासी भूमिका भी है। दुनिया भर में 20 मार्च गौरैया संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गौरैया संरक्षण को लेकर अच्छी पहल की है। वो राज्यसभा सदस्य बृजलाल के प्रयासों को ट्वीटर पर साझा कर चुके हैं। बृजलाल ने अपने घर पर गौरैया संरक्षण को लेकर काफी अच्छे उपाय किए हैं। उन्होंने गौरैया के लिए दाना पानी और घोंसले की व्यवस्था की है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् मोहम्मद ई. दिलावर के प्रयासों से 20 मार्च को चुलबुली गौरैया के लिए रखा गया। 2010 में पहली बार यह दुनिया में मनाया गया।

दुनिया के शहरी हिस्सों में इसकी छह प्रजातियां पायी जाती हैं, जिसमें हाउस स्पैरो, स्पेनिश, सिंउ स्पैरो, रसेट, डेड और टी स्पैरो शामिल हैं। यह यूरोप, एशिया के साथ अफ्रीका, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के अधिकतर हिस्सों में मिलती है। गौरैया घास के बीजों को अपने भोजन के रूप में अधिक पसंद करती है। इस पक्षी को बचाने के लिए सरकार के स्तर पर खास पहल होनी चाहिए। दुनिया भर के पर्यावरणविद् इसकी घटती आबादी पर चिंता जाहिर कर चुके हैं। बढ़ती आबादी के कारण जंगलों का सफाया हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में पेड़ काटे जा रहे हैं। ग्रामीण और शहरी इलाकों में बाग-बगीचे खत्म हो रहे हैं। इसका सीधा असर इन पर दिख रहा है।

गांवों में अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं। इस कारण गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल रही है। पहले गांवों में कच्चे मकान बनाए जाते थे। उसमें लकड़ी और दूसरी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता था। कच्चे मकान गौरैया के लिए प्राकृतिक वातावरण और तापमान के लिहाज से अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराते थे। यह पक्षी अधिक तापमान में नहीं रह सकता। गगनचुम्बी इमारतें और संचार क्रांति इनके लिए अभिशाप बन गई। शहर से लेकर गांवों तक मोबाइल टावर एवं उससे निकलते रेडिएशन से इनकी जिंदगी संकट में है।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् मोहम्मद ई. दिलावर नासिक से हैं और वह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े रहे हैं। उन्होंने यह मुहिम 2008 से शुरू की थी। आज यह दुनिया के 50 से अधिक मुल्कों तक पहुंच गई है। दिलावर के विचार में गौरैया संरक्षण के लिए लकड़ी के बुरादे से छोटे-छोटे घर बनाए जाएं और उसमें खाने की भी सुविधा भी उपलब्ध हो। घोंसले सुरक्षित स्थान पर हों, जिससे गौरैयों के अंडों और चूजों को हिंसक पक्षी और जानवर शिकार न बना सकें। सिर्फ सरकार के भरोसे हम गौरैया को नहीं बचा सकते।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

error: Content is protected !!