कृपालु होता है गुरु

वीर विक्रम बहादुर मिश्र

बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन पंक्तियों के माध्यम से गुरु वंदना की और हमारे गुरु तत्व का परिचय भी प्रस्तुत किया। गुरु के परिचय में उन्होंने दो शब्द ’कृपासिंधु’ और ’नररूप हरि’ कहा। तात्पर्य यह है कि गुरु कृपालु हैं और नर रूप में ही नारायण हैं। गुरु कभी क्रोध भी करते हैं तो इसके पीछे शिष्य के प्रति उनकी कृपा छिपी होती है। लोमष ऋषि ने भुशुण्डि शर्मा को जब कौवा बन जाने का शाप दिया ’सठ स्वपक्ष तव हृदय विशाला, सफदि होहु पक्षी चंडाला’ तो उन्होंने इसे उनकी कृपा के रूप में ही स्वीकार किया। उन्होंने सोचा कि मैं जिस सगुण ब्रह्म का दर्शन की अभिलाषा लेकर आया था, उसकी पूर्ति अब सरल हो गयी। कौवे के रूप में अब मैं राजा दशरथ के महल की मुंडेर पर जाकर बैठूंगा और ठुमकते चलते बालक राम का बेरोकटोक दर्शन करूंगा। गुरु की कृपा का अनुभव कर वे गदगद हो गये। गुरु के क्रोध में जब इतनी कृपा छिपी रहती है, तो उसके प्रेम में कृपा का कितना विशाल समुद्र लहराता है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। रुद्राष्टक प्रसंग में गुरु की अवमानना से रुष्ट शंकर ने शिष्य को जब अजगर हो जाने का शाप दिया, तो द्रवित गुरु ने शिष्य को मिले शाप के निफल हो जाने के लिए शंकर से प्रार्थना ’नमामीशमीशान निर्वाणरूपं’ की। गुरु के लिए दूसरा शब्द गोस्वामी जी ने दिया ’नररूप हरि’। तात्पर्य है कि गुरु मनुष्य रूप में परमेश्वर ही विराजमान होते हैं। परंतु नर रूप में हरि की पहचान कैसे हो, इसके लिए गोस्वामी जी ने कहा कि गुरु भले मनुष्य रूप में हो, पर उसकी पहचान उसके शरीर से न होकर उसकी वाणी से हो। ’महा मोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर’। तात्पर्य है कि जैसे सूर्य की किरणें अंधेरे को समाप्त कर देती हैं, वैसे गुरु की वाणी भी ऐसी हो। शिष्य के अंतर्मन में व्याप्त संशय के अंधेरे को नष्ट करने वाली हो।
कबीर दास ने कहा कि
’बोलत ही पहचानिए साह चोर को वाट।
अंतर की करनी सभै निकरै मुंह की वाट।’
गुरु कोई शरीर नहीं है गुरु विचार है। गुरु के शरीर के रूप में ही देखेंगे तो भ्रमितं होंगे। रावण के समक्ष शंकरावतार हनुमान उसे समझाने गये। हनुमान जी ने कहा कि तुम सतोगुण और रजोगुण अभिमान कायम रखो, पर तमोगुणी अभिमान का परित्याग कर दो और श्री राम की शरण में आ जाओ।
’मोह मूल बहु शूलप्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपासिंधु भगवान।’
रावण ने हनुमान जी की वाणी पर ध्यान न देकर उनके शरीर पर ध्यान दिया। उसे लगा कि मुझ जैसे महान ज्ञानी को यह बंदर ज्ञान दे रहा है। उसने कहा, ‘मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।’ रावण पहचान नहीं पाया। उसने सामने खड़े बंदर को तो देखा, पर बंदर में छिपे शंकर को नहीं देखा। सामने खड़ा व्यक्ति यदि कल्याण की बात कर रहा है, तो सावधान हो जाइए। वह देखने में भले बंदर लग रहा हो, पर वह शंकर हो सकता है। बहुत लोग हैं जो अपने ही दंभ की धुन में अपने ही लोगों की कल्याणमयी भाषा समझ नहीं पाते और अपने ही दंभ के शिकार होते हैं। शरीर की चमक दमक पर ही मोहित मत होइए। शरीर की सत्ता के पीछे छिपा कौन है, इसकी परख रखिये। गुरु शिष्य की समस्याओं का समाधान करता है। वह शिष्य से कोई अपेक्षा नहीं रखता। अपेक्षा रखने वाले गुरुओं पर गोस्वामी जी ने कड़ा प्रहार किया है :
’हरइ शिष्य धन शोक न हरई।
सो गुरु घोर नरक मंह परई।’
आइए परम गुरु भगवान शंकर का स्मरण करें :
’बंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणं
यमाश्रितो हि वक्रोपि चंद्रः सर्वत्र वंदिते’

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