अब नहीं सुनाई देती ‘डाकिया डाक लाया’ की आवाज

संचार क्रांति से उपजे इन्टरनेट के बढ़ते चलन से धीरे-धीरे गांवों से डाकिया की पहचान खत्म होती जा रही है। आधुनिक जमाने के बढ़ते चलन के कारण समाज में डाकिया की उपस्थिति न के बराबर होती जा रही है। 
सूचना संचार के प्रतिदिन बढ़ते क्रांतिकारी कदम के चलते अब गांव की गलियों में खाकी वर्दी में सर पर टोपी लगाए कन्धे पर खादी का झोला लटकाए साईकिल सवार ‘डाकिया डाक लाया’ जैसे शब्दों की आवाज अब सुनने को नहीं मिलता है। एक जमाना था, जब अपने परिवार और रिश्तेदारों का हाल बयां करने के लिए एक मात्र साधन चिट्ठी-पत्री थी। बदलते परिवेश में ग्रामीण अपने पोस्टमैन को पहचानते तक नहीं है। लोग मोबाइल, ई-मेल का सहारा लेने लगे हैं, जो अपनों की खोज खबर लेने का माध्यम बन गया है। कभी दिल की गहराई को छू लेने वाले शब्दों का प्रयोग लोग कई पन्नों में चिट्ठी लिखकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करते थे। इन भावनात्मक चिट्ठियों का स्थान टेलीफोन, इण्टरनेट आदि ने ले लिया। इसकी चाह इतनी बढ़ गई कि पोस्टकार्ड, अन्तर्देशी और लिफाफा को भी लोग भूल गए हैं। मोबाइल युग के लोग अपने चाहने वालों के साथ सीधे मोबाइल से वार्ता व मैसेज कर रहे हैं। पहले गांव के लोग गांव में आए पोस्टमैन से अनायास ही पूंछ लिया करते थे कि क्या मेरी भी कोई चिट्ठी आई है। यह अब बीते जमाने की बात हो गई है। 
संचार क्रांति मे आए विस्तार के कारण पूरी दुनिया सिमट कर रह गई है। सारा काम इण्टरनेट के जरिए बड़ी आसानी से हो रहा है। ग्रामीण बुजुर्ग बताते हैं कि पहले डाकिया द्वारा किसी की चिट्ठी, तार लाने पर लोग खुशी के मारे झूम उठते थे। जमाना बदल गया अब ना वो लोग रहे और ना ही वो डाकिया। पहले पन्नों के आदान-प्रदान के माध्यम से पोस्टकार्ड, ग्रिटींग कार्ड, अन्तर्देशी पत्र से बधाई संदेश भेजने की व्यवस्था थी। जो अब निरन्तर आधुनिकता की चकाचौंध की भेंट चढ़ती जा रही है। चिट्ठी-पत्री की पुरानी परम्परा विलुप्त हो चली है।

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