9 अगस्त : भारत छोड़ो आन्दोलन करो या मरो

राज खन्ना

गांधी जी निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार थे। कांग्रेस वर्किंग कमेटी को उनका संदेश दो टूक था। अगर कांग्रेस उनके प्रस्ताव के साथ नही है, तब वह अकेले ही संघर्ष शुरु करेंगे। 7 जुलाई 1942 को वर्धा में शुरु हुई कमेटी की बैठक हफ़्ते भर चली। दूसरा महायुद्ध चल रहा था। गांधी जी चाहते थे कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने को मजबूर करने के लिए आंदोलन शुरु किया जाए। अंग्रेजों को दबाव में लेने का वह, यह सही समय मान रहे थे। कमेटी इस सवाल पर एक राय नही थी। असहमत नेताओं के अनुसार इससे जर्मनी-जापान के फासिस्ट गठजोड़ के खिलाफ़ मित्र राष्ट्रों की लड़ाई कमजोर होगी। असहमत पक्ष में अध्यक्ष मौलाना आजाद, पण्डित नेहरु, पण्डित गोविंद बल्लभ पंत,सैय्यद महमूद और आसफ़ अली शामिल थे। गांधी जी के अकेले ही आन्दोलन छेड़ने के दृढ़ निश्चय ने वर्किंग कमेटी के सामने मुश्किल खड़ी कर दी। पुनर्विचार हुआ। गांधी जी से लम्बी वार्ता के बाद नेहरु सहमत हुए। कमेटी में गहन विचार-विमर्श के बाद आंदोलन छेड़ने का सर्वसम्मति से फैसला 14 जुलाई को लिया गया। 7 व 8अगस्त को बम्बई में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने इस पर समर्थन की मुहर लगाई। 7 अगस्त को बम्बई में उदघाट्न सत्र में अध्यक्ष मौलाना आजाद ने कहा,“क्रिप्स मिशन की विफ़लता के बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए कहने के अलावा ,कांग्रेस के पास और कोई उपाय नही है।“
1942 में गांधी जी बहुत उद्विग्न थे। स्वभाव के विपरीत तल्ख़ भी। मई 1942 में उन्होंने कहा,“भारत को भगवान के भरोसे छोड़ दीजिए। अगर यह कुछ ज्यादा हो तो उसे अराजकता के भरोसे छोड़ दीजिए। यह व्यवस्थित और अनुशासित अराजकता समाप्त होनी चाहिए और अगर पूरी बदअमनी फैलती है, तो उसका जोखिम उठाने को मैं तैयार हूँ।“ जुलाई में वर्किंग कमेटी की बैठक में वह आंदोलन से असहमति के हर स्वर को अनसुना कर चुके थे। आठ अगस्त को ए.आई.सी.सी. बम्बई की बैठक में उनका ऐतिहासिक भाषण हुआ। उन्होंने कहा ,“ आप मर्द हों या औरत। इस क्षण से साम्राज्यवाद की गुलामी से खुद को आजाद समझें। इसकी मैं सलाह नही दे रहा हूँ। यही आजादी का मतलब है। व्यक्ति जब खुद को आजाद मान लेता है, उसी क्षण गुलामी के बन्धन टूट जाते हैं। मैं एक मंत्र दे रहा हूँ। इसे हृदय में लिख लीजिए और हर सांस में इसका आभास होना चाहिए,“ करो या मरो।“ गांधी जी आर-पार की लड़ाई का आह्वान कर रहे थे,“ कुछ भी छिपकर नही करना। इस संघर्ष में कुछ छिपाना पाप है। आजाद व्यक्ति लुक-छिप कर आंदोलन नही करता। इस संघर्ष में बिना डरे हमे खुलकर लड़ना है और गोलियों का सामना करने के लिए छाती खोल देनी है। यह अन्तिम युद्ध निर्णायक युद्ध होगा और इसलिए आजादी छीनें या उसके लिए जान गंवाएं।“ 9 अगस्त 1942 से आंदोलन शुरु हुआ। ठीक 17 साल पहले इसी दिन 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड हुआ था। क्रन्तिकारियों ने रेल से जा रहे सरकारी खजाने को लूटकर ब्रिटिश सत्ता को खुली चुनौती दी थी। कांग्रेस के आंदोलन के समानांतर इन क्रन्तिकारियों ने लगातार कुर्बानियाँ देकर जनता को जगाया था। संघर्ष का जज़्बा पैदा किया था। 1942 के आंदोलन का आह्वान अहिंसा के पुजारी ने किया था। पर संघर्ष के लिए तैयार जमीन में गांधी के रास्ते से असहमत धारा का बहुत बड़ा योगदान शामिल था। इस आंदोलन के कार्यक्रम ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए व्याकुल जनता की सोच के मुताबिक थे। 12 सूत्री कार्यक्रम में गांधी जी के सुपरिचित सत्याग्रह के साथ ही औद्योगिक हड़तालें, रेल रोकने, कर अदायगी बन्द करने, तार काटने और समानान्तर सरकारों की स्थापना जैसी उत्तेजक योजनायें शामिल थी। गांधी जी ने छूट दी,“ अगर नेता गिरफ्तार कर लिए जायें, तो अपनी कार्रवाई का रास्ता खुद तय करें।“ गांधी जी की आशंका सही थी। नौ अगस्त के तड़के गांधी जी सहित कांग्रेस के सभी अग्रणी नेता गिरफ्तार कर लिए गए। दूसरे महायुद्ध में उलझी ब्रिटिश सरकार इस आंदोलन से भड़क गई। युद्ध काल के आपात अधिकारों से लैस सरकार आन्दोलन को हर कीमत पर कुचलने के लिए आमादा थी।
जनरोष भड़क उठा। ये सही में जनान्दोलन था, जिसे अगस्त क्रांति का नाम मिला। सारे फैसले भी जनता के हाथ में थे। सारे प्रतिबंधों और सुरक्षा इंतजामों को धता बताकर अरूणा आसफ़ अली ने बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में 9 अगस्त की सुबह तिरंगा फहराकर ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी। हड़ताल, धरना, प्रदर्शन, वहिष्कार के साथ शहरों से शुरू आंदोलन अगस्त के मध्य में सुदूर गांवों तक पहुंच गया। किसान-मजदूर घरों-खेतों से निकल पड़े। छात्र-युवक सड़को पर थे। छोटे-छोटे बच्चे “ करो या मरो“ और “अंग्रेजों भारत छोड़ो“ के नारे लगाते सड़कों-गलियों में घूम रहे थे। रेलवे स्टेशन, डाकघर, थाने फूंके गए। रेल पटरियाँ काटी गईं। तार-खम्भे उखाड़ फेंके गए। ब्रिटिश सत्ता के प्रतीक चिन्हों पर लोगों का गुस्सा फूटा। अनेक स्थानों पर अपनी सरकारों की स्थापना हुई। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया-ऊषा मेहता ने गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया। उसके प्रसारण ने हलचल मचा दी। गिरफ्तारी के पहले ऊषा ने सभी उपकरण नष्ट कर दिए। वह तीन साल जेल में रहीं लेकिन यंत्रणाओं के बाद भी किसी साथी का नाम नही बताया। जयप्रकाश नारायण और उनके कुछ साथी हजारीबाग जेल से फरार हो गए और भारत-नेपाल सीमा पर छापामार लड़ाई छेड़ी। बर्लिन से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिंद रेडियो का मार्च 1942 से ही प्रसारण शुरु हो चुका था। अरुणा आसफ़ अली की अगुवाई में आंदोलन को उग्र बनाये रखने के लिए देश भर में वालंटियर तैयार किये गए। सुचेता कृपलानी अहिंसक उपायों से आंदोलन के प्रसार में लगी हुईं थी। अंग्रेज इस नागरिक आंदोलन को पूरी सख्ती से कुचलने में लगे थे। जनता से निपटने के लिए पहली बार सेना को सड़कों पर उतार दिया गया। उसकी 57 बटालियनों ने देश के तमाम हिस्सों में दमन चक्र चलाया। इतने गोरे सैनिक भारत कभी नही आये। इन सैनिकों ने तमाम महिलाओं के साथ बदसलूकी और दुराचार किया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को छात्रों से मुक्त कराने के लिए सेना का इस्तेमाल हुआ। अनेक छात्रों की जान गई। बलिया की बागी जनता ने प्रशासन-पुलिस को खदेड़ दिया। मशीनगनों से गोलियाँ बरसाने के बाद अंग्रेज बलिया पर फिर से नियंत्रण पा सके। 16 और 17 अगस्त को दिल्ली में 47 स्थानों पर सेना-पुलिस ने गोलियों चलाईं। उत्तर प्रदेश में 29 स्थानों पर पुलिस-सेना की फायरिंग में 76 जानें गईं। सैकड़ों जख्मी हुए। मैसूर में सिर्फ एक प्रदर्शन में सौ से अधिक लोग शहीद हुए। पटना में एक सरकारी भवन पर तिरंगा फहराने के दौरान आठ छात्रों को गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया गया। लगभग सभी बड़े शहरों में सैकड़ों स्थानों पर सेना-पुलिस ने फायरिंग कर हजारों जानें लीं। सिंध में रेल सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप में किशोर हेमू कालाणी को एक संक्षिप्त मुकदमे के बाद फाँसी पर लटका दिया गया। सैकड़ों लोगों को कोड़े मारे जाने की सजा दी गई। रेल-संचार और अन्य सरकारी संपत्तियों की भरपाई के लिए देश भर में जनता पर सामूहिक जुर्माने ठोंके गए। सेण्ट्रल प्रॉविन्स के चिमूर में थाने पर हमले में चार पुलिस कर्मी मारे गए। इस मामले में चले मुकदमे में 25 लोग फाँसी पर लटका दिए गए और 26 को उम्र कैद की सजा दी गई। कुछ स्थान जहाँ लोग अपनी सरकारें बनाने में सफल हुए, उसमें मिदनापुर भी था। विद्युत वाहिनी ने संघर्ष की शानदार मिसाल पेश की। पुरुष-महिला-बच्चों-बूढ़ों ने मानव श्रृंखला बनाई और वह बढ़ती ही गई। किसी भी प्रकार के दमन के आगे वे नही झुके। बाद में सेना-पुलिस-प्रशासन ने मिदनापुर में काफी जुल्म ढाए। उनके कहर से बचने के लिए मिदनापुर और चौबीस परगना की लगभग तीस हजार आबादी ने एक समुद्री द्वीप में शरण ली। यहाँ उन्हें भारी प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ा। समुद्री तूफान और पानी में सैकड़ों लोग बह गए। बहुत सी मौतें भूख से हुईं। मिदनापुर के हिन्दुस्तानी कलक्टर ने उच्च अधिकारियों को लिखा कि आन्दोलन के मद्देनजर इन्हें कोई सरकारी सहायता नही मिलनी चाहिए। यहाँ तक कि स्वयं सेवी संस्थाओं को भी मदद के लिए उनके बीच नही जाने दिया जाना चाहिए। हुआ भी यही। कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं के अलावा उन तक कोई नही पहुँच पाया। अखबारों पर पूरी तरह सेंसरशिप लागू कर दी गई। गांधी जी के अखबार ’ हरिजन ’ के सभी संस्करणों के प्रकाशन पर रोक लगा दी गई। नेहरू जी के अखबार ’ नेशनल हेराल्ड ’ पर भी यही गुजरी। अखबार ’भारत छोड़ो आंदोलन की कोई खबर नही छाप सकते थे। इन प्रतिबंधों का उल्लंघन करने वाले अखबारों-पत्रकारों पर सरकारी कहर टूटा। पत्रकार के नाते गांधी जी के पुत्र देवदास गांधी आंदोलन पर नजर बनाए हुए थे। कड़ी सेंसरशिप के कारण भारत के बाहर आंदोलन की तीव्रता और उन्हें कुचलने की ब्रिटिश कार्रवाई की खबरें नही पहुंच पा रही थीं। अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को भारत की घटनाओं में गहरी दिलचस्पी थी। देवदास गांधी ने इस आंदोलन पर केंद्रित पुस्तक प्दकपं त्ंअंहमक लिखी। पर सरकार के डर से कोई इसे छापने को तैयार नही था। इण्डियन एक्सप्रेस के मालिक राम नाथ गोयनका ने यह चुनौती स्वीकार की। रात भर में किताब छपी। उसकी ढाई सौ प्रतियाँ तैयार की गईं। अमेरिकी राष्ट्रपति के दिल्ली स्थित विशेष प्रतिनिधि विलियम फिलिप्स के जरिये पुस्तक अमेरिका और दुनिया के अन्य देशों में पहुँची। आन्दोलन में जनता की भागीदारी और उग्रता ने ब्रिटिश सत्ता को हैरान कर दिया। बेशक शहरी आंदोलन को हथियारों के जोर पर जल्दी कुचल दिया गया, लेकिन गांवों में इसे काबू करने में महीनों लगे।
वाइसरॉय लिनलिथगो ने इसे 1857 के बाद का सबसे गम्भीर विद्रोह कहा। कांग्रेस की पूरी की पूरी अगली कतार को जेल में डालकर सरकार ने आन्दोलन को आमतौर पर नेतृत्वविहीन कर दिया। पर सरकार के लिए ये दांव उल्टा और बहुत भारी पड़ा। जनता का रोष इतना प्रबल था कि उसे किसी नेतृत्व, पुकार और कार्यक्रम की जरुरत ही नही थी। नतीजों की फिक्र किये बिना स्थानीय स्तर पर जनता द्वारा फैसले लिए और अमल किये जा रहे थे। सरकार के लिए राहत की बात थी कि जिन्ना की अगुवाई में मुस्लिम लीग खुलकर उसका साथ दे रही थी। जर्मनी-जापान के अंतरराष्ट्रीय फासिस्ट गंठजोड़ के विरोध के नाम पर कम्युनिस्ट भी अंग्रेजों के साथ थे। भारत छोड़ो आन्दोलन ने अंग्रेजों की चूलें हिला दीं। लेकिन इसने मुस्लिम लीग को विस्तार का पूरा मौका दिया। वह अंग्रेजों को दिखाने में सफल रही कि बहुसंख्य मुसलमानों पर लीग की पकड़ है और वही इकलौती उनकी प्रतिनिधि पार्टी है। कांग्रेस नेताओं के जेल में होने के कारण लीग के लिए खाली मैदान था। अंग्रेजों की तरफदारी के जरिये लीग, पाकिस्तान की मांग के प्रति ब्रिटेन को और नरम करने में कामयाब हुई। जेल में बंद गांधी ने फरवरी 1943 में 21 दिनों का अनशन किया। जनता अंग्रेजों से मुक्ति के अलावा और कुछ सुनने के लिए तैयार नही थी। 1944 में रिहाई के बाद गांधी जी ने उन लोगों की भी प्रशंसा की जो आंदोलन के दौरान अहिंसा के रास्ते से भटक गए थे। सतारा की समानांतर सरकार के नेता नाना पाटिल से उन्होंने कहा,“ मैं उन लोगों में से एक हूँ, जो मानते हैं कि वीरों की हिंसा कायरों की अहिंसा से बेहतर होती है।“ भारत छोड़ो आंदोलन ने अंग्रेजों को बता दिया कि फौज-पुलिस की ताकत से बहुत दिनों तक भारतीयों को दबाया नही जा सकता। अंग्रेजों की जल्द विदाई के स्वर होठों पर थे। निकट आती आजादी जनता को रोमांचित कर रही थी।

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