‘जनसत्ता’ में काम न करने वाले नहीं जान सकते अखबार की आजादी का अर्थ

सम्पादकाचार्य प्रभाष जोशी जी के जन्म दिन पर विशेष

हेमंत शर्मा

प्रभाष जी आज होते तो चौरासी बरस के होते। देश की मौजूदा समस्याओं पर उनकी दृष्टि होती। ताकतवर राय होती। वे क्या लिखते यह लिखना मुश्किल है। क्योंकि संतों पर लिखना थोड़ा जोखिम भरा काम है, वजह संत के बारे में आप जितना जानते हैं, उससे कहीं ज्यादा उनके बारे में जानना बाकी रह जाता है। यह अशेष, एक किस्म का रहस्य पैदा करता है। उनका आभामंडल इतना विस्तृत होता है, जिसमें सारा संसार छोटा पड़ जाए। हम दुनियावी लोग उनके सामने सिर्फ श्रद्धा से सिर झुका सकते हैं। प्रभाष जी को मैंने पत्रकारिता के संत के रूप में देखा। अखबार की दुनिया का एक मलंग साधु, जो धूनी रमाए सत्यं शिवं सुन्दरम् के अनुसंधान में लीन था। उनके साधुत्व में एक शिशु सी सरलता थी। उनकी आंखों में आत्मविश्वास के साथ करुणा-स्नेह की गंगा थी। उनके अद्भुत स्पर्श से मुझ जैसों को लुकाठी हाथ में लेकर सच कहने और सच के लिए किसी से मुठभेड़ करने की हिम्मत तथा ताकत मिलती थी। प्रभाष जी कबीर और कुमार गंधर्व के नजदीक किसी और वजह से नहीं, बल्कि अपनी अक्खड़ता और फक्कड़ता के कारण थे। प्रभाष जोशी होने का मतलब उसे ही समझाया जा सकता है, जो गांधी, विनोबा, जय प्रकाश, कबीर, कुमार गंधर्व, सीके नायडू और सचिन तेंदुलकर होने का मतलब जानता हो। मेरे मित्र प्रियदर्शन का कहना है कि प्रभाष जी इन सबसे थोड़ा-थोड़ा मिलकर बने थे। यानी उनमें तेजस्विता, अक्खड़ता, सुर, लय, एकाग्रता और संघर्ष का अद्भुत समावेश था। कुमार गंधर्व की षष्टिपूर्ति पर प्रभाष जी ने लिखा था। उस प्रभाष जोशी के भाग्य से कोई क्या ईर्ष्या करेगा, जिसकी सुबह कुमार जी की भैरवी से, दोपहर आमीर खां की तोड़ी से और शाम सी.के. नायडू के छक्के से होती है। प्रभाष जी अपने गांव देवास के आष्टा से कुछ बनने नहीं निकले थे, गांधी का काम करने घर से निकले थे। रास्ते में विनोबा मिले। अक्षर-पथ पर राहुल बारपुते मिले। कुमार गंधर्व की सोहबत मिली, गुरुजी विष्णु चिंचालकर का साथ मिला और यहीं के होकर रह गए। शब्द और सच के संधान में ‘प्रजानीति’ और ‘सर्वोदय’ से होते हुए उन्हें रामनाथ गोयनका मिले। गोयनका ने उन्हें एक्सप्रेस में बुलाया। और फिर देश व हिंदी समाज ने जाना प्रभाष जोशी होने का मतलब।
पांच नवम्बर 2009 की रात जब राम बहादुर राय जी ने मुझे एक बजे फोन पर बताया कि प्रभाष जी नहीं रहे, तो मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई। सुबह ही उनसे बात की थी। फौरन एम्स पहुँचा तो देखा एंबुलेंस में प्रभाष जी की देह थी। चेहरे पर वही चमक, वैसी ही दृढ़ता, जिसे मैं कोई ढाई दशक से देख रहा था। चश्मे के भीतर से झाँकती उनकी आँखें मानो कहने जा रही हैं, ‘पंडित कुछ करो। जो कर रहे हो, वह पत्रकारिता नहीं है।’ लगा पत्रकारिता में व्यावसायिकता के खिलाफ जंग लड़ते-लड़ते वे थककर आराम कर रहे हैं और कह रहे है… मैं फिर आऊँगा। लड़ाई अभी अधूरी है। प्रभाष जी में ऐसा क्या था, जो उन्हें खास बनाता था। गर्व, हौसला और मुठभेड़। उन्हें अपनी परंपरा पर गौरव था। हिंदी समाज पर गर्व था। वे लगातार हिंदी समाज के सम्मान और उसके लेखक की सार्वजनिक हैसियत के लिए अभियान छेडे़ हुए थे। और मुठभेड़… बिना मुठभेड़ के प्रभाषजी के जीवन में गति और लय नहीं होती थी। अक्सर फोन पर बातचीत में यही कहते कि पंडित आजकल अपनी मुठभेड़ फलाँ से चल रही है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, विश्व हिंदू परिषद्, भाजपा, बाजारी अर्थव्यवस्था या फिर उदारीकरण, कुछ नहीं तो पत्रकारिता में आई गिरावट ही सही। प्रभाष जी हर वक्त किसी-न-किसी से मुठभेड़ की मुद्रा में होते थे। आखिर कौन सी ताकत थी उनमें, जो पूरा देश एक किए होते थे। आज मणिपुर में, कल पटना में, फिर वाराणसी में हर वक्त ढ़ाई पग में पूरा देश नापने की ललक थी उनमें। सोचता हूँ कैसे एक पेसमेकर के भरोसे उन्होंने ढेर सारे मोरचे खोल रखे थे। वे गांधीवादी निडरता के लगभग आखिरी उदाहरण थे। यही वजह थी कि पचीस साल से डायबिटीज, एक बाईपास सर्जरी, एक पेसमेकर के बावजूद प्रतिबद्धता की कलम और संकल्पों का झोला लिये हमेशा यात्रा के लिए तैयार रहते थे। प्रभाष जी का नहीं रहना एक बड़े पत्रकार का नहीं रहना मात्र नहीं है। उनका न रहना मिशनरी पत्रकारिता का अंत है। चिंतन-प्रधान पत्रकारिता का अंत है। सच के लिए लड़ने और अड़ने वाली पत्रकारिता का अंत है। वे पत्रकारिता में वैचारिक-विमर्श लौटाने की कोशिश में लगे रहे। शायद इसी वजह से लोक संस्कृति और साहित्य पर पहली बार ‘जनसत्ता’ में उन्होंने अलग से एक-एक पेज तय किए थे। हमारे लिए ‘जनसत्ता’ सिर्फ अखबार नहीं, पत्रकारिता और समकालीन राजनीति का जीवंत इतिहास है; और प्रभाष जी उसके इतिहासकार। जिसने ‘जनसत्ता’ में काम नहीं किया, उसे नहीं पता अखबार की आजादी का मतलब।
हमें मालूम है कि हर युग में विरोध के अपने खतरे हैं। उन्हें भी मालूम था। उस कद के संपादक की माली हालत आप भी देख सकते हैं। दो मौकों पर उन्होंने राज्यसभा की मेंबरी सिर्फ इसलिए ठुकराई कि उन्होंने विरोध के रास्ते पर चलना मंजूर किया था। कभी सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़ने की रत्ती भर इच्छा नहीं रही। वे कबीर की तरह हमेशा प्रतिपक्ष में रहे। बड़वाह में नर्मदा के किनारे चिता पर प्रभाषजी की देह थी और आकाश में ‘अमर हो’ की गूँज। तब मुझे यही लग रहा था कि इस पाँच फीट दस इंच के शरीर के जरिए आखिर क्या छूट रहा है। पत्रकारिता की एक पूरी पीढ़ी छूट रही है। एक संकल्पबद्ध कलम छूट रही है। वैकल्पिक राजनीति की जमीन तैयार करनेवाला एक विचार छूट रहा है। भाषा को लोक तक पहुँचानेवाला एक शैलीकार छूट रहा है। अदम्य साहस और निडरता से किसी सत्ता प्रतिष्ठान से मुठभेड़ करनेवाला एक योद्धा छूट रहा है। लोक और समाज के गर्भनाल रिश्तों की तलाश करनेवाला एक समाजविज्ञानी छूट रहा है। हम छूट रहे हैं। पत्रकारिता में ‘निर्भय निर्गुण गुण रे गाऊँगा’ की जिद्द छूट रही है। प्रभाषजी अपने पसंदीदा गायक कुमार गंधर्व के इस गीत को ताउम्र सुनकर रीझते रहे। मृत्यु के बाद भी जलती चिता के पास उनके भाई सुभाष और बेटी सोनाल वही भजन उन्हें गाकर सुना रहे थे। उनकी स्मृति को प्रणाम। आज उनका जन्मदिन है।

प्रभाष जोशी-दो

जो लोग प्रभाष जी को नहीं जानते, वे उन्हें वामपंथी, नास्तिक और निरा धर्म-विरोधी मानते हैं। प्रभाष जी अपनी आस्तिकता को छुपाते नहीं थे। परम वैष्णव प्रभाष जी सिर्फ धर्म के पाखंड का विरोध करते थे। जिस साल वे गए उस साल भी श्रावण मास में वैद्यनाथ धाम जा पहले काँवर को देवघर के लिए रवाना करनेवाले प्रभाष जी ही थे। पूरे कुटुंब को इकट्ठा कर वृंदावन में कई दिनों रखना, फिर नाथद्वारा जाना उन्हें अच्छा लगता था। प्रभाष जी का मानना था कि धर्म के जरिए और धर्म में रहकर ही धार्मिक पाखंडियों से लड़ा जा सकता है। धर्म को छोड़कर और हिंदुओं को गाली देकर हम छद्म हिंदुत्व से नहीं निपट सकते। इनसे वामपंथी नहीं लड़ सकते। मालवा के रीजि-रिवाज उनके संस्कार में थे। नर्मदा से उन्हें बेहद प्यार था। नर्मदा उनके दिल में बसी थी। ‘धन्न नरबदा मइया हो’ के लेखक की अंतिम इच्छा भी यही थी कि उनका अंतिम संस्कार नर्मदा के किनारे ही हो। और हुआ भी ऐसा।
प्रभाष जी ने हिंदी अखबारों के लिए कई भाषा गढ़ी, शैली दी सच पूछिए तो वे हिंद अखबारों के शैलीकार थे। भाषा को लोक से जोड़ा। उसकी जड़ता खत्म की। प्रभाष जी ने ‘जनसत्ता’ के जरिए वर्तनी का एक मानक तैयार किया। इससे पहले हिंदी अखबारों के संपादकीय पेज अंग्रेजी का उथला अनुवाद होते थे। जोशी जी ने चलन बदला, उसे तेवर दिया। हिंदी समाज को स्वाभिमान दिया। तब तक हिंदी को झोलाछाप पत्रकारों का कुनबा माना जाता था। ‘सावधान, पुलिया संकीर्ण है’ जैसी मुश्किलों से भरी थी भाषा। प्रभाष जी ने कहा, ‘संकीर्ण पुलिया नहीं, विचार होते हैं।’ पुलिया तो तंग होती है। ‘मृतक साइकिल से जा रहा था’ या ‘लाश तैर रही थी’ जैसी अज्ञानी भाषा की प्रभाष जी ने नब्ज टटोली और बताया कि हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी की पिछलग्गू बनाकर नहीं, बल्कि अपने पैरों पर खड़ा करके ही परवान चढ़ाया जा सकता है। चढ़ाया भी उन्होंने अपनी ताकत भर। उनकी भाषा पर टीका-टिप्पणी करने वाले आज बहुत मिलेंगे, पर सच यह है कि आज हिंदी के हर अखबार के पन्नों पर प्रभाष जी की भाषा की मुहर है। आतंकवादियों के लिए ‘खाड़कू’, फिदायीनों के लिए ‘मरजीवड़े’, भ्रष्ट राजनेताओं के लिए ‘चिरकुट’ शब्दा प्रभाष जी ने गढ़े। इससे पहले अखबारों में शब्द गढ़ने का काम पराड़कर जी ने किया था और यही भाषा जब उनके ‘कागद कारे’ कॉलम के निजी लेखों में प्रवाह बनाती है तो ऐसा लगता है कि कुबेरनाथ राय और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद व्यक्तिव्यंजक निबंधों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। उनकी सृजनात्मकता का अमोघ अस्त्र है उनकी भाषा। नामवर सिंह के शब्दों में.. ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ क्या है इसका अहसास प्रभाष जी को गद्य पढ़ने से होता है। उनका गद्या हाथ कते, हाथ बुने हाथ सिले खादी के परिधानों की तरह और तुलसी के शब्दो में ‘विशद गुनमय फल’ वाल है। जिस अंदाज में प्रभाष जी क्रिकेट पर लिखते थे, उसी रंग में क्या साहित्यिक कृतियों पर लिखा जा सकता है, यह चुनौती है हिंदी गद्यकारों के सामने।
प्रभाष जी ने हमें बताया कि पत्रकारिता करने और करके दिखाने की चीज है। उपदेश देने या सिखाने का नहीं। प्रभाष जी सिर्फ गांधीवादी नहीं थे। उन्होंने गांधी के विचारों को जिया भी था। इससे मिलने वाले नैतिक बल ने ही उन्हें इंदिरा गांधी जैसी के सबसे ताकतवर सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ डटे रहने की हिम्मत दी। अखबारी आजादी के जितने वे कायल थे, उतने ही अखबारों में घुसे भ्रष्टाचार के खिलाफ भी वे उसी ताकत से लड़ते थे। खासकर तब जब आर्थिक उदारीकरण के बाजार ने उसे डसा। खबरों को लकवा लगा। खबरें बचने और खरीदने का तंत्र विकसित हुआ। प्रभाष जी ने हिंदी अखबारों में पैसे लेकर खबर छापने के खिलाफ मोर्चा खोला। कहा, पत्रकारिता बचेगी तो देश चलेगा। पहले पत्रकारिता को तो बचा लें। इसलिए अभी राजनेताओं से निपटने से पहले उनसे मुठभेड़ जरूरी है। मृत्यु से एक रोज पहले लखनऊ-बनारस की जिस यात्रा से वे लौटे थे, वह इसी अभियान का हिस्सा थी। चुनावी खबरों को पैकेज की तर्ज पर बेचने के खिलाफ हरियाणा, महाराष्ट्र और अरुणाचल में उन्होंने निगरानी कमेटियां बनाई थीं।
प्रभाष जी कहते थे, ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’। ऐसा अकबर इलाहाबादी ने कहा था। आज लोग तोप का मुकाबला करने के लिए अखबार नहीं निकालते, बल्कि पैसा और पव्वा कमाने के लिए अखबार निकालते हैं। इसलिए खबर छापने के एवज में पैसे माँगने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। अपन ऐसी पत्रकारिता करने नहीं आए हैं। आजादी के बाद दो दशक तक यह लगता था कि पत्रकारिता समाज बदलने और समतावादी, न्याय आधारित समाज बनाने का जरिया है। आज ऐसी बातें करें तो लोग हँसने लगते हैं। आज पत्रकारिता में जो प्रवृत्ति आप देख रहे हैं, वह मनमोहन सिंह के उदार आर्थिक व्यवस्था लाने के बाद की है। मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि आजकल के बोनसाई संपादकों की जमात के मुकाबले वे अकेले और अंतिम संपादक थे। पत्रकारिता को सरोकारों से जोड़ना, मुद्दों पर तनकर और डटकर खड़े होनेवाले जिनके हाथ में कलम, पैर में परंपरा, दिल में गांधी और कबीर और दिमाग में भ्रष्ट तंत्र और धार्मिक पाखंड के खिलाफ जूझने के औजार गढ़ने का सामर्थ्य था। संपादक तो बहुत हुए, पर कोई बता दे ऐसा संपादक जिसने हिंदी पत्रकारिता को पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी दी। इस पीढ़ी को उन्होंने अपने हाथों गढ़ा, चलना सिखाया, अड़ना सिखाया और सरोकारों से जुड़ने का मकसद दिया। लोगों के बीच जाकर संवाद कायम किया। नर्मदा बचाने का सवाल हो या सूचना पाने का अधिकार हो या फिर खबरों की खरीद-फरोख्त का मामला.. प्रभाष जी इस लड़ाई में सबसे आगे रहे। हालांकि उनकी यह जिद ‘प्रोफेशनल’ लोगों को रास नहीं आई। खासकर पूँजीपतियों के सलाहकार टाइप संपादकों को, जो सुविधाओं के झूले में झूलते-झूलते वैचारिक नपुंसकता को प्राप्त कर गए। हालांकि ये लोग भूल जाते हैं कि प्रभाष जी अपने वक्त में अखबार मालिकों के प्रिय व करीबी रहे। चाहे वे ‘नई दुनिया’ के राहुल बारपुते हों या ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के रामनाथ गोयनका। लेकिन उन्होंने कभी अपने संपादक पर इन अखबार मालिकों को सवार नहीं होने दिया। जो गोयनका अपने संपादकों को ताश के पत्तों की तह फेंटने के लिए कुख्यात थे, गालियों से बात करने के अभ्यस्त थे, वे भी प्रभाष जी से शराफत से पोश आते थे। वे अखबारों में दखल नहीं देते थे। अखबार मालिकों को काबू करने के लिए जोशी जी के औजार और थे। उनमें विनोबा और जय प्रकाश के साथ काम कर आग में तपने का अभ्यास था। अब वे औजार सुविधा और चाटुकारिता के हैं। हमने अपने जमाने के कई संपादक देखे। पर जोशी जी जितना ताकतवर संपादक हिन्दी और अंग्रेजी में नहीं हुआ। उनके सामने प्रबंधन तो झुकता ही था, पाठक भी न्यौछावर थे। कितने अखबार और संपादक इतने सौभाग्यशाली होंगे जो अखबार छापने के चंद दिनों बाद ही पाठकों से निहोरा करें कि अब अखबार खरीदकर नहीं। मिल-बांटकर पढ़ी, क्योंकि हमारी मशीन इससे ज्यादा अखबार छाप नहीं रही है। खास बात यह है कि तब तक पत्रकारिता में बाजार दस्तक दे चुका था और विज्ञापनों में अखबारों की प्रसार संख्या का महत्त्व था। ऐसे में जोशी जी पाठकों को निहोरा कर रहे थे कि ‘जनसत्ता’ खरीदकर नहीं बल्कि मांगकर पढ़िए।
सिर्फ प्रसार नहीं बल्कि संपादकीया तेवर में भी जोशी जी ने मानक गढ़े। कहने में फख्र और अफसोस दोनों हैं कि इसे कोई लाँघ नहीं पाया। प्रशासनिक मामलों में जोशीजी जितने अड़ियल थे, संपादकीय लिहाज से उतने ही ज्यादा प्रजातांत्रिक थे। तमाम असहमति के बावजूद वे न रिपार्टर को टोकते थे और न ही खबर को रोकते थे। रामजन्म भूमि के सवाल पर उनसे मेरी असहमति थी। पर कभी मेेरी रिपार्ट रोकने की कौन कहे, उसे संपादित भी नहीं किया गया। यह दूसरी बात थी कि जोशीजी ने हमारी रिपार्टोंसे अलग लाइन ली और अपने संपादकीय लेखों में उसे खारिज किया। लेकिन रिपार्ट रुकी नहीं। है कोई ऐसा संपादक? ऐसा अकेला संपादक मैंने उन्हें पाया। जो सुबह आकर एडिटोरयिल मीटिंग में पहला सवाल यही पूछता था कि फलाँ खबर पर बाईलाइन (रिपोर्टर का नाम) क्यों नहीं गई या फलां खबर अंडर प्ले क्यों हुई। रिपोर्टर को अपनी भुजा मानने वाले प्रभाष जी से अगर कोई यह शिकायत कर दे कि फलां रिपोर्टर मुझे ब्लैकमेल कर रहा है तो वे पलटकर पूछते…रिपोर्टर को तो मैं देख लूँगा, पर पहले आप बताएं कि आप ब्लैकमेल क्यों हो रहे हैं? जोशी जी पत्रकारिता की पवित्रता को बनाए रखने की लड़ाई लढ़ रहे थे। लड़ाई तो शुरू हुई थी। बाजार के राक्षस से उनकी मुठभेड़ चलनी थी। प्रभाषजी ने जेपी के साथ एक वक्त पर डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया था। लेकिन यह बात और है कि इस बार उनकी लड़ाई जिससे शुरू हुई, वे डाकू जरा ज्यादा बड़े और खतरनाक थे। उनके असमय अवसान से इस मुठभेड़ का क्या होगा?

संपादक प्रभाष जोशी

अयोध्या का जिक्र किए बिना प्रभाष जोशी को नहीं समझा जा सकता है। अयोध्या कांड से देश की राजनीति ने करवट बदली। साथ ही प्रभाष जी की लेखनी और व्यक्तित्व ने भी। अयोध्या मामले से दो बातें साफ होती हैं। प्रभाष जी लिखने की आजादी के किस हद तक पक्षधर रहे। क्या कोई संपादक संपादकीय लेखों और खबरों में अलग-अलग लाइन की छूट दे सकता ह़ै दूसरी बात यह कि भगवा बिग्रेड से प्रभाष जी आखिर क्यों नाराज हो गए और अंत तक भगवा बिग्रेड को ललकारते रहे। यह अब तक लोगों के लिए अबूझ पहेली है। इस बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित हैं कि जो प्रभाष जोशी संघ परिवार और नरसिंह राव के बीच अयोध्या मामले में बातचीत का हिस्सा थे, वे आखिर क्यों संघ परिवार पर फट पड़े? आखिर ऐसा क्या हो गया कि जो जमात कल तक सती प्रथा पर सिर्फ एक लेख लिखने की वजह से प्रभाष जी को पोंगापंथी कहने लगी थी, वहीं रातों रात प्रभाष जी को अपने पाले में ले उड़े। इन सवालों का खुलासा राजनीति का अयोध्या कांड करता है।
6 दिसंबर, 92 को जब मैंने अयोध्या के एक पी.सी.ओ से प्रभाष जी को बाबरी ध्वंस की जानकारी देने के लिए फोन किया तो राम बाबू ने कहा, “संपादक जी आपको ढूँढ़ रहे हैं।” मैंने उन्हें बाबरी ध्वंस की पूरी कहानी बताई। प्रभाष जी रोने लगे। कुछ देर चुप रहे। फिर कहा, “यह धोखा है, छल है, कपट है। यह विश्वासघात हे। यह हमारा धर्म नहीं है। अब हम इन लोगों से निपटेंगे।” प्रभाष जी विचलित थे। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था और मैं दोपहर बारह बजे से शाम पाँच बजे तक ध्वंस का पूरा हाल पांच मिनट में उन्हें सुनाने की रिपोर्टरी उत्तेजना में था। दूसरे रोज प्रभाष जी ने लिखा, “राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीति पर कालिख पोत दी। बाबरी ढांचे को विश्वासघात से गिरा दिया और लोग समझते हैं कि वे इस तरह राम का मंदिर बनाएंगे, वे राम को मानते-जानते और समझते नहीं हैं। ढांचा गिराते वक्त रामलला की मूर्तियां बाहर ले जाना और फिर चुपचाप लाकर अस्थायी मंदिर में रख देना, इस बात का प्रमाण है कि यह सब पूर्व योजना के अनुसार हुआ था। यह सफेद झूठ है कि ढाँचे का ढहना हिंदू भावनाओं का विस्फोट है। इसे ढहाने में कोई तात्कालिकता नहीं थी। न हड़बड़ी थी।”
उनका मानना था कि ये हिंदुत्ववादी धर्म से कोसों दूर हैं। इन्होंने धर्म की मर्यादा, सहिष्णुता, वैष्णवता और उदारता को ध्वस्त किया है। शायद इसलिए वे जनाक्रोश के उभार के बावजूद हिंद के अकेले संपादक थे, जिन्होंने अपना अलग ‘स्टैंड’ लिया। बाकी हिंदी अखबार कारसेवा में बह गए। यह बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि प्रभाष जी ध्वंस से किस कदर दुःखी थे और खुद को ठगा हुआ समझ रहे थे, बावजूद इसके उन्होंने खबरों को लिखने की आजादी नहीं छोड़ी। और न ही कोई फतवा जारी किया। उन्होंने संपादकीय सहयोगियों से साफ कहा, “मैंने एक लाइन ली है। पर इसे खबरों की लाइन न समझा जाए।” दुर्भाग्यवश प्रभाष जी के बाद के संपादक इसे समझ नहीं पाए। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि अयोध्या से भेजी जाने वाली खबरों में मैं प्रभाष जी से उलट लाइन ले रहा था। क्योंकि जमीनी उत्साह और जन आक्रोश का मुझ पर प्रभाव था। फिर विहिप ने मुस्लिम तुष्टीकरण के सवाल पर देश-भर में जो आंदोलन खड़ा किया था, उसका आधार इतना व्यापक था कि मैं उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।
नतीजतन प्रभाष जी ने मुझे रामभक्त पत्रकार घोषित कर दिया। उसी अखबार में अपने लेखों में मुझे इस नाम से संबोधित किया। मेरी खबरों को खारिज करते हुए संपादकीय लिखे। एक उदाहरण कार्तिक पूर्णिमा पर विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में संकल्प का आयोजन रखा। मैंने रपट लिखी। ‘आज पांच लाख लोगों ने सरयू तट पर डुबकी लगाई ओर मंदिर निर्माण का संकल्प लिया’ आदि-आदि। मेरी यह खबर पहले पेज पर छपी। दूसरे दिन प्रभाष जी को लेख छपता है कि मेरे रामभक्त पत्रकार ने लिखा है कि कल अयोध्या में पांच लाख लोगों ने सरयू तट के किनारे मंदिर निर्माण का संकल्प लिया। मैं उन्हें बता दूँ कि अयोध्या में कार्तिक पूर्णिमा के रोज डुबकी लगाने वाले सभी लोग विहिप के सदस्य नहीं है। अयोध्या में कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान की यह परंपरा तब से चल रही है जब विहिप, संघ और उनके संस्थापकों का जन्म भी नहीं हुआ था। डुबकी का यह सिलसिला हमरी अनंत परंपरा में है। ऐसे कम-से-कम दस अवसर होंगे जब प्रभाष जी ने मुझे अपने लेखों के जरिए सचेत किया। लेकिन मेरी रिपोर्ट ‘किल’ कभी नहीं की। यह आजादी उन्होंने मुझे दी। बाद के किसी संपादक से मुझे ऐसी आजादी नहीं मिली। मैं पूरे आंदोलन में प्रभाष जी की संपादकीय लाइन के खिलाफ था। प्रभाष जी चाहते तो हिंदी संपादकों की आज की परंपरा के तहत मुझे ही लाइन पर ले सकते थे। उनके पास चार विकल्प थे। एक.. प्रधान संपादक के नाते वे मेरी खबरों को संपादित कराते। वह अंश निकाले जाते जिन पर उन्हें एतराज होता। दो..फिर भी नहीं मानता, तो मेरी खबरें किल होती। जैसा बाद में एक संपादक ने राम बहादुर राय की कई रपटों के साथ किया। तीन..हेमंत शर्मा चेत जाओ, नहीं चलेगी तुम्हारी अराजकता। यह ममो मिलता। और चार..मुझे नमस्कार कर घर बैठने को कहा जा सकता था। संपादकों का उत्तर प्रभाष जोशी परंपरा में चौथा विकल्प आजकल सबसे आसान है। आप कह सकते हैं, यह अराजक आजादी थी। पर थी। इसी आजादी ने ‘जनसत्ता’ का चरित्र बनाया था।
अपने रिपोर्टरों को ऐसी आजादी कौन देता है? कौन संपादक है आज, जो अपने रिपोर्टर के पीछे मजबूती से खड़ा हो। और मुद्दों पर उनके सामने उसी मजबूती से अड़ा हो। प्रभाष जी ने कभी भी रिपोर्ट इसलिए नहीं रोकी कि रिपोर्ट संपादक को पसंद नहीं है। या इस रिपोर्ट से कोई राजनेता नाराज होगा या फिर फलां आदमी संपादक का मित्र है। अब बात अयोध्या पर प्रभाष जोशी के बिफरने की। यह बहुत कम लोगों को पता है कि प्रभाष जी सरकार और संघ के बीच अयोध्या पर हो रही बातचीत का हिस्सा थे। कोई बीच का रास्ता निकले, सहमति बने, इस कोशिश में वे ईमानदारी से लगे थे। वे नरसिंह राव और रज्जू भैया के बीच होने वाली बातचीत में भी शामिल थे। होने वाली हर बातचीत में कुछ बातें साफ थीं। ढाँचा गिराया नहीं जाएगा और सहमति बनने तक विवादित स्थल के बाहर कारसेवा की इजाजत दी जाएगी। लेकिन प्रभाष जी को विहिप की नीयत में खोट जुलाई में ही दिखने लगा। 9 जुलाई से ढाँचे के सामने जिस चबूतरे पर कारसेवा होनी थी उसके बारे में ‘जनसत्ता’ पहला अखबार था, जिसने लिखा कि कोर्ट के आदेशों को ठेंगा दिखकार होगी कारसेवा। दूसरे रोज आठ जुलाई को फिर खबर दी.. झूठ और फरेब पर बनेगा मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मंदिर’। इसी रिपोर्ट के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 15 जुलाई को कारसेवा रोक दी। बावजूद इसके प्रभाष जी मुझे रामभक्त कहते रहे। मैंने कभी उनसे इसकी शिकायत भी नहीं की। यहीं से प्रभाष जी ने अपनी लाइन बदली।
इसी खुन्नस में चम्पुओं ने बाद में प्रचार शुरू किया कि उन्हें राज्यसभा में नहीं भेजा, इसलिए प्रभाषजी नाराज हैं। उन्हें यह पता ही नहीं कि जब 1989 में वी.पी. सिंह ने सरकार बनाई तो प्रभाष जी को राज्ससभा में भेजने का प्रस्ताव हुआ था। लेकिन प्रभाष जी को उस रास्ते नहीं जाना था। सो वे नहीं गए। प्रभाष जी जे.पी. के सहयोगी रहे हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और नरसिंह राव जैसे प्रधानमंत्रियों से उनकी मित्रता रही है। उनके लिए यह मामूली चीज थी। पर राजनीति उन्हें भायी नहीं। 1998 के सितंबर में मैं प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से सात रेसकोर्स पर मिला। मैं लखनऊ से आता था। अटल जी, कल्याण सिंह में रुचि रखते थे, इसलिए मेरी उनसे लगभग हर दिल्ली यात्रा में बात होती थी। इस बार अटल जी ने यकायक कहा, ‘प्रभाष जी को क्या हो गया है’ इस पर मैंने कहा कि आपके ही लोग तो कह रहे हैं कि उन्हें राज्यसभा में नहीं भेजा। अटल जी ने छूटते ही कहा कि मैं यह नहीं मानता। प्रभाष जी इससे ऊपर हैं। मैं उनकी तकलीफ समझता हूँ। लेकिन उनकी भाषा से सहमत नहीं हूँ। मैं इस प्रसंग का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि अटल जी भी इस प्रचार की असलियत समझते थे। दरअसल, बाबरी मस्जिद प्रभाष जी की नजरों में सिर्फ भारतीय मुसलमानों की ऐतिहासिक और अतिक्रमित धर्मस्थली नहीं थी। वह उनके लिए हिंदुओं की धर्म-संस्कृति और सामाजिक परंपराओं की कसौटी भी थी।

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