जजों की नियुक्ति? अपनों ही द्वारा होना बेढंगा हैं!

के. विक्रम राव

एक वैधानिक संयोग हुआ। बड़ा विलक्षण भी! दिल्ली में कल (शुक्रवार, 25 नवंबर 2022) भारतीय संविधान की 73वीं सालगिरह की पूर्व संध्या पर शीर्ष न्यायपालिका तथा कार्यपालिका में खुला वैचारिक घर्षण दिखा। दो विभिन्न मंचों पर, विषय मगर एक ही था: “जजों की नियुक्ति-प्रक्रिया।” वर्तमान तथा भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश, दोनों ही अलग सभाओं में थे। पहले कार्यक्रम स्थल में एक ओर मोदी सरकार की न्याय मंत्री किरण रिजिजू थे, तो दूसरे छोर पर प्रधान न्यायधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़। आयोजक था उच्चतम न्यायालय के वकीलों का संगठन। भिन्न स्थल पर थे पूर्व प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित। क्रमशः उच्चतम न्यायालय के 49वें और 50वें प्रधान न्यायधीश। बाजू में रहे हरीश नरेंद्रकुमार साल्वे जो सॉलिसिटर जनरल थे। इन न्यायमूर्तियों के तर्कों में साम्य था। क्या जज साहबों को खुद अन्य जजों का चयन करना चाहिए? क्या यह नीति और विधि सम्मत होगा? दोनों के विचार जैसे अपेक्षित ढर्रे पर रहें। वे वर्तमान कालेजियम प्रणाली के पक्षधर हैं। इस पर हरीश साल्वे की आलोचना थी कि किसी भी गणराज्य में जजों का नामांकन किसी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग द्वारा नहीं की जाती है। वे इस प्रणाली के घोर विरोधी हैं। उनका तर्क था कि संविधान में ऐसे आयोग के गठन का कोई प्रावधान है ही नहीं। इसी बिंदु पर अन्य मंच पर कानून मंत्री रिजिजू ने कहा कि किसी आयोग द्वारा चयन का तरीका एकदम त्रुटिपूर्ण है। इसमें न तो पारदर्शिता है, न निष्पक्षता। इन दोनों विचार गोष्ठियों में मुद्दा था: “ईमानदार चयन प्रक्रिया।” एक खास आलोचना यह रही की जजों के संबंधी (पुत्र, अनुज आदि) ही जज नामित हो जाते हैं। इसका निराकरण होना चाहिए। कभी लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र रहने के नाते मुझे स्मरण हो आया कि परीक्षक नियुक्ति होते के समय अध्यापकों को शपथ पत्र देना पड़ता था कि उनका कोई रिश्तेदार इम्तिहान में नहीं बैठ रहा है। यही शर्त जजों के नामांकन और चयन के समय भी होना चाहिए। मगर ठीक इसके विपरीत ही आज हो रहा है। परिवारजन ही जज नियुक्त होते हैं। या मित्र अथवा हमसफर। यह कुप्रथा है। इसकी आलोचना जोर पकड़ रही है। उपचार नहीं हो रहा है। अपेक्षा रही है कि न्याय क्षेत्र में सर्वाधिक पारदर्शिता और नैतिकता हो।
यहां एक घृणित उदाहरण दे दूँ। बात आजादी के दूसरे दशक की है। तब जवाहरलाल नेहरु भारत के इकलौते भाग्यविधाता थे। उनके राज में उनके कानून मंत्री अशोक सेन थे। उनके ससुर थे सुधिरंजन दास जो उसी दौर में भारत के पांचवे प्रधान न्यायाधीश थे। तभी मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे सुकुमार सेन, जो कानून मंत्री के अग्रज थे। तीनों एक ही दौर में इन अति महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर रहे। अर्थात् तीनों न्यायिक पद नेहरू ने एक ही कुटुंब को आवंटित कर दिये थे। अब कालेजियन ने अब तक कैसा अच्छा काम किया? राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अकील अब्दुल्ला कुरेशी उच्चतम न्यायालय में स्थान नहीं पा पायें। आशंकित कारण यह है कि कुरैशी साहब ने अभियुक्त अमित शाह को सी.बी.आई. के हिरासत में दे दिया था। गुजरात के गृह राज्य मंत्री के नाते उन पर दंगों में पक्षपात का आरोप लगा था। जो विद्वतजन न्यायतंत्र की शुचिता के पैरोंकार हैं उन्हें एक दुखद दशा से अवगत करा दूं। तुर्की मे कहावत है कि: “अगर मुकदमा जीतना हो, तो बजाये वकील के, जज को सीधे फीस दे दीजिये।” यह बात अब पुरानी पड़ गयी है। वहां लोग आजकल फीस माफिया को दे देते हैं, क्योंकि उनका काम अधिक आसानी से पूरा हो जाता है। सच्चाई भले ही भिन्न हो। यूं भी सच्चाई पूरे मुकदमें का एक अनुषंगिक पहलू मात्र होता है, बीज मंत्र नहीं। सच्चाई ढाई हजार वर्ष पूर्व एक आधारशिला हुआ करती थी न्यायसूत्र की, जिसे ऋषि गौतम ने रचा था। मुनि वात्स्यायन ने उस पर भाष्य लिखा था। मगर तब शासक अंग्रेज नहीं होते थे। ब्रिटेन राष्ट्र था भी नही। फिर वे उपजे, भारत आये और हम गुलामों को औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था दी। उसे दो सदियों से राष्ट्र ढो रहा है।
अब कुछ प्रचिलित भ्रांति की चर्चा हो। लोग संविधान को बड़ा पावन, पवित्र ग्रंथ मानते हैं। गीता, कुरान, बाइबिल, जैसा। संविधान के लागू होने (26 नवंबर 1949) के बाद से अब तक 104 संशोधन हो चुके हैं। अब तक 126 संविधान संशोधन विधेयक संसद में लाये गये थे। संविधान को पूर्ण रूप से तैयार करने में दो वर्ष, 11 माह, 18 दिन का समय लगा था। अतः मेरी दृष्टि में संविधान अजर-अमर नहीं होता। मसौदा समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव आंबडेकर ने तो स्वयं राज्य सभा में एक दफा यहां तक कह डाला था कि: “मै प्रथम व्यक्ति होऊंगा जो इस संविधान को जला दूंगा”, (राज्य सभाः 19 मार्च 1955)। तब पंजाब के कांग्रेसी सदस्य डा. अनूप सिंह ने चौथे संशोधन (निजी संपत्ति विषयक) पर चर्चा के दौरान डा. आंबेडकर से उनकी हुँकार पर जिरह भी की थी। इन्दिरा गाँधी ने तो 42वें संशोधन (1976) द्वारा सर्वाेच्च न्यायलय से ऊपरी पायदान पर संसद को रखा था। तब संसद में कांग्रेस का बहुमत था। सारा विपक्ष जेल में था। तब संसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति के शासन पद्धति प्रस्ताव विचाराधीन था। भला हो जनता पार्टी सरकार का कि दोनों अधिनायकवादी प्रस्तावों को ठुकरा दिया गया। भारतीय संविधान के प्रति मोह पालने वालों को कुछ तथ्य जानना चाहिये। इस संविधान के मसौदे पर ही प्रथम चरण में ही दो हजार संशोधन पेश हुये थे। तत्कालीन संविधान सभा के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर वोटरों द्वारा निर्वाचित नहीं हुये थे। प्रांतीय विधान मंडलो के विधायकों द्वारा 1946 में परोक्ष रूप से 292 लोग चुने गये थे। उन्तीस रजवाड़ों ने 70 प्रतिनिधि मनोनीत किये थे। उन सबका जनाधार क्षीण था। हर सदस्य अपने वर्गहित का रक्षक तथा पोषक था। राजाओं के प्रतिनिधि भला प्रजा का हित कैसे कर पाते?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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