डा. माधव राज द्विवेदी
श्रावण मास में बहुत से महत्वपूर्ण व्रत किए जाते हैं जिनमें शुक्ल पक्ष की पंचमी को किया जाने वाला नागपंचमी व्रत प्रसिद्ध है। कुछ लोगों के मत में वर्ष भर के सर्वोत्तम शुभ साढ़े तीन दिनों में नागपंचमी आधा शुभ दिन है किन्तु कुछ लोग यह महत्त्व अक्षय तृतीया को देते हैं। भविष्य पुराण में नागपंचमी का विस्तार से उल्लेख है। जब लोग श्रावण शुक्ल पंचमी को वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक एवं धनंजय नामक सर्पों को दूध से नहलाते हैं तो ये उनके कुटुम्बों को अभय दान दे देते हैं। भविष्य पुराण में यह कथा वर्णित है कि कद्रू ने अपनी बहन विनता से बाजी लगाई कि इन्द्र के घोड़े उच्चैश्रवा की पूंछ काली है। विनता घोड़े और उसकी पूंछ को श्वेत वर्ण का कहती थी। कद्रू ने अपने पुत्रों सर्पों को घोड़े की पूंछ में लिपट जाने को कहा, जिससे पूंछ काली दिखाई दे। जिन सर्पों ने उसकी इस धोखाधड़ी में सम्मिलित होने से मना कर दिया, उन्हें कद्रू ने अग्नि में जल कर मर जाने का शाप दे दिया। परिणाम स्वरूप वे जनमेजय के सर्प यज्ञ में जलकर मर गए। इस पर्व पर सर्प की सोने, चांदी या मिट्टी की प्रतिमाएं बनाकर करवीर और जाती पुष्प तथा गन्धादि से सर्पों की पूजा करने से सर्प दंश से मुक्ति मिल जाती है। सौराष्ट्र में नागपंचमी श्रावण कृष्ण पक्ष में मनाई जाती है। दक्षिण भारत में श्रावण शुक्ल पंचमी को काठ की चौकी पर लाल चन्दन से सर्प बनाए जाते हैं या मिट्टी की काले अथवा पीले रंग की प्रतिमाएं बनाकर या खरीद कर दूध से उनकी पूजा की जाती है। भारत में सर्प पूजा का आरम्भ कब हुआ, यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित रहा है। इतना अवश्य है कि ऋग्वेद में इन्द्र को अहि शत्रु अर्थात् सर्पों का शत्रु कहा गया है और अहि हत्या की चर्चा भी हुई है। अथर्ववेद में तक्षक और धृतराष्ट्र नामक सर्पों के नाम आए हैं। काठक संहिता में पितरों, सर्पों, गंधर्वों, जल और औषधियों को पंचजन कहा गया है जबकि ऐतरेय ब्राह्मण में देवों, मनुष्यों, गन्धर्वों, अप्सराओं एवं सर्पों को पंचजन कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि परवर्ती वैदिक काल में सर्प भी गन्धर्वों के समान एक जाति के अर्थ में लिए जाने लगे थे। महाभारत में नागों का बहुत उल्लेख हुआ है। सर्पों का सम्बन्ध विष्णु और शिव दोनों से है। विष्णु शेषनाग के फण की शय्या पर सोते हैं और शिव नागों को गले में यज्ञोपवीत के रूप में धारण करते हैं। भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता में स्वयं को सर्पों में वासुकि और नागों में अनन्त कहा है। सर्प और नाग का अन्तर स्पष्ट नहीं हो पाता है किन्तु ऐसा लगता है कि सभी रेंगने वाले जीवों को सर्प तथा फण वाले सांप को नाग कहा गया है। सम्भवतः वर्षा ऋतु में सर्प दंश से लोग मर जाया करते थे। अतः सर्प भय से मुक्ति हेतु सर्प पूजा का आरम्भ हुआ।
(लेखक एमएलके पीजी कालेज बलरामपुर के संस्कृत विभागाध्यक्ष रहे हैं।)
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