हर साल नई तिथि से क्यों शुरू होता विक्रम संवत

हेमंत शर्मा

मुतरेजा फिर परेशान है कि दुनिया में इतने सारे कैलेंडर क्यों हैं? किसे सही माना जाय किसे ग़लत? मुतरेजा अपने साथ एक दस्तावेज भी लाया था जिसमें दुनिया भर के कैलेंडरों का ज़िक्र था। सुबह-सुबह ही मुतरेजा आया और नव संवत्सर की बधाई देने के बाद कहने लगा मैं भ्रमित हूँ। लग रहा है दुविधा में मेरा सिर फट जायगा। समझ में नहीं आ रहा है कि नव संवत्सर हर बार अलग-अलग तारीख़ पर क्यों आता है? सन् 2022 में नव संवत्सर 2 अप्रैल को आया था। 2023 में 22 मार्च को आया और इस बार 9 अप्रैल को आया। मैंने कहा, मुतरेजा! नव संवत्सर हमारी काल गणना का मानक है। काल को सबसे पहले पकड़ कर उसे बांटने का काम हमारे पुरखों ने दुनिया में पहले पहल किया। पृथ्वी सूरज के चारों ओर अपना चक्कर 365 दिन 6 घंटे और 9 मिनट में पूरा करती है। यही हमारा पंचांग है। सूर्य की गति से ही हमारा नया साल शुरू होता है। हिजरी कैलेंडर चांद की गति पर चलता है। चैत्र प्रतिपदा, गुड़ी पड़वा या उगादी ही अपना न्यू ईयर है। यह सिर्फ़ तारीख़ बदलने का नहीं चौतरफा नवीनता का पर्व है। हम यह मानते हैं कि दुनिया इसी रोज बनी थी। जाती ठंड। बढ़ता ताप। भूरे बादलों से घिरा आसमान। बीच-बीच में बरसात और भावनाओं जैसी आरोह-अवरोह वाली हवा। मन में गुदगुदी। पकती फसल। यही है अपना नया साल। अपना यह नववर्ष रात के अँधेरे में नहीं आता। हम नववर्ष पर सूरज की पहली किरण का स्वागत करते हैं। जबकि पश्चिम में घुप्प अँधेरे में नए साल की अगवानी होती है। हमारे नए साल का तारीख से उतना संबंध नहीं है, जितना मौसम से है। उसका आना सिर्फ कलेंडर से पता नहीं चलता। प्रकृति झकझोर कर हमें चौतरफा फूट रही नवीनता का अहसास कराती है। पुराने पीले पत्ते पेड़ से गिरते हैं। नई कोंपलें फूटती हैं। प्रकृति अपने शृंगार की प्रक्रिया में होती है। लाल, पीले, नीले, गुलाबी फूल खिलते हैं। ऐसा लगता है कि पूरी-की-पूरी सृष्टि नई हो गई है। नव गति, नव लय, ताल, छंद, नव; सब नवीनता से लबालब। जो कुदरत के इस खेल को नहीं समझते, वे न समझें। जो नहीं समझे, उनके लिए फरहत शहजाद की एक गजल भी है, जिसे मेंहदी हसन ने गाया था कोंपलें फिर फूट आईं, शाख पर कहना उसे/वो न समझा है, न समझेगा मगर कहना उसे। चैत्र आते ही प्रकृति दिव्य, मोहक, शांत और सुभग हो जाती है। फागुन और चैत्र की सीमा पर आकाश अपने शिव स्वरूप में होता है। ऐसी मोहक रात पूरे साल में कम होती है।
फागुन के गुजरते ही पूरी प्रकृति अपर्णा होती है। एक ही पखवारे में उसे नया स्वरूप लेना है, क्योंकि नया साल नए पत्तों और मंजरी के साथ दाखिल होगा। पीली सरसों, सुनहला गेंहू, आम्र मंजरी को रिझाते मधुप, ये सब चैत्र के हरकारे हैं। जोर-जोर से आवाज दे रहे हैं, नया साल आ गया। चैत्र की गंध परिवेश से आती है। मुझे तो स्मृतियों से भी आती है। स्मृतियां गमकने लगती हैं। गिरिजा देवी सुनाई पड़ती हैं। “चैत मास बोले ले कोयलिया हो रामा। पिया के अंगनवा।” बसंत का यह उल्लास पूरी दिव्यता के साथ स्नायु तंत्र के भीतर पैठता है। चइता, चैती और घाटों पूरवी अंग के ये गायन चौतरफा हवा में घुले रहते हैं। भक्ति और शृंगार प्रधान चैती चैती और घाटों में नई फसल के आने का उल्लास प्रकट होता है। चैत ….. चित चोर महीना है। बड़ा चतुर है। दबे पांव चुपके से आता है। इसके आने की आहट का किसी को पता नहीं चलता। यह होली की उन्मद हलचल में चुपचाप आकर हाजिर हो जाता है। धीरे से आकर यह सारे रंग गुलाल चुराकर अपनी झोली में समेट लेता है। उल्लास में बेसुध चित्त भी चुरा लेता है। किसी को पता नहीं चलता। जब तक पता चलता है, आदमी मन मसोस कर रह जाता है। चैता चित के चोरी हो जाने की पीड़ा का गान है। चैता होली के हुलास के विलुप्त हो जाने की व्यथा का उद्गार है। चैता में मनुष्य जीवन की वेदना का अपार विस्तार है। इसका मर्म मन को मथ डालने वाला है। चैत्र प्रतिपदा महसूस कराती है कि पुराना जा रहा है। नया आ रहा है। इधर कुछ सालों से नव संवत्सर पर ऋतु देवता का मिजाज बदलने लगा है। पश्चिम में तापमानी ताकतें बेहाथ होती जा रही है। आसमानी आफ़तों से धरती घिरती जा रही है। हमने प्रकृति के साथ बहुत बदसलूकी की है। वह क्रुद्ध हुई है। आए दिन विक्षोभ बनते हैं। पकती सरसों, गेहूं, आम पर गुस्साए बादल टूट पड़ते हैं। ओले बरसाते हैं। किसान किलस कर रह जाते हैं।
इसी महीने में गुलाब सुर्ख़ होता है। चैती गुलाब अपनी छटा बिखेरता है। गुलाब सुन्दरता का प्रतीक और पर्याय है। वह चैत में ही फूलता है। हालांकि यह भारतीय परम्परा का फूल नहीं है। इसे ईरान से बाबर लेकर आया था। नेहरू जी की शेरवानी पर टंकने के कारण महाप्राण निराला ने इसे कैपटल्जिम का प्रतीक माना। उन्होंने लिखा :
“अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबू, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी।
मुतरेजा ने मुझे टोका। सर, मैं दुनिया भर के कैलेंडरों से परेशान हूँ और आपने गुलाब के ज़रिए एक नया झमेला खड़ा कर दिया। आपने मेरी धारणा बदल दी। मैं गुलाब देखते ही उस पर हमला कर सकता हूँ। अब तक मैंने उसे नाज़ुक सौन्दर्य का प्रतीक मानता था। मैंने कहा, मुतरेजा! अपनी धारणा मत बदलो। गुलाब पर फिर कभी, मैं तो मौसम के बाबत उसका ज़िक्र कर रहा था। चैत में हवा पुराने पीले पत्तों को झकझोरती है। उन्हें गिराती है और अपने साथ उड़ा ले जाती है। पत्तों के साथ उड़ती धूल से अवसाद और उत्साह की अजीब अनुभूति होती है। “जैसे पात गिरे तरुवर से, मिलना बहुत दुहेला, ना जाने किधर गिरेगा, लगाए पवन का रेला, उड़ जाएगा हंस अकेला।” कबीर लिखते हैं। कुमार गंधर्व स्वर देते हैं। हम पतझड़ और वसंत के दर्शन से रूबरू होते हैं। हमें पता चलता है कि हम पत्ते हैं। ऋतु चक्र की मियाद पूरी होते ही हमें उड़ना होगा। इस ऋतु चक्र के साथ घूमना ही जीवन हैं। हम दुनिया में सबसे पुरानी संस्कृति के लोग हैं। इसलिए समझते हैं कि ऋतु चक्र का घूमना ही शाश्वत है, जीवन है। तभी हम इस नए साल के आने पर वैसी उछल-कूद नहीं करते, जैसी पश्चिम में होती है। हमारे स्वभाव में इस परिवर्तन की गरिमा है। हम साल के आने और जाने दोनों पर विचार करते हैं। पतझड़ और बसंत साथ-साथ। इस व्यवस्था के गहरे संकेत हैं। आदि-अंत, अवसान-आगमन, मिलना-बिछुड़ना, पुराने का खत्म होना, नए का आना। सुनने में चाहे भले यह असगंत लगे। पर हैं साथ-साथ, एक ही सिक्के के दो पहलू। जीवन का यही सार हमारे नए साल का दर्शन है। मुतरेजा, काल को पकड़ उसे बाँटने का काम हमारे पुरखों ने सबसे पहले किया। काल को बाँट दिन, महीना, साल बनाने का काम भारत में ही शुरू हुआ। जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर भी मानते हैं : ‘आकाश मंडल गति, ज्ञान, काल निर्धारण का काम पहले-पहल भारत में हुआ था।’ ऋग्वेद कहता है, ‘ऋषियों ने काल को बारह भागों और तीन सौ साठ अंशों में बाँटा है।’ वैज्ञानिक चिंतन के साथ हुए इस बँटवारे को बाद में ग्रेगेरियन कैलेंडर ने भी माना। आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त ने छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी काल की इकाई को पहचाना। बारह महीने का साल और सात रोज का सप्ताह रखने का रिवाज विक्रम संवत् से शुरू हुआ। वीर विक्रमादित्य उज्जयिनी का राजा था। शकों को जिस रोज उसने देश से खदेड़ा, उसी रोज से विक्रम संवत् बना। इतिहास देखने से लगता है कि कई विक्रमादित्य हुए। बाद में तो यह पदवी हो गई। पर लोकजीवन में उसकी व्याप्ति न्यायपाल के नाते ज्यादा है। उसकी न्यायप्रियता का असर उस सिंहासन पर भी आ गया था, जिस पर वह बैठता था। जो उस सिंहासन पर बैठा, गजब का न्यायप्रिय हुआ। लोक में शकों से विक्रमादित्य के युद्ध की कथा नहीं, उसके सिंहासन की चलती है।
विक्रम संवत् से 6667 ईसवी पहले हमारे यहॉं सप्तर्षि संवत् सबसे पुराना संवत् माना जाता था। काश्मीर में इसे लौकिक संवत् भी कहा गया। यह संवत् ईसा पूर्व 3076 में शुरू हुआ। वराहमिहिर की बृहत्संहिता में एक परम्परा का उल्लेख है कि सप्तर्षि एक नक्षत्रों सौ वर्षों तक रहते हैं। फिर कृष्ण जन्म से कृष्ण कैलेंडर, उसके बाद कलि संवत् आया। विक्रम संवत् की शुरुआत 57 ईसा पूर्व में हुई। इसके बाद 78 ईसवीं में शक संवत् शुरू हुआ। भारत सरकार ने शक संवत् को ही माना है। शक संवत् भारतीय संविधान द्वारा मंज़ूर राष्ट्रीय वर्ष है। प्रधानमंत्री नेहरू ने 1952 में डॉ मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में पंचांग सुधार समिति बनाई थी। 1955 में इस समिति ने अपनी सिफ़ारिश में कहा था। समूचे देश में एक समान पंचांग की व्यवस्था होनी चाहिए। विक्रम संवत् की शुरुआत सूर्य के मेष राशि में प्रवेश से मानी जाती है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही चंद्रमा का ‘ट्रांजिशन’ शुरू होता है। इसलिए चैत्र प्रतिपदा चंद्रकला का पहला दिन होता है। मानते हैं कि इस रोज चंद्रमा से जीवनदायी रस निकलता है, जो औषधियों और वनस्पतियों के लिए जीवनप्रद होता है। इसीलिए वर्ष प्रतिपदा के साथ ही वनस्पतियों में जीवन भर आता है। चंद्र वर्ष 354 दिन का होता है। यह भी चैत्र से शुरू होता है। सौरमास में 365 दिन होते है। दोनों में हर साल दस रोज का अंतर आ जाता है। ऐसे बढ़े हुए दिनों को ही ‘मलमास’ या ‘अधिमास’ कहते हैं। कागज पर लिखे इतिहास से नहीं, परंपरा से हमारी दादी वर्ष प्रतिप्रदा से ही नया वर्ष मानती थीं। यही संस्कार मुझमें है। जिस कारण मैं अपने बच्चों को आज भी तिथि-ज्ञान देता रहता हूँ। नव संवत्सर को अपनी पीठ पर बिठाकर हमारे दरवाजे तक लाने वाला चैत्र, कभी अकेले गिनती में नहीं आता। भारतीय साहित्य में चैत्र और वैशाख एक साथ पुकारे जाते हैं। इनका पुराना नाम मधु-माधव है। वस्तुतः प्रकृति की मधुमयता का जो उत्सव हेमंत के उत्तरार्ध में शुरु होता है। वह वैशाख के अंत तक चलता है। इस काल खंड में प्रकृति सूर्य की लीला भूमि हो जाती है। सूर्य भारतीय चेतना का महानायक है। वह हमारे आभिजात्य से लेकर लोक तक प्रत्येक उदात्त और मांगलिक भाव से जुड़ा है। महाभारत में याज्ञवल्क्य जिस अतिसूर्य की व्याख्या करते हैं, वह मुंडेर पर चहकती गौरैया से लेकर गेहूं की बाल में पकते अन्न तक, आम्र मजरी के टिकोरे में बदलने से लेकर ज्योतिषीय गणना तक प्रकृति के चैतन्य का आदि स्रोत है। सूर्य हमारे प्रत्यक्ष देवता है जो रात में अग्नि बनकर कुंड में स्थित होता है। और चंद्रमा बनकर आकाश में। सूर्य सिद्धांत वैदिक युग से ज्योतिष का आदि ग्रंथ है। जो शून्य से परार्ध तक गणितीय अंक व्यवस्था, रेखागणित के सिद्धांत, पृथ्वी की गतियां, संवत्सर, मास, छह ऋतुओं के सात चक्रों, नक्षत्रों की सबसे प्राचीन गणना है। ज्योतिष के मूल सिद्धांत इसी सूर्य ग्रंथे आते है।
नए साल की गणना चैत्र प्रतिपदा से शुरु होती है। जहां सूर्य क्रमशः प्रखर होने लगता है, लेकिन अमावस्या और पूर्णिमा गणना का प्रमुख आधार है। पूर्णिमा को जो नक्षत्र होता है, उसके नाम से महीने का नामकरण हुआ। चंद्रमा पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र पर आया था तो महीना हुआ चैत्र। अगले मास की पूर्णिमा पर विशाखा नक्षत्र था नाम हुआ वैशाख। ठीक इसी तरह ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा आदि नक्षत्र के नाम पर महीनों के नाम पड़े। वैसे नव संवत्सर वाला चैत्र जब ज्योतिषियों की गणना से निकल कर कवियों के हाथ लगा तो इसका मिजाज बदल गया। उन्होंने इसे जोड़ा बना दिया। चैत यानि मधुमास, (नौमी तिथि मधुमास पुनीता जब राम जन्मे) और इसकी पीठ पर बैठा है माधव मास यानी वैशाख। श्रीमद्भागवत में भारतीय महीनों के पुराने नामों का उल्लेख है। यहां चैत्र मधु है, वैशाख माधव, ज्येष्ठ का शुक्र कहा गया, आषाढ़ को शुचि, श्रावन को नभः, भाद्रपद को नभस्य, अश्विन को इष, कार्तिक को उर्ज, अग्रहायण को सहः, पौष को सहस्य, माघ को तपः और फाल्गुन को तपस्य कहा गया। हमारी परंपरा में नया साल खुशियां मनाने का नहीं, प्रकृति से मेल बिठा खुद को पुनर्जीवित करने का पर्व है। तभी तो नए साल के मौके पर नीम की कोंपलें काली मिर्च के साथ चबाने का खास महत्त्व था। ताकि साल भर हम संक्रमण या चर्मरोग से मुक्त रहें। इस बड़े देश में हर वक्त, हर कहीं, एक सा मौसम नहीं रहता। इसलिए अलग-अलग राज्यों में स्थानीय मौसम में आने वाले बदलाव के साथ नया साल आता है। वर्ष प्रतिप्रदा भी अलग-अलग जगह थोड़े अंतराल पर मनाई जाती है। कश्मीर में इसे ‘नवरोज’ तो आंध्र और कर्नाटक में ‘उगादि’, महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पड़वा’, केरल में ‘विशु’ कहते हैं। सिंधी इसे ‘झूलेलाल जयंती’ के रूप में ‘चेटीचंड’ के तौर पर मनाते हैं। तमिलनाडु में ‘पोंगल’, बंगाल में ‘पोएला बैसाख’ पर नया साल मनाते हैं। कहते हैं ब्रह्मा ने चैत्र प्रतिप्रदा के दिन ही दुनिया बनाई। भगवान् राम का राज्याभिषेक इसी दिन हुआ था। महाराज युधिष्ठिर भी इसी दिन गद्दी पर बैठे थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदू पद पादशाही की स्थापना इसी दिन की। परंपरा से धड़कते ‘पोएला वैशाख’ की महिमा लाल से लाल मार्क्सवादी भी मानते हैं। बंगाल की संस्कृति में रचे-बसे इस पर्व के रास्ते कभी मार्क्स ने बाधा नहीं डाली।
सैकड़ों सालों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत् प्रयोग में आते रहे। इससे काल निर्णय में अनेक भ्रम हुए। अरब यात्री अलबरुनी के यात्रा वृत्तांत में पाँच संवतों का जिक्र है। श्री हर्ष, विक्रमादित्य, शक, वल्लभ और गुप्त संवत्। भारतरत्न प्रो. पांडुरंग वामन काणे अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में लिखते हैं : ‘विक्रम संवत् के बारे में कुछ कहना कठिन है।’ वे विक्रमादित्य को परंपरा मानते हैं। पर लिखते हैं, ‘यह जो विक्रम संवत् है, वह ई.पू. 57 से चल रहा है और सबसे वैज्ञानिक है।’ अगर न होता तो पश्चिम के कलेंडर में यह तय नहीं है कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण कब लगेंगे, पर हमारे कलेंडर में तय है कि चंद्रग्रहण पूर्णिमा को और सूर्यग्रहण अमावस्या को ही लगेगा। जो भी हो परंपरा, मौसम और प्रकृति के मुताबिक ‘वर्ष प्रतिपदा’ नए सृजन, वंदन और संकल्प का उत्सव है। मौसम बदलता है, शाम सुरमई होती है, रात उदार होती है। जीवन का उत्सव मनाते कहीं रंग होता है, कहीं उमंग। सूर्य की छाया में देवी की उंगली पकड़ कर नया साल हमारे आंगन में उतरता है। यह हमें मधु देगा। मधु का प्रयोग वेदों में बार-बार हुआ है। धरती के हृदय में प्राण स्पंदित करेगा। हमें समृद्ध करेगा। ऋग्वेद का ऋषि कह गया है। “मधु वाता ऋतायते मधुं क्षरन्ति सिन्धवः।” आओ विराजो मधुमास। आओ बैठो संवत्सर। हमारा काल, युग, मार्ग सब कुछ सदा सर्वत्र मधुमय हो। तो मुतरेजा जी कौन कैलेंडर सही कौन ग़लत को किनारे कर आइए इस नए साल की परंपरा, नूतनता और इसके पावित्र्य का स्वागत सब मिल कर करें। आनंद लिजिए। चढ़ते चैत में नवान्न का उत्सव मनाई। चैता चैती और घाटो गाईए। कहां फँसे हो कैलण्डर में। उसके पन्ने फटते जाएँगें। कैलेंडर का फटना उसकी नियति है। आप कैलेंडर से नहीं प्रकृति से सामंजस्य बिठाइए। मुतरेजा फिर डाल पर। आप सबको नव संवत्सर की अनेक मंगलकामनाएँ।
(लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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