राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी मुकदमा, जिसने इतिहास का रुख मोड़ दिया

राज खन्ना

46 साल गुजर चुके हैं। पर यह भूलने वाला मुकदमा नहीं है। 12 जून 1975 को इस मुकदमें के फैसले ने देश में भूचाल ला दिया था। बाद का घटनाक्रम, 21 महीने की इमरजेंसी, उसकी सीख-सबक सब देश के इतिहास का अहम हिस्सा हैं। मुकदमा था राज नारायण बनाम इंदिरा नेहरू गांधी आदि। यह मुकदमा क्यों दायर हुआ? 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिराजी की अगुवाई में कांग्रेस (आर) ने 352 सीटें हासिल करके जबरदस्त जीत दर्ज की थीं। अपनी परम्परागत रायबरेली सीट से खुद इंदिराजी बड़े अंतर से जीतीं थीं। उनके प्रतिद्वंदी थे विपक्षी महागठबंधन के प्रत्याशी दिग्गज समाजवादी नेता राज नारायण। 7 मार्च 1971 को मतदान हुआ। 9 मार्च से मतगणना शुरू हुई। 10 मार्च को घोषित नतीजे के अनुसार इंदिरा गांधी को 1,83,309 और राजनारायण को 71,499 वोट मिले।
राजनारायण इस पराजय को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होनें अधिवक्ता रमेश चंद्र श्रीवास्तव के जरिये इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द करने के लिए नियत अवधि की आखिरी तारीख 24 अप्रैल 1971 को चुनाव याचिका अतिरिक्त रजिस्ट्रार के समक्ष प्रस्तुत की। जस्टिस ब्रूम के समक्ष इसे सूचीबद्ध किया गया। याचिका में इंदिरा गांधी को पहला और निर्दलीय उम्मीदवार स्वामी अद्वैतानंद को दूसरा प्रतिवादी बनाया गया था। 1974 में यह याचिका जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की बेंच में आयी। तभी से इसकी सुनवाई में गति आई। शुरुआत में मुख्य आरोप मतपत्रों में अदृश्य रसायन के प्रयोग का था। भ्रष्ट आचरण के आरोप सहायक मुद्दों के तौर पर दर्ज थे। बाद मे राजनारायण ने शांतिभूषण को अपना एडवोकेट नियुक्त किया। शांतिभूषण ने इस शर्त पर अपनी स्वीकृति दी कि मुकदमा प्रचार के लिए नहीं बल्कि गम्भीरता से लड़ा जाएगा। उन्होंने भ्रष्ट आचरण के आरोपों को इतना विकसित किया कि वे निर्णय के केंद्र में आ गए।
अदालत के सामने प्रमुख सवाल थे-क्या इन्दिरा गांधी ने यशपाल कपूर की तब सेवाएं ली थीं जब वह राजपत्रित अधिकारी थे? यशपाल कपूर 14 जनवरी 1971 या उसके बाद कब तक भारत सरकार की सेवा में रहे? कपूर के अनुसार, उन्होंने 13 जनवरी 1971 को इस्तीफा दे दिया था। प्रधानमंत्री के तत्कालीन प्रधान सचिव पी.एन. हक्सर ने उसी समय मौखिक स्वीकृति दे दी थी। अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार, राष्ट्रपति ने 25 जनवरी 1971 को इस्तीफे को पूर्वगामी तिथि 14 जनवरी से स्वीकार किया था। अदालत को पूर्वगामी तिथि से इस्तीफे की स्वीकार्यता की वैधता का बिंदु भी निर्णीत करना था। क्या इंदिरा गांधी एक फरवरी 1971 के पूर्व स्वयं को रायबरेली से उम्मीदवार के तौर पर प्रस्तुत कर रहीं थीं? अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने 29 जनवरी 1971 को उनकी उम्मीदवारी को मंजूरी दी। राजनारायण के अनुसार, 29 दिसम्बर 1970 को लोकसभा भंग होने के साथ ही इंदिरा गांधी खुद को उम्मीदवार के तौर पर प्रस्तुत कर रहीं थीं। इस बिंदु का आधार जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 का वह प्रावधान था, जिसके अनुसार एक व्यक्ति तभी उम्मीदवार बन जाता है, जब सामाजिक तौर पर स्वयं को इस रूप में प्रस्तुत करने लगता है। प्रधानमंत्री की सभाओं के लिए मंच निर्माण, शामियाने, बिजली, माइक्रोफोन की व्यवस्था, सशस्त्र बलों का प्रयोग और इनके जरिए चुनाव प्रचार को प्रभावी बनाने का मुद्दा भी अदालत के सामने विचाराधीन था। निर्दलीय प्रत्याशी स्वामी अद्वैतानंद को आर्थिक मदद, मतदाताओं को रजाई, कम्बल, धोती, शराब वितरण और तय सीमा पैंतीस हजार रुपये से अधिक खर्च करने के भी सवाल याचिका में उठाये गए थे। मुकदमें के फैसले के बाद ही नहीं उसकी सुनवाई के दौरान भी जबरदस्त सरगर्मी थी। इस मुकदमे के साथ मशहूर हो गए एडवोकेट शांति भूषण ने अपनी किताब ’कोर्टिंग डेस्टिनी’ में लिखा है, ’मैने बहस शुरू की, तो मुझे लगा कि जस्टिस सिन्हा मुकदमें को कोई खास महत्व नहीं दे रहे हैं लेकिन तीसरे दिन से जब वह नोट्स लेने लगे, तब मुझे आभास हुआ कि वह इसे गम्भीरता से ले रहे हैं।’ इंदिराजी के वकीलों की टीम की अगुवाई वरिष्ठ एडवोकेट सतीश चंद्र खरे ने की थी। दोनो ओर से तैंतीस दिनों तक दलीलें पेश की गईं थी। मुकदमे में एक अहम तारीख 17 मार्च 1975 थी जब देश का कोई प्रधानमंत्री गवाह के तौर पर पहली बार अदालत के कटघरे में पेश हुआ। जस्टिस सिन्हा ने उस दिन कोर्ट परिसर में पुलिस के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। उन दिनों वकालत कर रहे और बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज बने जस्टिस आर.बी. मेहरोत्रा ने याद किया कि वकीलों ने मानव श्रृंखला बनाकर प्रधानमंत्री की सुरक्षा सुनिश्चित की थी। रजिस्ट्रार को सख्त निर्देश था कि गवाह के तौर पर प्रधानमंत्री के अदालत में पहुँचने पर कोई खड़ा नहीं होगा। हालांकि इंदिराजी के लिए कुर्सी लगाई गई थी। इंदिराजी के पहुँचने पर उनके एडवोकेट सतीश चंद्र खरे अपनी कुर्सी से थोड़ा सा उठते नजर आए थे। इंदिराजी की गवाही पांच घंटों तक चली। शांतिभूषण ने उनसे जिरह की थी। जबाब में अपने पक्ष को लेकर इंदिराजी दृढ़ रहीं। राजीव गांधी और सोनिया गांधी दिल्ली से उनके साथ आये थे लेकिन उन्होंने इंदिराजी के अदालत में रहने के दौरान अपना समय पारिवारिक घर आनंद भवन में बिताया था।
यह सामान्य चुनाव याचिका नहीं थी। फैसले से सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी जुड़ी हुई थी। विपक्ष सिर्फ अदालत में सत्ता से नहीं लड़ रहा था। सड़कों पर भी उसकी सरकार से तेज लड़ाई चल रही थी। गुजरात के छात्र आंदोलन और बिहार की गफूर सरकार की बर्खास्तगी की मांग से बढ़ते सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की तपिश दिल्ली को परेशान कर रही थी। अगुवाई लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। उनकी नैतिक सत्ता ने सरकार को बेचैन कर रखा था। शांति भूषण ने अपनी किताब में दावा किया है कि जस्टिस सिन्हा को अनुकूल निर्णय देने के लिए सुप्रीमकोर्ट की जस्टिसशिप का प्रलोभन दिया गया। उन्होंने लिखा,’ सिन्हा गोल्फ़ खेलने के शौकीन थे। एक बार खेल के बीच उन्होंने बताया था कि जब मुकदमें की सुनवाई चरम पर थी, तब चीफ जस्टिस डीएस माथुर सपत्नीक उनके घर आये। यह पहला मौका था जब वह उनके घर आये। जस्टिस माथुर इंदिराजी के पारिवारिक डॉक्टर केपी माथुर के निकट संबंधी थे। स्रोत न पूछे जाने की शर्त पर उन्होंने बताया कि उनसे कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के लिए उनके (सिन्हा के) नाम पर विचार हो रहा है। फैसला होते ही उन्हें वहां भेज दिया जाएगा।’ दिलचस्प यह है कि इन्हीं जस्टिस माथुर को जनता पार्टी की सरकार के समय गृहमंत्री चरण सिंह ने एक महत्वपूर्ण जांच आयोग की अगुवाई सौंप दी थी। शांतिभूषण ने जस्टिस सिन्हा को पत्र लिख कर पूछा था कि क्या गोल्फ के दौरान जस्टिस माथुर के संबंध में कही बातों की वह पुष्टि कर सकते हैं? जस्टिस सिन्हा के उत्तर को शांतिभूषण ने चरण सिंह को भेज दिया था। चरण सिंह ने इस पत्र पर जस्टिस माथुर की टिप्पणी मांगी थी। जस्टिस माथुर ने तुरंत ही जांच आयोग से इस्तीफा दे दिया था। शांतिभूषण की तरह ही उनके पुत्र प्रशांत भूषण ने भी जस्टिस सिन्हा को दबाव में लेने की कोशिशों का जिक्र किया है। प्रशांत भूषण की किताब ’द केस दैट शुक इंडिया’ के अनुसार, छुट्टियों के एकांत में जस्टिस सिन्हा घर पर फैसला लिखाना चाहते थे। लेकिन तब रोज ही शाम को इलाहाबाद के एक सांसद उनके घर पहुँचने लगे। बाद में सिन्हा को उन्हें मना करना पड़ा। वे तब भी नहीं माने तो जस्टिस सिन्हा ने पड़ोसी जस्टिस पारिख की सहायता ली। उस दौरान उन्होंने घर के बरामदे में भी आना बंद कर दिया और आने वाले लोगों को बताया गया कि जस्टिस सिन्हा अपने भाई के यहां उज्जैन गए हुए हैं। फैसले के कुछ महीनों बाद मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर भी जस्टिस सिन्हा से मिले थे। सांसद के जरिये उन्हें अनुकूल करने की कोशिश का जिक्र जस्टिस सिन्हा ने उनसे भी किया था। प्रशांत भूषण ने लिखा है कि जस्टिस सिन्हा पर जुलाई तक फैसला टालने का दबाव चीफ जस्टिस डीएस माथुर के जरिये डाला गया। जस्टिस माथुर ने देहरादून से उन्हें फोन करके ऐसा करने के लिए कहा। उस समय तक जस्टिस सिन्हा फैसला लिखा चुके थे। नाराज सिन्हा उसी समय हाईकोर्ट पहुँचे और रजिस्ट्रार को बुलाकर फैसले की तारीख 12 जून निश्चित करने के निर्देश दिए। फैसले की गोपनीयता बनाये रखने की बड़ी चुनौती थी। गुप्तचर विभाग फैसले की गंध लेने की कोशिश में था। जस्टिस सिन्हा ने अपने सचिव मन्ना लाल को कसम दिलाई। स्टेनोग्राफर को छुट्टी पर भेज दिया और फैसले के प्रभावी अंश खुद लिखे।

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12 जून 1975 को जस्टिस सिन्हा सुबह 9.55 पर अदालत में पहुँचे। चैंबर खचाखच भरा था। निर्देश दिया गया कि फैसला सुनाए जाने के दौरान अथवा बाद में ताली आदि न बजाई जाए। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हुआ। 258 पेज के फैसले में इंदिराजी का रायबरेली से निर्वाचन दो बिंदुओं पर अवैध और शून्य घोषित किया गया। सरकारी सेवा में रहते हुए चुनाव में यशपाल कपूर की सेवाओं को प्राप्त करने का आरोप सही पाया गया। मंच-माइक्रोफोन-शामियाने आदि की सरकारी खर्च से व्यवस्था के कारण भी उन्हें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (7) के अधीन चुनावी कदाचरण का दोषी पाया गया। अगले छह साल के लिए किसी संवैधानिक पद के लिए उन्हें अयोग्य करार दिया गया। तब टीवी और इंटरनेट का जमाना नहीं था। पत्रकार और खुफिया विभाग के लोग टेलीफोन की ओर भागे। राजनारायण के वकील जश्न के माहौल में समर्थकों से घिरे थे। दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर फैसले को लेकर फिक्र साफ महसूस की जा रही थी। टेलीप्रिंटर पर निगाह गड़ी हुई थी। समाचार एजेंसी यूएनआई की खबर फ्लैश होते ही इंदिराजी को इसकी सूचना दी गई। इधर हाईकोर्ट में इंदिराजी के वकील जस्टिस सिन्हा के रिटायरिंग रूम में सुप्रीम कोर्ट में अपील तक फैसले पर स्टे की गुजारिश कर रहे थे। जस्टिस सिन्हा ने कहा कि इसके लिए उन्हें दूसरे पक्ष को सुनने का अवसर देना होगा। राजनारायण के वकीलों के पहुँचने तक जस्टिस सिन्हा अपने फैसले का क्रियान्वयन 20 दिन के लिए स्थगित कर चुके थे। राजनारायण के वकीलों ने इस पर एतराज किया। निवेदन किया कि अवकाश में अदालत केवल फैसला सुनाने के लिए बैठी थी। उसे स्टे जारी करने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार केवल अवकाशकालीन पीठ को है। जस्टिस सिन्हा ने ’अब दूसरी गलती नहीं’ की टिप्पणी के साथ स्टे ऑर्डर रद्द करने से इनकार कर दिया। इस फैसले के अलावा भी 12 जून 1975 की तारीख इंदिराजी के लिए दुःख और चिंताएं बढ़ाने वाली थी। उनके भरोसेमंद सलाहकार डीपी धर की उसी दिन दुःखद मृत्यु हो गई। उधर इसी दिन उस दौर के आंदोलन के शुरुआती केंद्र गुजरात से विधानसभा चुनाव में विपक्ष का जनता मोर्चा अपनी जीत दर्ज कर रहा था।
इलाहाबाद की अदालत के इस फैसले की गूंज अब देश के कोने-कोने में थी। फैसले पर 20 दिन का विराम था लेकिन विपक्षी इंदिराजी का फौरन इस्तीफा चाहते थे। अदालती लड़ाई का एक चरण पूरा हो चुका था लेकिन असली संघर्ष सड़कों पर शुरू हो चुका था। जबाब में इंदिराजी के समर्थक भी खुलकर मैदान में थे और उन पर किसी भी हाल में इस्तीफा न देने का दबाव बनाए हुए थे। कुछ ऐसा बड़ा जो इस देश के इतिहास में कभी नहीं हुआ था, की आहट महसूस की जा रही थी। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी.कृष्णा अय्यर की अवकाशकालीन एकल पीठ ने हाईकोर्ट के 12 जून के आदेश के क्रियान्वयन पर सशर्त रोक लगा दी। इस आदेश के तहत इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री पद सुरक्षित हुआ। वह संसद में बैठ सकती थीं लेकिन उन्हें सांसद के तौर पर सदन में वोट देने का अधिकार नहीं था। अगले ही दिन 25 जून को इंदिराजी ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी। विपक्षियों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के साथ ही नागरिकों को उनके मूल अधिकारों से वंचित कर दिया गया। उस सबकी एक अलग गाथा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए संविधान में 39वां संशोधन किया गया जिसके तहत राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के निर्वाचन को अदालती चुनौती से बाहर कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट में संविधान का यह संशोधन तो नहीं टिक पाया लेकिन जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में पूर्वगामी प्रभाव से किये गए संशोधनों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इंदिराजी की अपील स्वीकार किये जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 7 नवम्बर 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अपील मंजूर कर ली। हाईकार्ट के फैसले पर स्टे देने वाले सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अय्यर से कुलदीप नैयर ने पूछा था कि क्या स्टे के पहले उनसे कोई मिला था? नैयर के मुताबिक उन्होंने कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे और जस्टिस पी.एन. भगवती की मुलाकात का जिक्र किया था। नैयर का निष्कर्ष था कि जस्टिस भगवती ने उन्हें हर पहलू पर गौर करने की सलाह दी। वर्षों बाद जस्टिस अय्यर ने कहा कि लोग उन्हें इमरजेंसी लागू किये जाने का जिम्मेदार मानते हैं। नैयर ने जबाब दिया था कि लोग सही सोचते है।
….और जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा। इमरजेंसी में उनके कागजों और सम्पर्कों की गहरी छानबीन हुई। उन्हें और उनके स्टाफ़ को काफी दबाव-तनाव से गुजरना पड़ा। जनता पार्टी की सरकार में शांतिभूषण देश के कानून मंत्री बने। उन्होंने जस्टिस सिन्हा के सामने हिमांचल प्रदेश हाईकोर्ट में स्थानांतरण की पेशकश की, जहाँ आगे उनको चीफ जस्टिस के पद पर नियुक्ति मिलती। जस्टिस सिन्हा ने विनम्रतापूर्वक यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। 1982 में वह इलाहाबाद हाईकोर्ट से ही रिटायर हुए। मूलतः बरेली के वाशिंदे जस्टिस सिन्हा ने जिंदगी के अगले 26 साल इलाहाबाद में खामोशी के साथ पढ़ने और बागवानी के शौक के बीच गुजारे। 87 साल की उम्र में 20 मार्च 2008 को उनका निधन हुआ। शांतिभूषण ने उनके विषय में लिखा, ’वे बहुत महत्वाकांक्षी नहीं थे। वे इस बात से संतुष्ट थे कि एक काबिल, ईमानदार शख्स के तौर पर उन्हें याद किया जाए।’ प्रशांत भूषण की किताब की भूमिका में देश के चीफ़ जस्टिस रह चुके तत्कालीन उपराष्ट्रपति मोहम्मद हिदायतुल्लाह ने जस्टिस सिन्हा की तुलना वाटरगेट कांड का फैसला देने वाले जस्टिस जॉन सिरिका से की। इस फैसले के चलते अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन इस्तीफा देने को मजबूर हो गए थे। जज जॉन सिरिका से उनकी जो तुलना बाद में हुई, उसके संकेत एक युवक ने याचिका के फैसले के पहले ही दे दिए थे। बाद में विदेश मंत्रालय में सचिव रहे राजनयिक विवेक काटजू अपने जज पिता के साथ उस पार्टी में मौजूद थे, जिसमें जस्टिस सिन्हा भी शामिल थे। विवेक काटजू ने जस्टिस सिन्हा से कहा था, ’अंकल आपके नाम के शुरुआती दो अक्षर जॉन सिरिका से मिलते हैं।“ सिन्हा साहब ने हँसते हुए कहा था, बहुत बदमाश हो गए हो। लेकिन यहाँ फर्क था। इंदिरा जी ने इस्तीफे की जगह इमरजेंसी लागू करने का रास्ता चुना। वह इमरजेंसी जिसके बचाव में आज भी कांग्रेस पार्टी को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जहाँ तक जस्टिस सिन्हा का सवाल है, प्रधानमंत्री के खिलाफ फैसले के पहले और बाद दोनो ही मौकों पर प्रलोभनों को ठुकरा कर न्यायिक इतिहास में उन्होंने अपना सम्मानजनक स्थान सुरक्षित कर दिया।

(लेखक अधिवक्ता व सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं।)

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