महाभारत में द्रौपदी के चरित्र के साथ नहीं हुआ न्याय

हेमंत शर्मा

पूरे महाभारत में द्रौपदी सवाल करती है। पुरुषवादी व्यवस्था को चुनौती देती है। जब पाँचों पति द्रौपदी को जुए में हार गए तो तिलमिलाई द्रौपदी ने भरी सभा में धर्मराज से सवाल पुछवाया- ‘जाकर पूछो उस जुआरी महाराज से कि पहले मुझे हारे थे या खुद को। अगर वे पहले खुद को दाँव पर लगाकर दास बन चुके हैं तो उन्हें मुझे हारने का हक नहीं, क्योंकि दास के पास फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिस पर वह अपना स्वामित्व चलाए।’ द्रौपदी का व्यवहार यहां युक्तिसंगत है। जब धर्मराज ने सब कुछ जुए में गँवा दिया। कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण हो गया तो फिर किसी संभावित अनिष्ट को टालने के लिए धृतराष्ट्र ने द्रौपदी से तीन वर माँगने को कहा। यहाँ भी द्रौपदी ने विवेक का इस्तेमाल किया। पहले वर में धर्मराज को दासता से मुक्त कराया। दूसरे वर में बाकी चार भाइयों को शस्त्रों के साथ छुड़ाया। तीसरे वर में वह कुछ भी माँग सकती थी, पर नहीं माँगा। किसी और वस्तु का लोभ न कर उसने खुद को ही नहीं, बल्कि पांडवों को भी अपमान से बचाया। उसकी इस विवेकशीलता की तारीफ खुद कर्ण ने की। महाभारत में द्रौपदी के साथ जितना अन्याय होता दीखता है, उतना अन्याय इस महाकथा में किसी अन्य स्त्री के साथ नहीं हुआ। द्रौपदी ने स्वयंवर में केवल अर्जुन को वर चुना था। लेकिन उसे पाँचों पांडवों को अपना पति स्वीकार करना पड़ा। महाभारत काल में बहुपति विवाह का प्रचलन नहीं था। यह उससे पहले की अवस्था थी। फिर भी महाभारतकार ने कुंती के बहाने द्रौपदी का विवाह पाँचों भाइयों से करा दिया। द्रौपदी के सवाल पर महाभारत से पहले घर में ही महाभारत हो जाती। इसलिए युधिष्ठिर ने कहा, कल्याणकारी द्रौपदी हम सब भाइयों की पत्नी होगी। स्वयंवर अर्जुन ने जीता था, लेकिन बड़े भाई युधिष्ठिर और भीम के रहते उसका विवाह कैसे होता? यह पाप होता। वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में इसका प्रमाण मिलता है। बड़े भाई की पत्नी पर छोटे भाई का अधिकार तो था, पर इसका उलटा नहीं हो सकता था। इसलिए कुंती के मन की इच्छा थी कि वह सबकी होकर रहे और द्रौपदी पाँचों पॉडवो की पत्नी हो गई। यदि वह एक की होकर रहती तो इससे पांडवों की एकता भी टूटती।
कुंती के इस फैसले से द्रौपदी इनकार नहीं कर सकी। न चाहते हुए इसे मंजूर किया। वह जानती थी कि पाँच पतियों की पत्नी होकर वह उपहास की पात्र बनेगी। फिर भी उसने इसका वैसा मुखर विरोध नहीं किया। जैसा उसने जुए में खुद के हारे जाने पर किया था। शायद पृथ्वी पर धर्म की स्थापना के लिए यह आवश्यक था। जैसा कि युधिष्ठिर ने तर्क दिया था, द्रौपदी ने फिर भी बिना तर्क-वितर्क किए पाँचों पांडवों का वरण किया। इसका क्या कारण हो सकता है? क्या वह खुद पाँचों पांडवों के प्रेम में थी? द्रौपदी जैसे जटिल चरित्र के लिए एक पति काफी नहीं था। कीचक वध प्रसंग में यह बात साफ भी हो जाती है। बहरहाल, महाभारत इस सवाल पर मौन है। लेकिन पाँच पतियों की पत्नी के नाते भी द्रौपदी का आचरण आदर्श और अनुकरणीय माना गया तथा महाभारतकार ने उसके इस पत्नी रूप को देवी गरिमा दी। महाभारतकार ने द्रौपदी को प्रखर नारीवादी रूप में महिमामंडित किया है। उसके तर्क अकाट्य हैं। द्रौपदी दाँव पर लगा दी गई। पांडव उसे जुए में हार गए। वह कौरवों की संपत्ति हो गई। द्रौपदी ने युधिष्ठिर के धर्म को चुनौती दी। द्रौपदी कहना चाहती थी कि जो खुद को हार चुका हो, वह किसी का स्वामी कैसे हो सकता है? फिर वह अकेले युधिष्ठिर की पत्नी नहीं थी। वह पाँचों पांडवों की पत्नी थी। तो अकेले युधिष्ठिर उसे दाँव पर कैसे लगा सकते हैं? द्रौपदी धर्म पर भी बहस करती है। दुर्योधन का तर्क था-हमने तुम्हें धर्म के अनुसार प्राप्त किया है, अब तुम हमारी संपत्ति हो। तुम कौरवों की सेवा करो। दुःशासन द्रौपदी के बाल खींचता हुआ घसीटकर उसे सभा में लाया। द्रौपदी ने हिम्मत नहीं हारी। वह दुःशासन से कहती है, देखती हूँ, कोई भी मनुष्य तेरे इस कुकर्म की निंदा क्यों नहीं कर रहा? द्रौपदी की इस ललकार के बावजूद विकर्ण के अलावा कोई उसके पक्ष में खड़ा नहीं होता। हाँ, पूरी सभा दुर्योधन और दुःशासन को वह धिक्कारती जरूर है। यहीं द्रौपदी जीतती लगती है। अंत में शर्मिंदा होकर भीम को भी कहना पड़ता है, जुआरियों के घर प्रायः कुलटा स्त्रियाँ रहती हैं, लेकिन वे भी उन्हें दाँव पर नहीं लगाते। उन कुलटाओं के प्रति भी उनके मन में दया रहती है। जब हस्तिनापुर के तमाम बुजुर्ग और वरिष्ठ दरबारी इस अन्याय के सामने तमाशबीन थे, उसके पति और श्वसुर भी चुपचाप बैठे थे। और कोई प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं था, तो भी द्रौपदी ने भरी सभा में अधर्म के खिलाफ आवाज उठाई। चीरहरण से तो वह एक दैवी चमत्कार के चलते बची। माधव ने उसके वस्त्र को अनंत आकार देकर दुःशासन के पसीने छुड़वा दिए।
यह सही नहीं है कि द्रौपदी के अपमान का बदला लेने के लिए महाभारत का युद्ध हुआ था। पांडव सिर्फ राज्य चाहते थे, द्रौपदी के अपमान का बदला नहीं, न ही धर्म की स्थापना। वह आधा राजपाट लेने पर भी राजी थे। अगर आप महाभारत में युधिष्ठिर का भाषण पढ़ें तो उसका सारा निचोड़ किसी भी तरह से युद्ध को टालने और अपना हिस्सा प्राप्त करने का है। भीम भी कहते हैं कि उनसे कहो कि हिस्सा दें, सर्वनाश न करें। तब द्रौपदी को कहना पड़ा-कृष्ण, जिसने मेरे बाल खींचे, जिनके पापी हाथ मेरे बालों को लगे, उनके प्रति दया मत करना। कुंती ने भी ऐसा संदेश युधिष्ठिर को कहलवाया था। जैसे कोई भीख माँग रहा हो-आधा न भी मिले तो पांडव पाँच गाँव से भी संतुष्ट हो जाते। यह बात अलग है कि कौरवों ने उन्हें वह भी देने से मना कर दिया। लेकिन द्रौपदी को राजपाट नहीं चाहिए था। उसका मानना था कि सच्चा धर्म नारी का सम्मान करने में है। उसे अपमानित करने वाला दंड का भागीदार है। उसने युधिष्ठिर को कीचक वध के लिए प्रेरित किया। पर युधिष्ठिर का कहना था, अभी इसका वक्त नहीं आया है। द्रौपदी के लिए यह अपमानजनक था। वह कीचक वध के लिए भीम के पास जाती है। वह जानती है कि भीम को आसानी से भड़काया जा सकता है। भीम मल्लयुद्ध में कीचक की हत्या करते हैं। द्रौपदी उसके मृत शरीर को देखकर प्रसन्न होती है। पर द्रौपदी इससे भी संतुष्ट नहीं। वह चाहती है कि लोग उसकी शक्ति को पहचानें, क्योंकि वह साधारण दासी नहीं है। वह कीचक के रक्षकों से कहती है, अंदर जाकर देखो, परायी स्त्री के प्रति बुरी नजर रखने वाले कीचक का मेरे गंधर्व पतियों ने क्या हाल किया है। अपने पतियों को लेकर द्रौपदी के मन में एक अहंकार दिखता है। शायद इसी अहंकार की पूर्ति के लिए उसने अपने लिए पाँच पति वरण किए थे। पर यह बात दूसरी है कि इन पाँच पांडवों में अक्सर वृहन्नला और शिखंडी नजर आते रहे। यानी द्रौपदी महाभारत की एकमात्र वजह नहीं थी। जिस दिन बड़े बेटे के होते हुए अंधे धृतराष्ट्र को अलग रखकर पांडु को गद्दी दी गई, उसी रोज इस युद्ध के बीज बो दिए गए थे। तभी से धृतराष्ट्र और पांडु के बेटों में रार पनपी।
द्रौपदी संपूर्ण नारी थी। घर की चहारदीवारी में उसने घरेलू महिला की तरह नारी के आदर्श प्रस्तुत किए। वह कार्यकुशल थी और लोकव्यवहार के साथ घर-गृहस्थी में भी पारंगत। पाँचों पति उसकी मुट्ठी में थे। अपने कार्य-व्यवहार के कारण वह पाँचों पांडवों के लिए सम्मानित थी। द्रौपदी का अपने पतियों के प्रति समभाव था। वह पाँचों से संतुष्ट थी। उसे विचलित नहीं किया जा सकता था। इसका संकेत आदिपर्व में कर्ण ने एक प्रसंग में किया है। दुर्योधन ने कई बार सोचा कि पांडवों में भेद पैदा किया जाए। दुर्योधन ने यह कोशिश भी की, ताकि किसी तरह द्रौपदी को फोड़ लिया जाए। लेकिन द्रौपदी जैसी असाधारण नारी के भीतर भी एक साधारण नारी छिपी थी, जिसमें प्रेम, ईर्ष्या, डाह जैसी समस्त नारी-सुलभ दुर्बलताएँ मौजूद थीं। द्रौपदी के खुद पाँच पति थे, लेकिन अर्जुन को लेकर उसके मन में अधिक प्रेम था। किंतु उनसे जुड़ी महिलाओं के लिए द्रौपदी के मन में सहज व स्वाभाविक ईर्ष्या भावना थी। अर्जुन ने कृष्ण के इशारे पर सुभद्रा का हरण किया। अर्जुन ने सुभद्रा से विवाह किया। यह राजनीतिक विवाह नहीं था, एक तरह से प्रेम विवाह था। ऐसे में द्रौपदी को बुरा लगना स्वाभाविक था। विवाह के बाद अर्जुन द्रौपदी से मिलने आए तो द्रौपदी ने अर्जुन पर व्यंग्य-बाण छोड़े। ‘हे कुंतीपुत्र, यहाँ क्यों आए हो। वहीं जाओ जहाँ वह सात्वत वंश की कन्या सुभद्रा है।’ सच है, बोझ को कितना ही कसकर बाँधा जाए, जब उसे दूसरी बार बाँधते हैं तब पहला बंधन ढीला पड़ जाता है। पाँच भाइयों में बँटी द्रौपदी ने इतिहास को दिया अपना वचन निभाती रही। यहाँ भी द्रौपदी बेजोड़ है। स्त्रीत्व की गरिमा का इतिहास उसके आगे नतमस्तक है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि महाभारतकार ने द्रोपदी के चरित्र के साथ न्याय नहीं किया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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