प्रेस की आजादी के प्रतीक थे रामनाथ गोयनका

जन्म दिन (18 अप्रैल) पर विशेष

सुरेंद्र किशोर

देश के एक बड़े नामी संपादक ने अपने यहां दीवाल पर सिर्फ रामनाथ गोयनका की तस्वीर लगा रखी थी, किसी पत्रकार की नहीं। गोयनका जी को वे प्रेस की स्वतंत्रता के प्रतीक पुरुष मानते थे। हालांकि उस संपादक ने कभी ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समूह में काम नहीं किया जिसके गोयनका जी मालिक थे। गोयनका जी स्वतंत्रता सेनानी थे। संविधान सभा के सदस्य थे। दो बार राजस्थान से लोक सभा के सदस्य चुने गए थे। यानी, वे सामान्य अखबार मालिकों से अलग थे। वे जानते थे कि यदि अपने अखबार की स्वतंत्रता बनाए रखनी हो तो अखबार को सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। इसीलिए उन्होंने देश के कुछ महानगरों में अपनी बहुमंजिली इमारतें बनवाईं। इमारत के कुछ स्थानों में अखबार के प्रेस व ऑफिस वगैरह रहे। बाकी को किराए पर उठा दिया। किराए के पैसों से अखबार का घाटा पूरा होने लगा। हालांकि अखबार में आज जैसी शाहखर्ची नहीं थी। मालिक गोयनका अपनी फिएट के खुद ही ड्रायवर थे। एक्सप्रेस समूह से जुड़े दैनिक जनसत्ता में मैंने 18 साल तक (1983-2001) पटना से काम किया। खबरें टाइप करने के लिए हम ‘वन साइड पेपर’ का इस्तेमाल करते थे। हमें रोज-रोज जो बहुत सारी प्रेस विज्ञप्तियां मिलती थीं, उनकी ‘पीठ’ सादी रहती थी। उसे हम ‘वन साइड पेपर’ कहते थे। यानी, एक्सप्रेस में इसी तरह की मितव्ययिता की जाती थी। नतीजतन हमारी स्वतंत्रता बनी रहती थी। चाहे हम एकतरफा ही क्यों न लिखें। कई बार हम एकतरफा जरूर होते थे, किंतु गलत नहीं। चंद्रशेखर सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार सरकार के जन संपर्क विभाग के एक बड़े अफसर मेरी शिकायत लेकर संपादक प्रभाष जोशी से दिल्ली में मिले थे। कहा कि आपके संवाददाता हमारी सरकार के खिलाफ बहुत लिखते रहते हैं। जोशी जी ने कहा कि गलत लिखते हैं क्या? उन्होंने कहा कि गलत तो नहीं लिखते लेकिन पुरानी बातें लिखते रहते हैं जिनका अब कोई मतलब नहीं। अफसर साहब साथ में जनसत्ता के लिए एक पेज का सरकारी विज्ञापन भी लेकर गए थे। जोशी जी ने जवाब दिया कि ‘आप ऐसी पार्टी की सरकार का बचाव करने आए हैं जिस पार्टी की प्रधानमंत्री कहती हैं कि हमने एनटी रामाराव सरकार की बर्खास्तगी की खबर टेलीप्रिंटर पर देखी।’ उसके बाद अपना विज्ञापन समेट कर अफसर साहब लौट आए। ऐसा रामनाथ गोयनका के कारण ही संभव होता था। गोयनका जी के जीवनकाल में ऐसे अनेक उदाहरण आए दिन एक्सप्रेस समूह में देखे जाते थे जहां खबरों के सामने सरकारी विज्ञापनों की परवाह नहीं की जाती थी।
यह आरोप सही नहीं है कि गोयनका जी नेहरू परिवार के सदा खिलाफ रहे थे। हां, वे सभासद के रूप में नेहरू जी का तब विरोध करने वालों में शामिल थे, जब वे यानी नेहरू डा. राजेंद्र प्रसाद के बदले सी. राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनवाने की जिद कर रहे थे। याद रहे कि सरदार पटेल के हस्तक्षेप के कारण अंततः राजेन बाबू ही प्रथम राष्ट्रपति बने। तब कई बड़े नेताओं को यह लगता था कि देश की सत्ता के सभी शीर्ष पदों पर एक ही जाति का व्यक्ति नहीं होना चाहिए। गोयनका जी ने फिरोज गांधी को पचास के दशक में एक्सप्रेस का प्रबंध निदेशक बनाया था। एक्सप्रेस की जमीन के लीज के कागज पर एक्सप्रेस की ओर से फिरोज गांधी का ही हस्ताक्षर हुआ था। प्रारंभिक काल में जब राजीव गांधी ने यह संकेत दिया कि वे ‘‘मिस्टर क्लीन’’ हैं तो गोयनका जी ने राजीव के बाल सखा सुमन दुबे को एक्सप्रेस का संपादक बनाया। पर, जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स तथा कुछ अन्य घोटालों को लेकर सरकार का व अपना अतार्किक बचाव करने लगे तो एक्सप्रेस समूह केंद्र सरकार से उलझ पड़ा। उसकी कीमत भी एक्सप्रेस को चुकानी पड़ी थी। उसकी परवाह गोयनका जी को कभी नहीं रही। गोयनका जी मूल रूप से बिहार (दरभंगा जिला) के ही निवासी थे। बाद में वे ‘लोटा-डोरी लेकर’ मद्रास चले गए और उन्होंने वहां छोटा अखबार शुरू किया जो बाद में देश भर मेंं फैला।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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