कटघरे में तो आयें वकील साहबान!

के. विक्रम राव

गत सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने वरिष्ठ वकीलों के जमीर को कचोटा। मसला था कि पैरवी हेतु मुकदमा स्वीकारने की बेला पर जुड़े हुये पहलुओं पर वे क्या गौर फरमाते हैं? याचिका के जनपक्ष पर सोचते हैं? हालांकि अभी वस्तुस्थिति यही है कि अर्थ ही प्रधान है, शुभलाभ ही मात्र प्रयोजन है? वकीलों द्वारा हिचकते उत्तरों के कारण उनकी सभी याचिकायें खारिज हो गयीं। यदि भारत की बार काउंसिल सदस्यों को अपने निर्मल मन की बात को मान कर नैतिकतापूर्ण फैसला करने पर सहमत करा ले तो राष्ट्र की न्यायप्रक्रिया सुघड़ होगी। उसमें लोकास्था मजबूत होगी। अन्याय के अंजाम में जनविप्लव की आशंका दूर होगी। वर्ना जनता की सहनशक्ति असीमित नहीं है। कुचले जाने के पूर्व चींटी भी डंक मार ही देती है।
मुद्दा (8 जून 2021) का सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ वाला है। न्यायमूर्ति द्वय इन्दिरा बनर्जी तथा मुक्तेश्वरनाथ रसिकलाल शाह की अदालत का है। बचाव पक्ष के वकील महोदय दो खाद्य व्यापारियों, प्रवर और विनीत गोयल (नीमच, मध्य प्रदेश), के लिये अग्रिम जमानत की पैरवी कर रहे थे। इन दोनों पर आरोप है कि वे मिलावटी खाद्य पदार्थ का विक्रय करते हैं। गेहूं को पोलिश कर बेचते थे। उन पर मुकदमा कायम हुआ और गिरफ्तारी का अंदेशा है। सुनवाई के दौरान खण्डपीठ ने पूछा, ’’वकील साहब, क्या आप तथा आपके कुटुम्बीजन उस अन्न को खा सकेंगे?’’ पीठ ने फिर पूछा भी, ’’इतने सरल प्रश्न का उत्तर देना क्यों कठिन है? या फिर जनता मरे, उसकी क्यों फ़िक्र करें?’’ तार्किक अंत हुआ कि अग्रिम जमानत की याचिका खारिज हो गयी। पिछले सप्ताह ऐसा ही मिलता-जुलता एक और मुकदमा आया था। वह भी मिलावटी खाद्य पदार्थ की बिक्री का था। न्यायमूर्ति द्वय भूषण रामकृष्ण गवयी और कृष्ण मुरारी ने कारोबारी दिव्यलोचन बेहरा की अग्रिम जमानत की याचिका नामंजूर कर दी। उस पर आरोप लगा था कि वह घी में अपमिश्रण कर बेचता था। उनके वकील ने (4 जून 2021) खण्डपीठ को तर्क दिया कि उनका मुवक्किल दीपक जलाने के लिये घी मंदिर को सप्लाई करता था। खाने हेतु नहीं। इस पर न्यायमूर्तियों का अगला प्रश्न था, ’’तो आपकी मिर्च वाली सॉस (चटनी) क्या देवमूर्ति पर लेप लगाने के लिये थी या अभिषेक हेतु? आपका हर उत्पाद मिलावटी है।’’ खण्डपीठ का आक्रोश था कि आप लोग अपने नकली उत्पाद से एक व्यक्ति नहीं पूरे समाज को मार रहे है। यह अपराध हल्के में नहीं लिया जा सकता है। आस्था का मसला नहीं उठा कि भगवान को नकली सामग्री पेश करते हो? अतः मूलभूत प्रश्न यही है कि यदि वकील महोदय सुविचार कर पैरवी हेतु मुवक्किल को हामी भरें तो न्याय का वेश्याकरण नहीं होगा। उदाहरणार्थ रेप के मुकदमों को आत्ममंथन के बाद स्वीकारना चाहिये। हर वकील को यह याद रखना चाहिये। इसी विषयवस्तु पर बनी दक्षिण भारत की एक फिल्म (जख्मी औरत) जिसमें अधिवक्ता की भूमिका में अनुपम खेर अपने मुवक्किल कुछ बलात्कारी युवकों को साफ बचा लेते हैं। मगर वे युवक फिर वकील साहब की बेटी को ही उठा ले जाते हैं। तब अनुपम खेर को पर पीड़ा का एहसास होता है। वकील साहब सुधर जाते है, क्योंकि तब खुद पर जो बीतने लगी। अतः ऐसी आचार संहिता इन वकीलों को स्वयं गढ़नी चाहिये। बार काउंसिलों को लागू करनी चाहिए। इसी भांति अग्रिम जमानत का प्रावधान रखा गया था ताकि नागरिक स्वतंत्रता का इरादतन हनन रोका जाये। आखिर हर व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता का मूलाधिकार है। खासकर जब कार्यपालिका अन्यायी हो जाये। डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा भी था, ’’यदि सड़क खामोश हो गयी, तो संसद आवारा हो जायेगी।’’ न्यायतंत्र पर भी यही लागू होता है।

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इस बिन्दु पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति द्वय धनंजय यशवंत चन्द्रचूड और इन्दु मलहोत्रा ने एक संपादक की कैद पर कुछ माह पूर्व कहा था, ’एक दिन के लिये भी नागरिक की स्वतंत्रता का हरण अमान्य है।’ इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश अपराध संहिता (यूपी संशोधन) बिल 2018 को (12 जून 2019) पारित कर अग्रिम जमानत के प्रावधान को वापस लाने के लिये योगी आदित्यनाथ की सरकार सबके जनवादी आभार की हकदार बनी। इमरजेंसी (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) के दौरान इन्दिरा गांधी सरकार ने अग्रिम जमानत के अधिकार का खात्मा कर दिया था। हालांकि 2010 में मायावती सरकार ने इसी बिल को पारित किया था। किन्तु सोनिया गांधी नीत संप्रग सरकार (सरदार मनमोहन सिंह वाली) ने स्वीकारा नहीं था। तब राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने स्पष्टीकरण हेतु बिल लौटा दिया था। स्वीकृति नहीं दी थी। तीन दशक लगे यह अधिकार पुनः प्राप्त करने में। यहां एक निजी घटना का उल्लेख अत्यंत प्रासंगिक होगा। दो अत्यंत महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधान थे। यदि पुलिस साठ दिन में आरोपपत्र (चार्जचीट) अदालत में नहीं दाखिल कर पायी तो मुलजिम को जमानत मिल जाती थी। इन्दिरा गांधी सरकार ने इस अवधि को दूना (चार महीने) कर दिया। दूसरा नियम था कि जो बयान पुलिस के समक्ष दर्ज हुआ वह न्यायालय में बतौर प्रमाण साक्ष्य नहीं होता है। इमरजेंसी में संहिता का संशोधन कर पुलिसिया रपट को भी पुख्ता सबूत मान लिया गया। अर्थात यदि बाहें मरोड़कर पुलिस झूठे बयान पर हस्ताक्षर करा ले तो वह न्यायिक तौर पर स्वीकार्य होगा। हम बड़ौदा डायनामाइट केस के अभियुक्तों को जेल में बंद रखने के लिये दोनों संशोधन रातों-रात पारित किये गये थे। मुझे जब गुजरात हाईकोर्ट ने साठ दिन बाद जमानत दे दी थी तो कांग्रेस सरकार ने मेरे वकील को ही कैद कर लिया और मुझे मीसा (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) के तहत जेल परिसर में दोबारा गिरफ्तार कर लिया था। अभी भी भारत राष्ट्र राज्य नागरिक आजादी की सुरक्षा पर अनुदार ही है। यहीं विचारवान, न्यायप्रिय और लोकपक्षधर वकीलों की भूमिका का महत्व बढ़ जाता है। बार काउंसिल का दायित्व बढ़ जाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं।)

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