Thursday, July 10, 2025
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विष्णु अवतारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कृष्णावतार

डा. माधव राज द्विवेदी

अखिल रसानन्दमूर्ति लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अवतरण दिवस को जन्माष्टमी पर्व के रूप में मनाया जाता है। भविष्योत्तर पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर से कहलवाया है कि मैं वसुदेव एवं देवकी से भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी को उत्पन्न हुआ था। उस समय सूर्य सिंह राशि में था, चन्द्र वृष राशि में और नक्षत्र रोहिणी था। हरिवंश पुराण में कृष्ण जन्म अभिजित् नक्षत्र में माना गया है और वराह पुराण में उनका जन्म आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वादशी को माना गया है। सम्प्रति भारत में कृष्ण जन्मोत्सव भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को ही मनाया जाता है। कृष्ण पूजा भारत में अति प्राचीन काल से चली आ रही है। छान्दोग्य उपनिषद् में उन्हें देवकी पुत्र और घोर आंगिरस का शिष्य बताया गया है।

वैदिक काल में कृष्ण को एक कवि के रूप में उल्लिखित किया गया है। उन्होंने ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अश्विनी कुमारों की स्तुति की है। अनुक्रमणी में ऋग्वेद के आठवें मण्डल का छियासीवां और सत्तासीवां सूक्त कृष्ण आंगिरस का बताया गया है। जैन परम्परा में कृष्ण बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के समकालीन माने गए हैं। जैनों के प्राक् इतिहास में वर्णित तिरसठ महापुरुषों के विवरण में लगभग एक तिहाई भाग कृष्ण से सम्बंधित है। महाभारत के कृष्ण चरित में अलौकिकता के साथ-साथ लोकरक्षा और लोकमंगल के भावों का समावेश हो जाने के कारण वहां उन्हें राजनीतिज्ञ, शूर वीर वेद वेदांग विज्ञान वेत्ता और धर्मोपदेशक के रूप में चित्रित किया गया है।

पुराण साहित्य में कृष्ण चरित में ईश्वरत्व की भावना के साथ साथ माधुर्य भाव का यथेष्ट समावेश किया गया तथा उपासना के क्षेत्र में उनके लोकरक्षक और लोक मंगलकारी व्यापक स्वरूप के बदले घनिष्ठ प्रेम का आलम्बन बनने योग्य उनके माधुर्य भाव पूर्ण स्वरूप को अधिक प्रश्रय देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। श्रीमद्भागवत पुराण, हरिवंश पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण के इसी उत्तरोत्तर वर्धमान् रागात्मक प्रवृत्ति की मधुर परिणति हैं।

कृष्णावतार
कृष्णावतार

विष्णु के सभी अवतारों में कृष्ण के सर्वाधिक महत्त्व का कारण उनका बहुआयामी व्यक्तित्व तो है ही, साथ ही विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियां भी उन्हें अन्य अवतारों से विशिष्ट बना देती है। कृष्ण के प्रति भारतीय जनमानस के अधिक झुकाव का मूल कारण बौद्धों का निषेध वाद है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में काशी और मथुरा को छोड़कर सम्पूर्ण जम्बू द्वीप में बौद्ध धर्म की पताका फहराने लगी थी। बौद्ध धर्म का मूलाधार था इच्छा का अवदमन। बौद्धों के अनुसार दुःख सत्य है और दुःख का कारण है इच्छा। दुःखों से पूर्ण मुक्ति के लिए कामना का दमन आवश्यक है। इस तरह जीवन विरोधी निषेध प्रधान दृष्टि लेकर बौद्ध धर्म आगे आया। परिणामस्वरूप ब्राह्मण धर्म को इच्छा शक्ति की पक्षधर कृष्ण भक्ति का आश्रय लेना पड़ा और इस तरह कृष्ण अन्य अवतारों से विशिष्ट बनते गए।

कृष्ण इच्छा शक्ति के पूर्ण प्रतीक हैं। क्लीं बीज कामाख्या के समान कृष्य का भी है। इसे काम बीज कहते हैं, तो कृष्ण भक्ति के बढ़ने का यही मुख्य कारण बना। युगों के दूसरे दौर पर आए शंकराचार्य। उनका मायावादी शुष्क वेदान्त भी इच्छा शक्ति का तिरस्कार ही है। परमा प्रकृति उसमें शून्य तो नहीं परन्तु मिथ्या अवश्य है। अतः उनके इस मत के विरुद्ध रामानुजाचार्य ने प्रतिपादित किया कि प्रकृति भी सत्य है क्योंकि वह भगवान् की शक्ति है। जड़ चेतनमय परमा प्रकृति की वकालत करते समय उन्हें भी इच्छा शक्ति के बड़े पक्षधर कृष्ण के अवतार को प्रोत्साहन देना पड़ा। परिणामस्वरूप कृष्ण का महत्व बढ़ता गया और अन्य अवतारों के प्रसंग पतले होते गए। निम्बार्क और बल्लभ तक आते आते कृष्ण इच्छा शक्ति, काम बीज के प्रबल गीतात्मक आकर्षण के कारण पूर्णावतार बन गए।

इतिहास ने पलटा खाया और भारत में यवनों का राज स्थापित हो गया। यवनों ने हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का अभियान चलाया, शिल्पी तो राजाश्रय के लोभ में स्वयं मुसलमान बन गए। अपने धर्म को बचाए रखने के लिए आकर्षक धर्म साधना के सिवा हिन्दुओं के लिए कोई अन्य मार्ग नहीं बचा। इसके भी उपयुक्त माध्यम कृष्ण ही थे। अतः सोलहवीं शताब्दी तक आते आते कृष्ण पूर्णावतार बन गए। कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। आनन्द कन्द ब्रजचन्द्र श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के अवसर पर सभी मित्रों आत्मीय जनों एवं देशवासियों को हार्दिक बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएं….
(लेखक एमएलके पीजी कालेज बलरामपुर में संस्कृत विभागाध्यक्ष रहे हैं।)

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