वीर अब्दुल हमीद जयंती (1 जुलाई) पर विशेष
एक दिन एक महिला भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित फिरोजपुर की अंतिम सैनिक छावनी में घूम रही थीं। तभी उनकी नजर 4 ग्रेनेडियर्स के क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद के पोस्टर पर पड़ी। वीर अब्दुल हमीद को 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान खेमकरण सेक्टर में पाकिस्तान के कई पैटन टैंकों को तबाह करने के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि भारत में बहुत से लोग वीर अब्दुल हमीद की इस वीरता से अब तक अनजान हैं। जिन महिला ने वह पोस्टर देखा, उनका नाम रचना बिष्ट रावत था। उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया कि ‘वीर अब्दुल हमीद, आपकी कहानी मैं पूरी दुनिया के सामने लाऊंगी’ और इसी संकल्प से जन्मी किताब ‘द ब्रेव: परमवीर स्टोरीज’।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल स्थित गाजीपुर जिले के एक साधारण मोमिन परिवार में जन्मे अब्दुल हमीद ने हर बाधा को पार कर वीरता और साहस की अद्वितीय मिसाल पेश की। उनका जन्म गाजीपुर के धामूपुर गांव में हुआ था। माता का नाम सकीना बेगम और पिता का नाम मोहम्मद उस्मान था। उन्होंने 27 दिसंबर 1954 को भारतीय सेना में भर्ती ली। 4 ग्रेनेडियर्स बटालियन में सेवा करते हुए उन्होंने आगरा, अमृतसर, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, नेफा और रामगढ़ में तैनाती पाई।
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भारत-चीन युद्ध के दौरान उनकी बटालियन सातवीं इंफैंट्री ब्रिगेड का हिस्सा थी, जो ब्रिगेडियर जॉन दलवी के नेतृत्व में नमका-छू के युद्ध में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से लड़ी। 1965 के युद्ध के आसार बन रहे थे। ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत पाकिस्तान ने भारत में घुसपैठ शुरू कर दी। उस वक्त अब्दुल हमीद छुट्टी में अपने गांव आए हुए थे, तभी अचानक ड्यूटी पर तत्काल लौटने का आदेश मिला।
वीर अब्दुल हमीद के बेटे जुनैद आलम बताते हैं कि जब वे अपना बिस्तर बांध रहे थे, रस्सी टूट गई और सारा सामान बिखर गया। पत्नी रसूलन बीबी ने इसे अपशकुन मानकर उन्हें जाने से मना किया, पर अब्दुल हमीद ने एक न सुनी। स्टेशन जाते समय उनकी साइकिल की चेन भी टूट गई, पर वे रुके नहीं। ट्रेन छूटने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और दूसरी ट्रेन से पंजाब रवाना हो गए। यह परिवार और गांव वालों से उनकी अंतिम मुलाकात थी।
8 सितंबर 1965 को सुबह करीब 9 बजे, चीमा गांव के पास ऊंख के खेतों में वे जीप में ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठे थे। दूर से टैंकों की आवाज सुनकर उन्होंने अपनी रिकॉयलेस गन संभाली और ऊंख के खेतों की आड़ लेकर चार पाकिस्तानी पैटन टैंकों को ध्वस्त कर दिया। अब्दुल हमीद के नाती जमील आलम बताते हैं कि उन्होंने अपने दादी के साथ सीमावर्ती इलाके में स्थित उनके मजार पर जाकर श्रद्धांजलि दी। रेजिमेंट हर साल उनकी शहादत पर समारोह आयोजित करती है।
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह टैंकों की सबसे बड़ी लड़ाई मानी जाती है, जिसे ‘असल उत्तर की लड़ाई’ कहा जाता है। रचना बिष्ट रावत लिखती हैं कि यह पाकिस्तान के टैंक आक्रमण का करारा जवाब था। आधिकारिक साइटेशन में भी वीर अब्दुल हमीद के चार टैंक तबाह करने का उल्लेख है। मेजर जनरल इयान कार्डोजो अपनी किताब में लिखते हैं कि परमवीर चक्र की सिफारिश भेजने के अगले ही दिन उन्होंने तीन और टैंक तबाह किए। आखिर में एक पाकिस्तानी टैंक ने उन्हें निशाना बनाया और उनकी जीप उड़ा दी।
इस लड़ाई में पाकिस्तान की ओर से 300 पैटन और चेफी टैंक थे, जबकि भारत की ओर से 140 सेंचुरियन और शर्मन टैंक थे। वीर अब्दुल हमीद के बेटा बताते हैं कि बचपन से ही उनका झुकाव सेना की ओर था। जब गाजीपुर में भर्ती कैंप लगा, तो वे तुरंत वहां पहुंच गए। सेना में जाने के बाद उनकी पहली तैनाती जबलपुर में हुई। वीर अब्दुल हमीद करीब 6 फुट 3 इंच लंबे थे, उनका निशाना अद्भुत था। उन्हें पहलवानी का भी शौक था और गांव में दूसरों को भी दांव-पेंच सिखाते थे।
उनकी पत्नी रसूलन बीबी को रेडियो से परमवीर चक्र मिलने की सूचना मिली थी। जब राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उन्हें यह पुरस्कार सौंपा, तब उन्होंने कहा— ‘हमें दुख भी हुआ, पर गर्व भी कि मेरे पति शहीद होकर न केवल अपना, बल्कि हमारा नाम भी अमर कर गए।’ भोजपुरिया माटी के लाल, भारत माता के अमर सपूत, परमवीर चक्र विजेता अमर शहीद वीर अब्दुल हमीद की जयंती पर बार-बार नमन!
(डा. देवेन्द्र नाथ तिवारी की भोजपुरी में मूल रचना का संपादित अंश)
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