Sunday, December 14, 2025
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रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया….

डा. देवेन्द्र नाथ तिवारी

गाँव-भडसार पो. सहजनवा, जिला गोरखपुर के रहनियार त्रिलोकीनाथ उपाध्याय जी, भोजपुरी के धाकड़ कवि रहनी। 1970 से 90 तक काव्य मंचन पर उहां के बड़ा ठसक रहे। उहाँ के रचना ‘रजमतिया के पाती’ के भोजपुरी साहित्य में आपन खास मुकाम बा। अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक आ आर्थिक हकीकत, बहुते जियतार रूप में परोसाइल बा। एह में लोकमन आ संवेदना के बहुत महिनी के साथे पिरोवल-गूँथल गइल बा। संभवतः इहे कारण बा कि इ गीत, अपने दौर में ख़ाली गीत ना रहि के सामूहिक अनुभव के प्रतीक बन गइल। सहजता, लयबद्धता आ भावनात्मक गहराई के चलते खूब लोकप्रिय भइल। रेडियो से लिहले गाँव के चौपाल तक। एह के ‘लोकगीत’ के दर्जा मिलल। इ रचना त्रिलोकी जी के पहचान बनल। काव्य पाठ खातिर, उहाँ के अगर कहीं जाईं, तऽ श्रोता समूह, एह गीत के सुनावे खातिर अनुरोध करे। आजु गैरखेमाबाज कवियन के शृंखला के 25वीं कड़ी में ‘रजमतिया के पाती’ पऽ तनिका बात होई। ताकि एह रचना आ एकर सामाजिक संदर्भ सोगहक, पुरहर तरीका से उभरे। पहिले रउआ रचना के देखीं..

‘लिखि देई स्वस्तीय श्री चिट्ठी राउर पवलीं,
पांच सोरही रुपया रउरा हमके पठवलीं।
एतनो से कम नाहीं होवे ले विपतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।1।
कबरी छेगड़िया हमार बेरमाइल,
पांड़े जी क झबरा पिलउआ हेराइल।
कोहड़ा पर पाला मरलसि, लागे नाहीं बतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।2।
लिखि देई जाड़ा बा, बनवां लीहें रजाई,
खोंखी आइल मरिगे, समुनरी के माई।
बड़े जोर बेराम बा, निरंजन बाबा के नतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।3।
पछुआ पवन चले सिहरे परनवाँ,
छन-छन भरि-भरि आवेला नयनवाँ।
दिनवों त बीतेला, कटेले नाहीं रतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।4।
लिखि देईं बिरही फगुनवों नेराइल,
बउरल अमवाँ, महुअवाँ गदाइल।
सेल्हा में अदउआ गुहैले भनमतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।5।

जै पइसा आइल तै सौ राहे गइल सैंया,
किनि नाहीं पवली हम अइया के दवइया।
ससुई ननदि रोज कहें सौ-सौ बतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।6।
कई बेर पूछलें, मलगुजरिया पियादा,
कहलीं निबका देब अइहे उतमी के दादा।
नेइये तरे हउदी सटवलसि रमगतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।7।
लिखि देईं, भंगरा मदरसा पै जाला,
पंडित जी के परसों उठा ले आइल ताला।
ओके निरगुनवां, मिलल बा संघतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।8।
छोटका के नरखा, मझिलका के नाहीं,
बुधनी सयान होगे, सारी वोके चाही।
काठे के करेजा कइलें बजरे कै छतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।9।
खुदै हुसियार हवें ढेर का लिखाईं,
कगजा पै केतनी कलमि दउराईं।
कुलि-कुलि करिहें, बेसहिहें न सवतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया ।10।

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इ गीत के केंद्र में बिया, रजमतिया। एगो मेहनतकश गँवई मेहरारू। उनकर पति, परदेस में बाड़न। घर-परिवार के मय जिम्मेदारी रजमतिये निबाहतिया। एही रजमतिया के व्यथा-कथा के त्रिलोकी जी अपना एह गीत के आधार बनवले बानी। ‘रजमतिया के पाती’ गँवई भारत, खासकर पूर्वांचल के गाँव के सामाजिक यथार्थ के सजीव चित्र परोसऽतिया। एह गीत के हर पंक्ति में गँवई जिनिगी के संघर्ष, सामाजिक रिश्तन के ऊष्मा, आर्थिक अभाव के मार झलकता। एहिजा ‘रजमतिया’ के दुख बा। व्यथा-कथा बा। अपने पति के नामे एगो चिट्ठी लिखावऽतिया। चिट्ठी ना कह के एकरा के ‘डोजियर’ कह सकऽतानि। का भइल, कब भइल, कइसे भइल, का हो रहल बा, जइसन सवाल पऽ कवनो दक्ष रिपोर्टर के दृष्टि रजमतिया के लगे बा। ‘लिखीं ना रिपोर्ट..’ खैर, अपढ़ बिया। चिट्ठी लिख आ बाँच नइखे सकत। नतीजा एगो आन मनई से चिट्ठी लिखावऽतिया। लिखवावे के एह मजबूरी के चलते रजमतिया के आपन मन के बात, एगो गैर मनई के खोल के आ फरिया के कहे भा दिखावे पड़ता। ऊ गैर आदमी (खुद त्रिलोकी जी भी हो सकत बानी) जब रजमतिया के चिट्ठी लिखिके उठतऽता, तऽ बेचैन हो जाता। उहे बेचैनी के प्रतिफल हऽ, इ गीत। पाती लेखन के इ शैली भोजपुरी लोकसाहित्य में खूब प्रचलित रहल बा। कैलाश गौतम के भी एगो गीत बा ‘गुलबिया कऽ चिट्ठी’। अंजन जी के भी एगो गीत बा। ऊहां को 62 के लड़ाई के केंद्र में राखि के ओकरा के लिखले रहीं। वैदेही शरण बनियापुरी जी के भी गीत बा। बहरहाल एहिजा ओह पर चर्चा से विषयांतर होई।

भोजपुरी अंचल के मेहरारू, दूर देश (मोरंग देश, पुरुब देश, बंगाल) में रहेवाला आपन पति भा परिजन के सनेसा भेजेली। कारण पूरा भोजपुरिया बेल्ट, माइग्रेशन से पीड़ित रहल बा। मुगलिया काल से पहिले से एह इलाका से व्यापक स्तर भा पैमाना पऽ माइग्रेशन भइल बा। एकर ऐतिहासिक प्रमाण किताबन में दर्ज बा। एह से इ पाती खाली व्यक्तिगत संवादे भर नइखे बलुक मय गाँव के आर्थिक तंगी, सामाजिक रिश्ता आ दैनिक जिनिगी के कठिनाई के दस्तावेज भी बा। एह गीत भा रचना के परिवेश, गँवई भारत के बा। खासकर पूर्वांचल के उ गाँव, जहाँ जिनिगी के हर छोट-बड़ घटना सामूहिकता आ रिश्ता-नाता के इर्द-गिर्द घूमेला। एहिजा के समाज मेहनतकश होखेला। बाकिर संसाधन के कमी, आर्थिक अभाव, शासन व्यवस्था के उपेक्षा, बाढ़-सूखा जइसन प्राकृतिक चुनौती एकर नियति बन गइल बा। गीत के भावभूमि दुख, विडंबना आ करुणा से बनल बा। फिर भी एकरे में एगो सूक्ष्म हास्य आ जीवटता भी दिखी, जे पुरबिया लोकमानस के खासियत हऽ। इ गीत ना तऽ अतिशयोक्ति से भरल बा, ना भावुकता में डूबल; इ जिनिगी के सच्चाई के परोसत भा बतावऽता। पाठक/श्रोता संभवतऽ एही चलते, एह रचना से जुड़ऽत होइहें।

असल में इ गीत खाली रजमतिया के आपबीती नइखे, बलुक हाशिये पऽ छूट गइल, जे आभाव में जीयता अइसने वंचित तबका, समाज के प्रतिनिधि आवाज बा। गीत के केंद्रीय विषय आर्थिक तंगी बा। ‘पांच सोरही रुपया रउरा हमके पठवलीं’ से साफ़ तौर पर जाहिर होता। रजमतिया के पति जवन अस्सी (5 ग् 16 = 80) रुपया भेजेलेबा, उ घर-परिवार के जरूरत पूरा करे खातिर नाकाफी बा। अस्सी रुपया ओह समय (1960-70 के दशक) में छोट-मोट खर्च खातिर ठीके भा पर्याप्त होइत। पर, इ गीत बतावऽता कि विपत्ति अतना बड़ बा कि इहो धनराशि कम पड़ऽता। नतीजा, रजमतिया अपने पति के नामे चिट्ठी लिखवावऽतिया। गाँव-घर आ परिवार के हाल-चाल बतावऽतिया।
‘लिखि देईं स्वस्तीय श्री चिट्ठी राउर पवलीं,
पांच सोरही रुपया रउरा हमके पठवलीं
एतनो से कम नाहीं होवे ले विपतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।‘

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इ गीत के मथेला हऽ। एहिजा से इ गीत के शुरू होता। रउआ कवनो पुरान पाती भा चिट्ठी देखब, तऽ इ जानकारी मिली कि ‘सोस्ती सिरी सर्व उपमाजोग…’ से उ चिट्ठी भा पाती शुरु भइल होई। भोजपुरी पत्र लेखन के पारंपरिक रुप से राउर परिचय होई। पति के पिछला पाती आ ओकरा में भेजल गइल पैसा के याद दिआवऽतिया। बतावऽतिया के राउर भेजल पैसा मिल गइल बा। ओहिजे ‘पाँच सोरह रूपइया’ से रजमतिया के गणितीय क्षमता के बारे में पता लागी। अपढ़ बिया। गिनती-पहाड़ा बहुत नइखे जानऽत। बाकिर हिसाब लगावे के जानतिया। अस्सी रूपिया खतम हो गइल बाकिर आर्थिक तंगी जस के तस बा। ‘ओतना से नाही कटी’ से साफ बा कि विपत्ति बड़ बा, राशि भा धन नाकाफी। विडंबना देखीं। पति बहरा में हाड़-तोड़ मेहनत करऽता। पइसा भेजऽता। तब्बो घर के स्थिति नइखे सुधरऽत। हालाँकि महंगी, बेकारी, जइसन कई गो बाहरी कारण हो सकत बाटे, एकरे मूल में। बाकिर इ अंतरा गँवई जिनिगी के आर्थिक तंगी आ ओकरा से उपजल निराशा के उजागर करऽतिया। रजमतिया, अपने व्यथा-कथा के एह गीत के माध्यम से बतावऽतिया। कथावाचक माफिक। पर, ओकरे पाती में गँवई भारत के मय मेहरारून के स्थिति के प्रामाणिक चित्रण बा। पति के परदेस रहे पऽ रजमतिया घर के देखभाल करऽतिया। पूरा ज़िम्मेदारी, जवाबदेही के साथे। राम कहानी अपने पति के बतावे चाहतिया। बतावते-बतावते, रोए लागऽतिया। ‘रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया में’ भावनात्मक दुख झलकते बा बाकिर ओकर संयम आ कर्तव्यबोध के भी पता लागऽता। इहो मालूम चलऽता कि उ अपने जिम्मेदारी के समझऽतिया। परिवार आ गाँव के हर छोट-बड़ खबर के पति तक पहुँचावतोबिया-

‘कबरी छेगड़िया हमार बेरमाइल,
पांड़े जी क झबरा पिलउआ हेराइल।
कोहड़ा पर पाला मरलसि, लागे नाहीं बतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।’
रजमतिया बहुत संवेदनशील मेहरारू बिया। तमाम अभाव के बादे ओकरे लगे सहजता, सोझपन आ संवेदनशीलता बचल बा। ओकर छेगड़ी (बकरी) बेरमाइल बिया, इ अपने पति के बतावऽता। गाँव के पाड़े जी के ‘झबरा पिलउआ’ कहीं मेला-ठेला में हेरा गइल बा। फिर उ खेत-बधार के हाल बतावऽतिया। कोहड़ा के बतिया के पाला मरले बा। लोक अंचल में कोहड़ा के बेटा भा स्वांग के तौर पर मानल जाला। ‘कोहड़ा के पाला मारल’ बिम्ब, अपने आप के एह संदर्भ में भी देखे के माँग करऽता।
‘लिखि देई जाड़ा बा, बनवां लीहें रजाई,
खोंखी आइल मरिगे, समुनरी के माई।
बड़े जोर बेराम बा, निरंजन बाबा के नतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।’

गीत के सबसे करुण हिस्सा, इहे अंतरा बा। सर्दी के महीना में रजाई के जरूरत पड़ी। बाकिर आर्थिक तंगी के चलते इ पूरा नइखे हो पा रहल। रजमतिया एह बात से वाकिफ बिया। उ लिखवाऽतिया, ‘लिखि देई जाड़ा बा, बनवां लीहें रजाई ’ में एही बात के हिदायत बा। उ इहो बतावऽतिया के सरदी भा जाड़ लाग जाई, तऽ बेराम होखे के खतरा बा। कारण ‘खोंखी आइल मरिगे, समुनरी के माई’। सर्दी-खोंखी बहुत समान्य बीमारी हऽ। पर, सही समय पऽ ईलाज ना मिले से उ घातक हो सकऽता। इहे त्रासदी उभरऽता। ‘निरंजन बाबा के नतिया’ के बीमारी के जिक्र भी होता। रजमतिया के संवेदनशील व्यक्तित्व के एहिजा पता चलता। उ सबके दुख से दुखी बिया। सहभागी बिया। खाली अपने घर के ना, बलुक पूरा गाँव के व्यथा के व्यक्त कर रहलऽबिया। बा। साँच कही तऽ एह अंतरा में करुणा आ सामाजिक संवेदना के गहरा चित्रण मिली।
‘पछुआ पवन चले सिहरे परनवाँ,
छन-छन भरि-भरि आवेला नयनवाँ।
दिनवों त बीतेला, कटेले नाहीं रतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया’

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ओहिजे अगिला अंतरा के केंद्र में, रजमतिया के भावनात्मक आ मानसिक पीड़ा बा। ‘पछुआ पवन’ (पछुआ बयार) ठंड आ उदासी के प्रतीक हऽ, इ रजमतिया के मन के सिहरादेता। ‘छन-छन भरि-भरि आवेला नयनवाँ’ बतावऽता कि ओकरी आँखी से लगातार लोर बहऽता। आँखी, लोराइल बिया। दिन त बीति जाता बाकिर राति नइखे कटऽत। अकेलापन के दुख आ पति के बहरा रहे के चलते राति लमहर आ असहनीय हो गइल बिया। सहाते नइखे। सुहाते नइखे। एह अंतरा में विरह आ करुणा कऽ सघन अनुभूति व्यक्त भइल बा।
‘लिखि देईं बिरही फगुनवों नेराइल,
बउरल अमवाँ, महुअवाँ गदाइल।
सेल्हा में अदउआ गुहैले भनमतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।’
पति के बहरा गइले ढेर दिन बीत गइल। उ अपने पाती में लिखवाऽतिया कि अब फगुआ नियराइल बा। इशारे-इशारे में पूछत बिया कि रउआ कब आइब। आम बउरल गइल बा, महुओ गदाइल बा। प्रकृति के इ उमंग आ चहक-चमक बतावऽता। बाकिर रजमतिया के उदास बिया। ‘सेल्हा में अदउआ गुहैले भनमतिया’। भनमतिया सेल्हा (मूँज) में अदउआ गूहतिया। झाँपी साजे के तइयारी बा। बाकिर रजमतिया के मन एह सुंदरता में रमते नइखे। असल में इ अंतरा प्रकृति आ मनई के भावना के बीच विरोधाभास कऽ उजागर करऽता।

गाँव में नकदी के कमी कइसे जिनिगी के हर पहलू पऽ आपन असर डालेले? रजमतिया फिर अपने हाल-हालात के ब्योरा देतिया…..
‘जै पइसा आइल तै सौ राहे गइल सैंया,
किनि नाहीं पवली हम अइया के दवइया।
ससुई ननदि रोज कहें सौ-सौ बतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।’
बहुत कम पइसा के आमद बा। बाकिर ओकरे खर्च होखे के अनंत कारण बा। उ बतावऽतिया कि जवन पइसा रउआ भेजले बानी, ‘सौ राहे गइल’ खरच हो गइल। ‘किनि नाहीं पवली हम अइया के दवइया’ जइसन पंक्ति में अभाव के कारण होखे वाली त्रासदी के महसूस कइल जा सकता। दादी के दवाई के इंतजाम नइखे हो पावल। दवा नइखे मिलऽल। एकरे अलावे, सास आ ननद रोज सैकड़ा के भाव में ताना मारताड़ी। एह सब से ओकर दुख अउर बढ़ऽता। असल में अंतरा में इहे दृश्य अंकित भइल बा, जवन गँवई मेहरारू के जिनिगी में आम बा।
रजमतिया के हालत केतना असहाय बा इ अगिला अंतरा से पता लागी…
‘कई बेर पूछलें, मलगुजरिया पियादा,
कहलीं निबका देब अइहे उतमी के दादा।
नेइये तरे हउदी सटवलसि रमगतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।’
रजमतिया बतावऽतिया कि मालगुजारी बकाया बा। कई बेर मलगुजरिया पियादा (पटवारी) पूछले बा कि कि कहिला ले मालगुजारी जमा होई। बतावऽतिया ‘उतमी के दादा’ (रजमतिया के पति) अइहें तऽ निबटा देहऽब। उ आगे बतावऽतिया कि रमगतिया (रजमतिया के पड़ोसी) हउदी, ओकरे नेंव से सटालिहले बिया। मने अतिक्रमण करऽतिया। इ सब रजमतिया के दुख को और बढ़ावऽता…
‘लिखि देईं, भंगरा मदरसा पै जाला,
पंडित जी के परसों उठा ले आइल ताला।
ओके निरगुनवां, मिलल बा संघतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।’

एहिजा रचना के समकाल के बारे में तनिका, अंदाजा लागऽता। रजमतिया पाती, ओह दौर में लिखावऽतिया, जब गाँव में स्कूल ना रहे। ‘भंगरा’ (लइका) मदरसा में पढ़े जाता। बाकिर संगत खराब हो गइल बा। ‘निरगुनवां’ ओकर संघतिया बा। ओकरे संगत में उ पंडी जी (मास्टर साहब) के ताला उठा ले आइल बा। भंगरा के इ हरकत गाँव के बचवन के शरारत के दर्शावऽता बाकिर संगे-संगे इहो बतलावऽता कि आर्थिक तंगी आ सामाजिक दबाव बचवन के गलत रास्ता पर धकेल सकत बा। एह से गाँव में शिक्षा के सीमित पहुँच आ आर्थिक तंगी से उपजल सामाजिक विचलन के संकेतो मिलऽता। अभाव आ अवसर के कमी गलत राह पऽ ले जा सकऽत बा। रजमतिया के चिट्ठी में भंगरा के जिक्र से साफ बा कि ऊ गाँव के बचवन के भविष्य खातिर चिंतित बिया। बाकिर सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति के चलते मुश्किल भा कठिनाई पैदा हो रहल बा।
‘छोटका के नरखा, मझिलका के नाहीं,
बुधनी सयानी होगे, सारी वोके चाही।
काठे के करेजा कइलें बजरे कै छतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया।’

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एहिजा रजमतिया के मातृत्व आ पारिवारिक चिंता दिखऽता। फिर उ घर के हाल-खबर बतावऽतिया। घर के छोट-छोट जरूरत के जिक्र बा। ‘छोटका के नरखा’ मने कुरता चाहीं। जवन बा, तवन फाट गइल बा। मझिलका खातिर तऽ उहो नइखे जुरत भा जुटऽत। बुधनी (बेटी) सेयान हो रहल बिया। ओकरो खातिर लुगा (साड़ी) चांही। इ सब देख के करेजा काठ हो गइल बा। छाती बजर के। उ बेटी के बढ़त उमिर आ ओकर जरूरत (कपड़ा) के प्रति सजग बिया। असल में रजमतिया खाली घरेलू औरत भर नइखे, परिवार के आर्थिक आ सामाजिक जिम्मेदारी निभावे वाली धुरी भी उहे बिया। इ अंतरा परिवार के आर्थिक तंगी के साथ-साथ सामाजिक-परिस्थितगत दबाव के भी रेखांकित करऽता। मसलन, पति बहरा बा। कमाये गइल बा। बाकिर रजमतिया गाँव में रहि के परिवार के जोड़ले-सहेजले-संभलऽले बिया। असल में एहिजा, ओह दौर के लैंगिक विभाजन के झलकी मिली। जहवाँ पुरुष कमाये खातिर बहरा जाए, आ औरत घर संभाले खातिर घरे रहे। बाकिर रजमतिया के आवाज में आत्मविश्वास आ जीवटता बा। एह माध्यम से उनकर सशक्त चरित्र उजागर होता।
अब इ पाती अपने समापन के ओर बिया। एह से रजमतिया आपन सारा पीड़ा के समेटता बिया। आपन दुख के छोड़, दुश्चिंता के अंतिम रूप से बतावऽतिया
‘खुदै हुसियार हवें ढेर का लिखाईं,
कगजा पै केतनी कलमि दउराईं।
कुलि-कुलि करिहें, बेसहिहें न सवतिया,
रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया’

इ गीत के आखिरी अंतरा हऽ। एही से एकर समापन होता। रजमतिया लिखावऽतिया कि रउआ खुदे हुसियार बानी। सब बात बुझते बानी। ढेर कहे के जरुरत नइखे। आखिर कागज के भी, तो एगो सीमा बा। केतना लिखाई भा लिखल जाई। दुख असीम बा। बाकिर उ आखिर में इहे हिदायत देतिया कि रउआ सब कुछ करऽब बाकिर ‘सौतिन’ मति बेसाहब। कहल गइल बा कि मेहरारू सब कुछ बर्दाश्त कर लिही बाकिर ओकरा काठ के भी सवत बर्दाश्त ना होखे। सवत के बाति सुनते, ओकर एड़ी से लेके कपार तक झनझना जाला। एह आखिरी अंतरा में ओकर भावनात्मक स्थिति झलकता।
त्रिलोकी जी मूलतः हास्य रस के कवि रहनी हऽ बाकिर उहाँ के एह गीत में गाँव के सामाजिक बुनावट के सघन चित्रण बा। ‘समुनरी के माई’, ‘सासु-ननद’, ‘निंरजन बाबा’, ‘बुधिया’, ‘रमगतिया’, जइसन उल्लेख में परिवार आ गाँव के रिश्तन के दर्शन होत बा। गाँव में अबहिनो सद्भाव, मनुष्यता बचल बा, आजो एक के दुख पूरा गाँव के दुख बन जाला। साफ बा कि दुख के बोझ कम नइखे हो रहल। रजमतिया के जिनिगी इ संघर्ष श्रोता के हृदय के छूवे, मानस के झकझोरे में समर्थ बा। सक्षम बा।

रचना के बाह्य पक्ष एकर भाषा, छंद, लय आ संरचना में निहित बा। भोजपुरी के मिठास आ सहजता एह गीत के जान बा। ‘रोय रोय पतिया लिखावे रजमतिया’ जइसन पंक्ति ना खाली लयबद्ध बा, बलुक एह में एगो खास भावनात्मक गहराई भी बा। एहिजा ‘रोय-रोय’ जइसन शब्द भाव के तीव्र करऽता। असल में एकर संरचना, दोहराव पर आधारित बा। हर अंतरा के बाद ‘रोय-रोय पतिया, लिखावे रजमतिया’ के प्रयोग भइल बा। इ खाली लये नइखे बनावऽत, पत्र लेखन के निरंतरता के भी रेखांकित करऽता। अइसन दोहराव लोकगीतन में दिखेला। इ ओकर आपन विशिष्टता हऽ। एही से श्रोता समूह, गीत से जुड़ेला। ओहिजे एह गीत के भाषा में गाँव के माटी के सोन्ह महक बा। ‘कोंहड़ा प पाला’, ‘बेरमाइल’, ‘गदाइल’, ‘बउरल’ जइसन शब्द आ मुहावरा, भोजपुरी संस्कृति के आपन शब्द हऽ। एकरे जरिए पूरा सांस्कृतिक परिवेश के प्रामाणिक चित्रण भइल बा। भाषा बनावटी नइखे। साहित्यिक रूप से अलंकृत भी नइखे। इ भोजपुरी, लोक के आपन भाषाई ताकत आ सामर्थ्य हऽ। जवन सीधा करेजे छुएला।

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त्रिलोकी जी के एह रचना के आंतरिक पक्ष एकरे अनुभूति आ संवेदना में निहित बा। एहिजा एगो मेहरारू के व्यथा-कथा बा। जे अपने पति के गाँव के दुर्दशा आ घर के आर्थिक तंगी के खबर दे रहल बिया। बाकिर इ खाली व्यक्तिगत शिकायत नइखे, एहिजा सामूहिक आवाज बा। जब ‘खोंखी से मर गइल समुदरी के माई’ भा ‘निरंजन काका के नतिया’ के हाल-हालात के बात होता, तब कारूणिक भाव भा रस मिली। उहें जब रजमतिया कहऽतिया कि ‘पाँच सोरे रूपइया’ भेजे से भी विपत्ति ना कटऽल, तब तनिका हास्य रस दिखी। एहिजा जिनिगी के हर रंग मौजूद बा। दुख, हास्य, संघर्ष आ आशा। गीत के अनुभूति एह अर्थ में सार्वभौमिक बा। खाली एगो गाँव के कहानी नइखे, ओइसन मय समाज के प्रतिनिधि बा, जे अभाव आ मेहनत के बीच जीयऽता। अइसना में, इ गीत सामाजिक यथार्थ करुणा, हास्य आ विडंबना के मिश्रण से प्रभावी बनल बा। ‘लिखदेंई जाड़ा के महीना बा, बनवा लिहें रजाई, खोंखी से मर गइल समुदरी के माई’ जइसन पंक्ति में अभाव के चलते होखे वाली त्रासदी के देखल जा सकऽता। इ श्रोता के हृदय के छूअता। भंगरा के शरारत, पिल्ला भुलाइल, जइसन प्रसंग हल्का हास्य पैदा करऽता।

रजमतिया के पाती संभवतः 1960 के दशक में रचाइल, जब भारत आजादी के बाद अपने आर्थिक आ सामाजिक ढाँचा के आकार देवे में जुटल रहे। इ उहे समय रहे, जब जमींदारी उन्मूलन शुरू भइल, बाकिर छोट किसान आ मजदूरन के स्थिति में खास सुधार ना भइल। खेती मौसमी अनिश्चितता से भरल रहे आ औद्योगिक विकास के अभाव में पुरुष रोजगार खातिर शहर या दोसरा प्रांतन में पलायन करत रहलन। सोरे पचे अस्सी रोपेया उस समय के आर्थिक स्थिति के दर्शावऽता, जब गाँव में नकदी दुर्लभ रहल। रजमतिया के चिट्ठी ओह दौर के संचार व्यवस्था के कमी के संकेत देत बा, जहाँ पातिए दूरस्थ परिजन से जुड़े के एकमात्र साधन रहे। रजमतिया के पति परदेस कमाए गइल बा, जे ओह दौर के पलायन के सामान्य प्रवृत्ति रहल। इ पलायन खाली आर्थिक ना, बलुक सामाजिक आ भावनात्मक स्तर पर प्रभाव डालत रहे। एकरे चलते गाँव में औरतन पर घर-परिवार संभाले के जिम्मेदारी बढ़ गइल, आ रजमतिया जइसन मेहरारू चिट्ठी के जरिए पति से जुड़ल रहली। इ उहे दौर हऽ जब भारत के आर्थिक विकास में घोर क्षेत्रीय असमानता रहे, आ गँवई क्षेत्र विकास के मुख्यधारा से कटल रहऽ गइल।

याद करीं सभे कि आजादी के बाद, लोकसाहित्य में सामाजिक यथार्थवाद के प्रभाव कइसे बढ़ल। भोजपुरी गीत मनोरंजन से आगे बढ़ि के सामाजिक गीत के माध्यम बन गइल। रजमतिया के पाती ओही दौर के दोसर लोकगीत मसलन बिरहा, कजरी, सोहर के साथ मिलि के गँवई समाज के आवाज राष्ट्रीय स्तर पर ले जाये में योगदान देत रहे। इ समकाल के ओही सांस्कृतिक जागरण के बतावता, जहाँ लोक अपन भाषा आ संस्कृति के जरिए पहचान स्थापित करे लागल रहे।
रजमतिया के पाती भले अपन समय के रचना होखे, बाकिर एकर सामाजिक यथार्थ आजो कई मायने में प्रासंगिक बा। आर्थिक तंगी आ पलायन आजो गँवई भारत के बड़ समस्या भा चिंता बा। भले अस्सी रोपेया के जगह अब डिजिटल भुगतान आ गइल बा, बाकिर गाँव में आर्थिक असमानता आ संसाधन के कमी बनने बा। गाँव आजो विकास के दौर में मूलभूत सुविधा ख़ातिर तरसता। आजो लाखन लोग रोजगार खातिर शहरन के ओर पलायन करते बा आ परिवार गाँव में पीछे रहि जाता। असल में रजमतिया जइसन औरत आजो परिवार आ समुदाय के जोड़े राखे में अहम भूमिका निभावेली।

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शिक्षा के क्षेत्र में तिनका सुधार भइल बा, संचार व्यवस्था में भी बदलाव बा। अब चिट्ठी ना वीडियो काल पर हाल-ख़बर मिल जात बा। बाकिर गँवई क्षेत्रन में संसाधन आ शिक्षा-स्वास्थ्य के गुणवत्ता के कमी बरकरार बा। भंगरा जइसन बच्चे आजो आर्थिक दबाव या सामाजिक परिवेश के कारण पढ़ाई से वंचित हो सकत बा। सोशल मीडिया के एह दौर में सामाजिक दबाव आ गाँव के सामाजिक ढाँचा के नया रूप में दिखाई देता। अइसना दौर में भी रजमतिया के पाती गँवई भारत के सामाजिक यथार्थ के एगो सजीव दस्तावेज बा, जे आर्थिक तंगी, लैंगिक भूमिका, सामाजिक संरचना आ दैनिक जीवन के चुनौती के प्रामाणिक चित्रण करता। ‘रजमतिया के पाती’ खाली एगो औरत के दुख-दर्द ना, पूरा गाँव के संघर्ष आ जीवटता के कहानी बा। आज के संदर्भ में, इ गीत गँवई भारत के ओही चुनौतियन के याद दिलावता, जे समय के साथ रूप बदले बा, बाकिर अबहिनों मौजूद बा। असल में त्रिलोकी जी के इ रचना लोकमानस, लोककंठ में बसल बिया आ हमारा एह बात के पुरहर यकीन बा कि इ हर काल में गूँजत रही। त्रिलोकी जी के जोर के केहु रचनाकार ना भइल।

पुनश्च त्रिलोकीनाथ उपाध्याय जी के जियते उहाँ के रचना छपल, ‘माटी के महक’ नाम से। उ मूल प्रति अब अप्राप्य बिया। 1987 त्रिलोकी जी के निधन भइल। धीरे-धीरे लोग उहाँ के भूला-बिसार दिहलस। करीब 2003 में उहाँ के गीतन के दूगो संग्रह आइल। ‘माटी की महक’। दू भाग में। रमेश बुक डिपो, गोरखपुर से। ओही के भाग एक में ‘रजमतिया की पाती’ मिलल हऽ। बाकिर ओकरो में तनिका दोष रहल हऽ। त्रिलोकी जी के मुँह से कई बेर एह गीत के सुनेवाला आदरणीय दयानंद पांडेय जी के माध्यम से दुरुस्त पाठ उपलब्ध भइल हऽ। जवना में एगो गलती रहल हऽ ‘सोरह’, ‘सौ’ हो गइल रहल हऽ। ओकरा के सुधार के हम एह लेख के संशोधित कइनी हऽ। ‘रजमतिया के पाती’ के कम से कम तीन गो पाठ हमके अबहिन ले मिलल बा। तीनों में बहुते जोड़-घटाव भइल बा। ‘कविताकोश’ पर मौजूद एह गीत में भी गलती बा। उम्मेद बा कि उ जल्दी सुधर जाई। त्रिलोकी जी के साथे कई मंच पऽ काव्य पाठ करेवाला आचार्य मुकेश जी, चंद्रेश्वर परवाना जी आ गुरुवर इंद्र कुमार दीक्षित जी से सँवचनी हऽ। तस्दीक कइनी हऽ। फेर एह लेख के अपडेट कइनी हऽ।

रोय-रोय पतिया लिखावे रजमतिया....
डा. देवेन्द्र नाथ तिवारी

(लेखक जाने-माने कलमकार हैं।)

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