Friday, December 12, 2025
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समाप्त नहीं हुआ है भारतीय भाषाओं का संघर्ष

प्रो. संजय द्विवेदी

राजनीतिक परिवर्तन के नाते भारतीय भाषाओं को मिल रहा सम्मान स्थाई नहीं हैं, क्योंकि उपनिवेशवाद की गहरी छाया से हमारे समाज को मुक्त करने में अभी हम सफल नहीं हो सके हैं। भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने के लिए शासकीय प्रयासों के बाहर भी हमें देखना चाहिए कि क्या अकादमिक, न्याय, चिकित्सा, प्रशासन के तंत्र में भारतीय भाषाएं स्थापित हो रही हैं। सच तो यह है कि दो भारतीय भाषाओं में संघर्ष का वातावरण बनाकर हर जगह अंग्रेजी के लिए जगह बनाई जा रही है। आप देखें सड़कों और दुकानों पर लगे सूचना पट, नाम पट और होर्डिंग इसकी गवाही देगें। वे प्रायः स्थानीय भाषा और अंग्रेजी में होते हैं। या सिर्फ अंग्रेजी में होते हैं।

पिछले सप्ताह अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित भारतीय भाषा समिति की ओर से दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारतीय भाषाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर चर्चा हुई। इस अवसर पर भारतीय भाषा समिति की ओर अंग्रेजी में प्रकाशित दो पुस्तकों ‘भारतीय भाषा परिवारः ए न्यू फ्रेमवर्क इन लिंगग्विस्टिक्स’ और ‘भारतीय भाषा परिवारः पर्सपेक्टिव एंड होरिजोंस’ का लोकार्पण भी हुआ। इस पुस्तक में भारतीय भाषाओं के विविध पक्षों पर लेखकों ने विद्वतापूर्ण लेख लिखे हैं। संस्कृत को लोकमानस में प्रतिष्ठित करने वाले श्री चमू कृष्ण शास्त्री भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष के रुप में बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।

हम जानते हैं भाषाएं और माताएं अपने पुत्र और पुत्रियों से ही सम्मानित होती हैं। आजादी के आठ दशक के बाद भी हमारी भारतीय भाषाओं का आत्मसंघर्ष समाप्त नहीं हुआ है तो इसका दोष हम किसी अन्य को नहीं दे सकते। भारतीय समाज स्वभाव से बहुभाषी है, और उसे किसी भाषा को अपनाने में कभी संकोच नहीं रहा। इसका ही परिणाम है कि अंग्रेजी को भी हमने अपनी एक भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है। उसका पठन, पाठन और अध्ययन शौक से करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ हमारी उदारता के कारण है या इसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक कारण भी हैं। दूसरा यह कि क्या किसी भाषा के कारण हम अपनी भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करें और उनके व्यापक अवदान की अनदेखी करें। सच तो यह है कि कोई भी देश अपनी भाषा और लिपियों के सहारे ही स्वयं को बनाता है।

उसकी सघन स्मृति में उसकी भाषा, उसकी लिपि, प्रदर्शन कलाओं, साहित्य, संगीत, सिनेमा और रंगमंच के दृश्य और नाद रचे बचे-बसे होते हैं। इन्हीं स्मृतियों के सहारे वह बड़ा होता है, उसी नजर से दुनिया को देखता है। ऐसे में हमारी नयी पीढ़ी पर मातृभाषा के स्थान पर एक अन्य भाषा आरोपित कर क्या हम अपने बच्चों के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं? हम उसे एक ऐसी भाषा में तैयार कर रहे हैं, जो उसकी स्मृति का, परिवार का, समाज का हिस्सा नहीं रही है। उसकी मौलिकता को, उसके स्वभाव और रचनात्मकता को कुचल देने का जतन हम होता हुआ देख रहे हैं। भाषा को एक ‘कौशल’ के बजाए उसे ‘ज्ञान’ का पर्याय मान लेना हमारा मूल संकट है। भारतीय भाषाओं को स्वतंत्र भारत में जो संघर्ष करना पड़ रहा है, उसका बड़ा कारण हमारा शैक्षिक परिवेश है, जो उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त है। उसे इससे मुक्त करना बड़ी चुनौती है।

क्या हिंदी और भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति इतनी है कि वे अंग्रेजी को उसके स्थान से पदच्युत कर सकें। यह संकल्प हममें या हमारी नई पीढ़ी में दिखता हो तो बताइए? अंग्रेजी को हटाने की बात दूर, उसे शिक्षा से हटाने की बात दूर, सिर्फ हिंदी और भारतीय भाषाओं को उसकी जमीन पर पहली भाषा का दर्जा दिलाने की बात है। कितना अच्छा होता कि हमारे न्यायालय आम जनता को न्याय उनकी भाषा में दे पाते। चिकित्सा और दवाएं हमारी भाषा में मिल पातीं। काश , शिक्षा का माध्यम हमारी भारतीय भाषाएं बन पातीं। यह अँधेरा हमने किसके लिए चुना है। कल्पना कीजिए कि इस देश में इतनी बड़ी संख्या में गरीब लोग, मजबूर लोग, अनुसूचित जाति-जनजाति, अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग के लोग नहीं होते तो हिंदी और भारतीय भाषाएं कहां दिखती। मदरसे में गरीब का बच्चा, संस्कृत विद्यालयों में गरीब ब्राम्हणों के बच्चे और अन्य गरीबों के बच्चे, हिंदी माध्यम और भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्कूलों में प्रायः इन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे।

कई बार लगता है कि गरीबी मिट जाएगी तो हिंदी और भारतीय भाषाएं भी लुप्त हो जाएंगीं। गरीबों के देश में होना हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ होना है। लेकिन समय बदल रहा है मजदूर ज्यादा समय रिक्शा चलाकर, दो घंटे ज्यादा करके अब अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। उसने यह काम शुरू कर दिया है। दलित अंग्रेजी माता के मंदिर बना रहे हैं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का ज्ञान ही उन्हें पद और प्रतिष्ठा दिला सकता है। ऐसे में हिंदी का क्या होगा, उसकी बहनों भारतीय भाषाओं का क्या होगा। हिंदी को मनोरंजन,बाजार,विज्ञापन और वोट मांगने की भाषा तक सिमटता हुआ हम सब देख रहे हैं। वह ज्ञान- विज्ञान, उच्चशिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक कहीं अब भी अंग्रेजी का विकल्प नहीं बन सकी है। उसकी शक्ति उसके फैलाव से आंकी जा रही है किंतु उसकी गहराई कम हो रही है।

देश की भाषाओं को हम उपेक्षित करके अंग्रेजी बोलने वाली जमातों के हाथ में इस देश का भविष्य दे चुके हैं। ऐसे में देश का क्या होगा? संतोष है कि इस देश के सपने अभी भारतीय भाषाओं में देखे जा रहे हैं। पर क्या भरोसा आने वाली पीढ़ी अपने सपने भी अंग्रेजी में देखने लगे। संभव है कि वही समय, अपनी भाषाओं से मुक्ति का दिन भी होगा। आज अपने पास-पड़ोस में रह रहे बच्चे की भाषा और ज्ञान के संसार में आप जाएं तो वास्तविकता का पता चलेगा। उसने अंग्रेजी में सोचना शुरू कर दिया है। उसे भारतीय भाषाओं में लिखते हुए मुश्किलें आ रही हैं, वह अपनी कापियां अंग्रेजी में लिखता है, संवाद हिंग्लिश में करता है। इसे रोकना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। अभिभावक अपने बच्चे की खराब हिंदी पर गौरवान्वित और गलत अंग्रेजी पर दुखी हैं। हिंदी का यही आकाश है और हिंदी की यही दुनिया है। हिंदी की चुनौतियां दरअसल वैसी ही हैं जैसी कभी संस्कृत के सामने थीं। चालीस वर्ष की आयु के बाद लोग गीता पढ़ रहे थे, संस्कृत के मूल पाठ को सीखने की कोशिशें कर रहे थे। अंततः संस्कृत लोकजीवन से निर्वासित सी हो गयी और देश देखता रह गया।

आज हमारी बोलियों ने एक-एक कर दम तोड़ना शुरू कर दिया है। वे खत्म हो रही है और अपने साथ-साथ हजारों हजार शब्द और अभिव्यक्तियां समाप्त हो रही हैं। कितने लोकगीत, लोकाचार और लोककथाएं विस्मृति के आकाश में विलीन हो रही हैं। बोलियों के बाद क्या भाषाओं का नंबर नहीं आएगा, इस पर भी सोचिए। वे ताकतें जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहती हैं, एक से वस्त्र पहनाना चाहती हैं,एक से विचारों, आदतों और भाषा से जोड़ना चाहती हैं, वे साधारण नहीं हैं। कपड़े, खान-पान, रहन-सहन, केश विन्यास से लेकर रसोई और घरों के इंटीरियर तक बदल गए हैं। भाषा कब तक और किसे बाँधेगी? समय लग सकता है, पर सावधान तो होना ही होगा। आज भी महानगरीय जीवन में अच्छी हिंदी बोलने वाले को भौंचक होकर देखा जा रहा है, उसकी तारीफ की जा रही है कि “आपकी हिंदी बहुत अच्छी है।” वहीं शेष भारत के संवाद की शुरूआत “मेरी हिंदी थोड़ी वीक है” कहकर हो रही है। दोनों तरह के भारत आमने-सामने हैं। जीत किसकी होगी, तय नहीं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

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