सोचना होगा बिन भूजल, कैसा होगा कल

कुलभूषण उपमन्यु

हाल ही में दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन को जलविहीन घोषित किया गया है। प्रकृति का यह बदला रूप सारी दुनिया के लिए भयावह संदेश है। जलवायु परिवर्तन के दौर में पूरी दुनिया में जल आपूर्ति अपने आप में एक चुनौती के रूप में उभरती दिख रही है। पृथ्वी का 71 प्रतिशत हिस्सा पानी से ढका हुआ है। कुल उपलब्ध जल का 97 प्रतिशत भाग सागरों में है, जो खारा है। केवल तीन प्रतिशत जल ही प्रयोग के योग्य है, जिसमें 2.4 प्रतिशत ग्लेशियरों में है। केवल 0.6 प्रतिशत जल ही नदियों, झीलों आदि में है। पृथ्वी पर कुल 32 करोड़, 60 लाख खरब गैलन पानी है। सागरों से पानी भाप बन कर बादलों के रूप में बरसता है। उसमें से कुछ ही ग्लेशियरों और बर्फ, नदी जल, भूजल के रूप में धरती पर रुक जाता है, बाकी बह कर फिर समुद्र में चला जाता है। जो पानी धरती पर रुक गया, वही हमारे उपयोग के योग्य बचता है। जलवायु परिवर्तन से जमीन पर गर्मी बढ़ रही है और इससे ग्लेशियर और बर्फ के रूप में रुकने वाला जल ग्लेशियर और बर्फ के पिघलने की गति बढ़ने के कारण घटता जा रहा है।

ग्लेशियर पिघलने की दर तेज होने से आकलन के मुताबिक 2050 तक हिमालय के ग्लेशियर लगभग समाप्त हो जाएंगे,।इससे भूजल पर निर्भरता बढ़ेगी। भूजल का दोहन बढ़ा तो समूची दुनिया को गंभीर संकट का सामना करना पड़ेगा। इस समय देश में 61.6 प्रतिशत भूमि सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भर है, केवल 24.5 प्रतिशत ही नहरों से सिंचित है। शेष पर अन्य पारंपरिक साधनों से सिंचाई होती है। हाल यह है कि देश के लगभग एक तिहाई जिलों में स्थाई भूजल भंडार भी समाप्त हो गए हैं। इसलिए हमें उतना ही भूजल निकालना चाहिए जितना हर वर्ष पुनर्भरण से इकठ्ठा होता है। इस आसन्न संकट को देख कर ही हमें भूजल विकास कार्यक्रम बनाने चाहिए और उनका अनुश्रवण करना चाहिए।

भूजल के मामले में एक तो हमारे पास वर्तमान तकनीकों से मेल खाने वाले कानूनों का भी अभाव था दूसरे व्यवस्थित अनुश्रवण व्यवस्था भी नहीं थी। 2005 के कानून ने इस कमी को कुछ हद तक पूरा किया है। उससे पहले 1882 का एक कानून था जिसके अनुसार कोई भी अपनी जमीन के नीचे से भूजल दोहन कर सकता था। जाहिर है उस समय ऊर्जा चालित गहरे कुआं बनाने की तो कोई सुविधा ही उपलब्ध नहीं थी। लोग रेहट, कुओं आदि से भूजल दोहन करते थे, जिससे भूजल स्तर पर कोई प्रभाव पड़ने की संभावना ही नहीं रहती थी। आज जब एक डेढ़ हजार फुट नीचे तक से भूजल का निकास संभव हो गया है तो सोचना जरूरी हो गया है।

भूगर्भ विज्ञान के विकास के साथ हमें पता चल गया है कि भूजल भंडार तो मीलों तक आपस में जुड़े हो सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भूजल को निजी भूमि से जुड़े व्यक्तिगत अधिकार के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती। भूजल सामुदायिक संसाधन है। इसलिए सामुदायिक हितों के दृष्टिगत ही इसका प्रबंधन होना चाहिए। वर्तमान कानून में इस दिशा में रास्ता बना है किन्तु मौके पर कानून के प्रावधानों को लागू करने की लचर व्यवस्था से काम चलने वाला नहीं है।

हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में इसे समझते हैं। हिमाचल में दोहन योग्य भूजल 0.97 बिलियन घन मीटर वार्षिक है, जिसमें से 0.36 बिलियन घन मीटर ही निकाला जा रहा है। 2019 तक प्रदेश में 39085 हैंड पंप जलशक्ति विभाग द्वारा लगाए गए हैं और 8000 सिंचाई कुओं का निर्माण किया गया है। किन्तु यह आंकड़ा विश्वसनीय बिलकुल भी नहीं है, क्योंकि बिना मंजूरी और पंजीकरण के कितने हैंडपंप और सिंचाई कुआं हैं इसकी कोई जानकारी किसी के पास नहीं है। नियमों का उल्लंघन करके ट्यूबवेल लगाने के लिए पांच साल जेल और 10 लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान 2005 के कानून में था। इसे संशोधित करके जेल की सजा को हटा दिया गया है। यह अच्छा कदम है। किन्तु जुर्माने के साथ अवैध लगाए गए भूजल दोहन संयंत्रों को बंद करवाने का प्रावधान होना चाहिए।

गैर पंजीकृत ठेकेदारों की चर्चा भी जरूरी है। 2019 में नए बोर करने पर अगले आदेशों तक प्रतिबंध लगा था, किंतु इसके बाबजूद बोर लगाने का काम ऐसे ही लोगों द्वारा चलता रहा। घटते भूजल स्तर से भटियात तहसील में लगे 50 प्रतिशत से ज्यादा हैंडपंप सूखे पड़े हैं। अन्य जगहों में भी ऐसा है। अति दोहन से कई जगह प्राकृतिक जलस्रोत सूख गए हैं। इसका असर छोटे नदी-नालों के जलस्तर पर भी पड़ेगा। यह भी समझ से परे है कि 2017 में कांगड़ा का इंदौरा, सिरमौर का काला अंब, सोलन का नालागढ़ और ऊना क्षेत्र में भूजल दोहन स्तर पुनर्भरण क्षमता से ज्यादा था। 2020 के बाद के आकलन में इन क्षेत्रों को भी सुरक्षित घोषित किया गया है। जब कि उसके बाद दोहन का स्तर तो बढ़ता ही गया है। आशा की जानी चाहिए कि सरकार इस दिशा में गंभीर पहल करेगी।

(लेखक, पर्यावरणविद् हैं।)

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