व्याधियां जिनसे हम ग्रस्त हैं …
लालजी शुक्ला
संपूर्ण व्याधियों का मूल कारण मोह। “मोह सकल व्याधिन कर मूला।“ मनुष्य के विजातीय शत्रु काम क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर इत्यादि हैं। इन्हीं से युद्ध करना है। ये ही वास्तविक शत्रु हैं। भगवान ने माया रची है और मनुष्य उस मायाजाल में फंसा हुआ है। इस दुनिया में जितनी भी वस्तुएं हैं सारी अस्थायी हैं। माया महाठगिनी है। कोई पुत्र मोह में, कोई धन के मोह में, कोई सुंदरता के मोह में फंसा है। सब जानते हैं अंत समय में न पुत्र न जमीन न मकान न दुकान न सगे सम्बन्धी न धन दौलत साथ चलते हैं। अंतिम सत्य तो केवल मृत्यु है। फिर भी हम मोहमाया में अंधे हो रहे हैं। दुखी हो रहे हैं। दूसरों के सुख को देखकर दुखी होते हैं। मोह माया स्वार्थ व अहंकार व्यक्ति को दुख की ओर ले जाते हैं। मोह माया में कुछ दिन के लिए सुख आता है लेकिन पूरी जिंदगी दुख में डूब जाती है। सुख शांति से जीना है और शरीर का कल्याण करना है। माया मोह में उलझा व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि मनुष्य को मोहमाया से दूर रहना चाहिए क्योंकि जब मनुष्य मोह माया में फंसता है तो उसका मन विचलित हो जाता है। हम जिसे नहीं चाहते वह भी अपना लगने लग जाता है। धीरे-धीरे प्रेम इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि हम उसे छोड़ नहीं पाते। सृष्टि के निर्माता ने मनुष्य को निर्विकारी सरल और संतुष्ट जीवन यापन करने हेतु उत्पन्न किया, परन्तु संसार सागर में वह मोह माया में उलझ कर रह जाता है। उसकी आँखों पर मोह माया का आवरण चढ़ जाता है।
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जब व्यक्ति देह से प्राप्त सुख को सुख मान लेता है तभी दुख होता है। प्रेम और मोह में बहुत अंतर है। व्यक्तियों व वस्तुओं के प्रति इतनी आसक्ति हो जाये कि उन्हें पाने के लिए व्यक्ति कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाये। सारी मर्यादाओं को पार कर जाए तो समझिए ये ही माया का बंधन है। ये ही मोह है। प्रिय वस्तु व प्रिय व्यक्ति को न छोड़ पाना ही मोह है। हमें सब प्रकार की इच्छा का त्याग कर एक परमात्मा की प्राप्ति के लिए निस्वार्थ भाव से ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। नहीं तो मोह रूपी दलदल का तो कोई अंत नहीं है। इस दलदल से कोई बाहर नहीं निकल सकता। कबीर ने कहा था कि जैसे पंख होते हुए भी चतुर तोता पिंजरे में फंस जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी मोह माया के चक्र में फंसा रहता है। जबकि उसकी बुद्धि में ये बात पहले से ही विद्यमान है कि ये संसार मिथ्या है। कृष्ण रूपी परमात्मा को पाने के लिए जब सुदामा रूपी जीवात्मा बेचैन हो जाती है तो उसे मोक्ष मिल ही जाता है। स्वयं के मूल का बोध हो जाना ही माया से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। जिस क्षण इसका बोध हो गया उसी क्षण जन्म माया मोह से मुक्त हो जाता है। महाभारत में धृतराष्ट्र पुत्र मोह में अंधा हो गया। उसके पुत्रों ने अधर्म की राह पकड़ ली। दुशासन ने चीर हरण किया। भगवान को लाज बचानी पड़ी। इतिहास गवाह है कि विजय धर्म की हुई। अधर्म पर अग्रसर व्यक्ति हमेशा हारा है।
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राम चरित मानस के बालकाण्ड में लिखा है जासु सत्यता ते जड़ माया। माया जड़ है। जब कुल्हाड़ी से जड़ पर प्रहार करते है तभी कुल्हाड़ी लकड़ी काटती है। वैसे ही माया भगवान की शक्ति पाकर कार्य करती है। यह संसार माया से बना है। कण-कण में भगवान हैं तो भगवान माया के साथ भी है। माया दो प्रकार की होती है-जीव माया गुण माया। जीव माया को अपरा या अविद्या माया भी कहते हैं। गीता में भगवान ने कहा कि आठ भेदों वाली अपरा माया है। ये आठ भेद हैं पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार। दूसरी है गुण माया। इससे पार पाना बड़ा कठिन है। भगवान कहते है कि शरणागति ही इससे छूटने का उपाय है। गुण माया भगवान की शक्ति है। काम क्रोध मोह लोभ मद घृणा मत्सर ईर्ष्या भय यह योग माया के कारण मनुष्य पर हावी रहते हैं। गुण माया व योग माया एक ही है। जो कुछ हम् स्पर्श करते हैं सुनते हैं सोचते हैं बोलते हैं देखते हैं सब माया है। स्वर्गलोक मृत्युलोक नरकलोक ये सब माया के बनाए हुए हैं। माया का अर्थ है जादू। माया जा अर्थ हुआ जहाँ नहीं है कुछ वहाँ कुछ दिखाई पड़ जाना। आभास मात्र होता है। हम आभास का रोज रोज पोषण करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति सफलता को प्राप्त करना चाहता है और पूरे मन से प्राप्त करना चाहता है लेकिन वह असफल हो जाते हैं असफलता का कारण है मोह माया। जो व्यक्ति इन पर विजय प्राप्त कर लेता है सफलता उसके कदम चूमती है। लेकिन मोहमाया से ग्रसित व्यक्ति कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। सत्य ही कहा गया है :
मन ही मनोरथ छांड़ि दे, तेरा किया न होई…
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई…..
जय प्रभु श्री राम।
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे हैं।)
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