वर तलाशने लगे अब वधू को!

के. विक्रम राव

काफी अरसे के बाद एक मनभावन खबर पढ़ने को मिली। सोलापुर (महाराष्ट्र) की घटना है। सैकड़ों युवाओं ने जिलाधिकारी को मांग पत्र पेश किया। जुलूस का मुद्दा था “शादी करा दो।” दुल्हन के लिए गुहार लगा रहे थे। भारत में पुत्र मोह के कारण लैंगिक अनुपात अनुपात घटा है। बहुयें नहीं मिलती हैं। कभी बहुतायत में हुआ करती थीं। अब बहुत ही उम्दा बात हुई है, मेरी नजर में। क्योंकि दशकों से मैं रिपोर्टिंग करता रहा कि कैसे विविध हथकंडे खोजकर, अपनाकर दंपत्ति कन्या-भ्रूण हत्या करते रहे। पाप करने की इससे ज्यादा निकृष्ट रीति नहीं हो सकती। एक कविता पढ़ी थी जिसमें गर्भस्थ बेटी जननी से विनती कर रही है, “मां मुझे दुनिया में आने दो।” मर्म को छू गई। इस पर भी जिसका दिल न पसीजे, वह किसी पशु योनि का होगा। मानव तो कतई नहीं। हरियाणा और राजस्थान की तो वारदातें जघन्य होती रहीं। खाट के पाये तले शिशु का सर कुचल दिया जाता था। या बालू में गाड़ कर। नतीजन दूसरे प्रदेश से और भिन्न जाति की युवतियों को वधू बनाकर आयात करना पड़ता था। गत जनगणना (2011) के अनुसार, हजार स्त्रियों की तुलना में 1020 पुरुष हो गए। पहली बार इस विशाल भारत में ऐसा हुआ है। अर्थात प्राक्कल्पित तौर पर यदि सारे पुरुष शादी करने को तैयार हो जाएं तो वे पत्नियां नहीं पाएंगे। यही स्थिति महाराष्ट्र में आजकल सजी है। ऐसी बेहतरीन स्थिति लाने की आधारभूत वजह “बेटी बचाओ” वाले मोदी सरकार के अभियान का ही परिणाम है। यूं भी विश्व के हर सभ्य राष्ट्र का मौलिक नियम रहा है कि वहां महिलाओं की संख्या अधिक हो। संस्कृत की शास्त्रोक्त राय भी है, “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते”!
यहां गुजरात और केरल का उदाहरण सम्यक दिखता है, समीचीन भी। इन राज्यों में गांधी जी के समय से ही अभी तक हर जन आंदोलन अत्यंत सफल रहा क्योंकि महिलायें उनमें भागीदार अधिक रहीं। केरल में तो सूरज ढलने के बाद भी सड़कों पर महिलाएं दिखती हैं। निडर और निरापद। कहीं भी किसी भी प्रदेश के अस्पताल में जाइए, बहुलांश नर्सेज मलयाली बोलती मिलेंगी। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने वेदमंत्र रचा था कि बिना कन्यादान किए किसी को स्वर्ग नहीं प्राप्त होगा। एकदा लखनऊ के लोहिया पार्क में (23 मार्च 2012) में महान सोशलिस्ट पुरोधा (लोहिया) की जयंती हम मना रहे थे। मुलायम सिंह और उनके मुख्यमंत्री-पुत्र अखिलेश यादव के साथ मैं भी मंच पर था। भीड़ हजारों की थी। उद्बोधन में मेरा कहना था, “मुलायम सिंह जी, आपको तो इस मृत्युलोक पर दोबारा जन्म लेना पड़ेगा, कन्यादान हेतु, क्योंकि आपकी कोई पुत्री तो है नहीं। आपके बेटे तो दो बेटियों के पिता हैं। उन्हे मोक्ष सुलभ होगा। कन्यादान के कारण!’ यादव-द्वय मंचासीन थे। मेरा मतलब यही कि जो अविवाहित रह गये, उनका राष्ट्र कल्याण में सतही योगदान सिर्फ नामभर का रहेगा। कुछ अपवाद है जैसे अटल बिहारी वाजपेई। वे स्वयं को केवल कुंवारा कहते थे, ब्रह्मचारी नहीं। उनसे एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में महिला रिपोर्टर ने पूछा था, “अटल जी आप अभी तक अविवाहित क्यों हैं?’ सीधा उत्तर देने के बजाय इस पूर्व प्रधानमंत्री ने सवाल के जवाब में सवाल किया, “देवी जी, आपका यह प्रश्न है, अथवा प्रस्ताव?’ स्त्री-समर्थक लोहिया सरीखे लोगों हेतु पाणिग्रहण संस्कार, जो आधार है कन्या का पिता बनने का, बहुत असमंजस जन्माने वाला कारक रहा।
फ्रांस में एक काबीना मंत्री थे। अधेड़ थे, अविवाहित भी। एक रिपोर्टर ने उनके कुंवारेपन का कारण जानना चाहा। मंत्री महोदय बोले, “आदर्श पत्नी की खोज में आजीवन लगा रहा मैं। जब मिली, तो वह भी आदर्श पति की तलाश कर रही थी।” मगर विवाह सदैव माफिक फलदायक हो, यह कोई जरूरी नहीं होता है। एक बार विख्यात आइरिश गद्यकार, लंबी दाढ़ीवाले, तिरछी शकल वाले, जॉर्ज बर्नार्ड शा से ब्रिटेन के किसी लावण्यमयी फिल्मी अभिनेत्री ने निवेदन किया, “क्यों न आप मुझसे विवाह कर लें? जो संतान होगी वह आपके सदृश्य मेधावी और बुद्धिमान होगी तथा मेरी सरीखी रूपवान भी!” सीधे मना करने के बजाय बर्नार्ड शा ने पूछा, “यदि ठीक विपरीत हो गया तो?’ कुछ उदाहरण मिले हैं कि आधी उम्र बीतने के बाद भी लोग अकेले रह गए। मुरझायी भिण्डी की भांति। शादी की दौड़ में पिछड़ गए। मसलन किसी अकेले अधेड़ की मां ने शर्त रखी थी कि बहू का चेहरा उसके आधार कार्ड में भी सुंदर ही हो।” फलस्वरूप वह आजीवन कुंवारा ही रहा। कहीं पिता-पुत्र का संवाद पढ़ा था। बहू का चेहरा देखने के इच्छुक बेटे से पिता ने पूछा कि “क्यों विवाह नहीं करना चाहते हो?” बेटे ने कारण बताया कि वह नारी से ही डरता है। पिता ने उपाय सुझाया, “शादी कर लो, तब एक ही महिला से डर लगेगा। शेष सारी भाएंगी।” अब महाराष्ट्र के इन प्रदर्शनकारी कुंवारों को अपनी नियति पर भी भरोसा रखना चाहिए क्योंकि सारा कुछ ग्रहों की चाल पर निर्भर करता हैं। एक किस्सा पढ़ा था। सच था। स्वप्ननगरी मुंबई में एक बेरोजगार, अविवाहित युवक जुहू सागर तट के बालू पर लेटा था। सपनों में खोया। तभी एक अखबार का टुकड़ा हवा के झोंके से उड़ता उसके माथे पर आ गिरा। शायद भेलपुरी खाकर किसी ने फेंका था। समाचार पत्र का द्वितीय पृष्ठ वाला, “आवश्यकता है” कालम का, नौकरीवाला विज्ञापन था। कोई “वॉक-इन” इंटरव्यू का। दूसरे दिन वह उस कार्यालय पहुंचा। अर्हतायें ठीक थी, काम मिल गया। वहीं एक कार्यरत युवती से परिचय भी हुआ। प्रगाढ़ता बढ़ी। शादी कर ली। परिवार बस गया। अगर उस शाम वह अखबारी टुकड़ा हवा के झोंके से कहीं दूसरी दिशा में उड़ जाता तो? इतिहास और भूगोल दोनों भिन्न होते। अतः विवाह भी एक प्रकरण है, बल्कि संयोग। पांच सदियों पूर्व गोस्वामी जी लिख गए थे, “होइहि सोइ जो राम रचि राखा।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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