लीक पर चले वाजपेयी

के. विक्रम राव

प्रधानमंत्री, उससे पहले विदेश मंत्री रहे, अटल बिहारी वाजपेयी की परराष्ट्र नीति का सम्यक तथा संतुलित विश्लेषण और विन्यास करने के पूर्व उनके पहलुओं, दोनों अनुलोम और विलोम, पर गौर कर लें। अतः सोनिया-कांग्रेस विदेश नीति के निष्णात, विदेश सेवा में सरकारी अमला रहे, लाहौर में जन्मे वैद्यनाथ मणिशंकर अय्यर द्वारा अटलजी की विदेश नीति पर नकारात्मक टिप्पणी को जान लें। यह जरूरी इसलिये भी है कि आजाद भारत के प्रथम विदेश मंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा दृढ़ता से स्थापित मानदण्डों तथा कसौटी पर ही हर विदेश मंत्री परखना पड़ेगा या कसना होगा। मसलन दक्षिण एशियाई (पड़ोसी खासकर पाकिस्तान और चीन), फिर अंतर्महाद्वीपीय राष्ट्रों से रिश्ते-नातों का संदर्भ लेना पड़ेगा। अटलजी के आदर्श रहे जवाहरलाल नेहरू शांतिदूत ज्यादा दिखना चाहते रहे। अटलजी पर इन्हीं नेहरू की नीतियों का दबाव रहा, प्रभाव भी। मणिशंकर अय्यर जो अपने गरूर, अमर्यादित विशेषणों और दुरूह वाचाली कठोरता के लिये ख्यात हैं, ने एक लेख में कहा किः ‘अटलजी विफल विदेश मंत्री रहे क्योंकि वे केवल कवि थे। अनुभवी राजनीतिज्ञ नहीं। उनकी केवल उपलब्धि रही कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में तकरीर की थी।‘ दो दशक से भारत-चीन संबंध ठण्डे थे, उन्हें सजीव करने अटलजी 1977 में चीन गये किन्तु अगले जहाज से भारत लौट आये क्योंकि तब तक चीन ने पड़ोसी वियतनाम पर हमला कर दिया था‘ (इण्डियन एक्सप्रेसः 24 जुलाई 2002)। और इसी किस्म के अमर्यादित क्षेपक अय्यर करते रहें। अतः इसी परिवेश में भारत की विदेश नीति का विहंगावलोकन करते जायें तो जाहिर है कि अडियल पड़ोसी इस्लामी पाकिस्तान को अपवाद मान लें तो अटलजी की विदेश नीति में कौशल से हासिल उपलब्धियां कम कतई नहीं होंगी। यदि कहीं कामयाबी नहीं मिली और आलोचना हुयी तो वह परिस्थितियों की जटिलता के कारण, न कि इच्छा शक्ति के अभाव में। चूंकि विषय का वितान विशाल है, अतः मुख्तसर में खास पहलुओं पर ध्यान दें। सबसे प्रथम है भारत का इस्राइल से आत्मीय संबंधों का बनना। इसका कारण यहीं है कि अभी तक विशाल वोट बैंक के खातिर भारतीय मुसलमानों के भय से हर राजनीतिक दल इस यहूदी राष्ट्र से कन्नी काटते रहे। याद कीजिये जब मोरारजी देसाई का बचाव में उत्तर आया था कि वे इस्राइल के विदेश मंत्री मोशे दयान से रात के अंधेरे में सिरी फोर्ट के गुमनाम इलाके में ही क्यों मिले थे? अटलजी भी साथ थे। जनता पार्टी के प्रधानमंत्री ने कहाः ‘मेरी सरकार गिर जाती यदि इन इस्राइलियों से खुले मैं भेंट करता तो।‘ यूं इस्राइल से मधुर तथा कूटनीतिक संबंधों की अनिवार्यता की अटलजी, भाजपा तथा संघ परिवार प्रारम्भ से ही पक्षधर रहा। मगर मिली जुली सरकार की बाध्यता सबसे बड़ी अड़चन रही। अतः ज्यों ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बहुमतवाली काबीना बनी, अटलजी ने तत्काल इस्राइल से सामीप्य बढ़ाया। यूं पीवी नरसिम्हा राव ने इन रिश्तों को अंकुरित कर दिया था। अटलजी ने कई मुद्दों पर अपने गुरू पीवी नरसिम्हा राव की भावनाओं के मुताबिक पर ही कदम उठाया। एक ऐसा ही महत्वपूर्ण बिन्दु था परमाणु शस्त्र वाला। नरसिम्हा राव ने पोखरण द्वितीय की तैयारी कर ली थी, पर ऐन वक्त पर अमेरिका को पता चल गया। बात रह गयी। अटक गयी। उत्तरदायित्व आन पड़ी अटलजी पर। तब हुआ पोखरण द्वितीय सफलतापूर्वक। इस परिप्रेक्ष्य में वह घटना याद आती है। लोकसभा में अपदस्थ प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने जब कागजी स्लिप में परमाणु परीक्षण वाला उल्लेख कर उत्तराधिकारी (प्रधानमंत्री) को दिया था। चेतावनी थी। यहां इस राजग प्रधानमंत्री की श्लाधा करनी होगी कि महाशक्तियों के आतंक के बावजूद अटलजी ने पोखरण द्वितीय कर ही डाला।
भले ही कांग्रेसी आलोचना करें, पर अटलजी के सशक्त राष्ट्र के स्वप्न के सामने बाकी सारी धमकियां नगण्य थीं। इतना तो मानना होगा कि शांतिप्रियता के मसले पर अटलजी अद्वितीय रहे। पूर्णतया अटल रहे। लाहौर बस यात्रा इसी प्रवृत्ति और कामना का प्रतिफल है। पर इस्लामी प्रधानमंत्री मियां नवाज शरीफ तक को नहीं पता था कि उनके सेनापति जनरल मोहम्मद परवेज मुशर्रफ भारत-पाकिस्तान मैत्री बस को उलटाने में ओवरटाइम कर रहे थे। और किया भी। दिल्ली लौटते ही एक प्रधानमंत्री ने दूसरे से शिकायत की क्यों की? कैसे पलटा यह दोस्ती का मामला? फिर तब दौर और चला। परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को बाद में जेल में डाल दिया था। आगरा में अटल-शरीफ बैठक भी कश्मीर के मसले पर टूटी। हालांकि अटलजी चाहते थे कि सीमापार आतंक का हल निकले। नहीं हुआ। मुशर्रफ ने व्यंग के लहजे में कहा भी कि यदि वे स्वयं अटलजी से सहमत हो गये तो उन्हें वापस अपने पैतृक बंगले, नहरवाली गली, दरियागंज, आना पड़ेगा, जिसे छोड़कर वे पाकिस्तान गये थे। हालांकि मुशर्रफ प्रथम पाकिस्तानी पुरोधा थे जो राजघाट पर बापू को श्रद्धासुमन अर्पित कर आगरा गये थे, वार्ता हेतु। अटलजी की विदेश नीति का एक उल्लेखनीय पक्ष यह भी रहा कि उन्होंने तिब्बत को चीन का भूभाग मान लिया। ऐवज में कम्युनिस्ट चीन ने हिमालयी सिक्किम को भारतीय प्रदेश माना। हालांकि माओ जेडोंग की मान्यता रही सिक्किम चीन की तर्जनी (उंगली) है। तिब्बत तो हथेली और भूटान, अरूणाचल, लद्दाख और नेपाल को बाकी चार कटी उंगलियां हैं। कुछ यादें ताजा कर लें। अटल जी ने 2004 में एक नया अध्याय लिखने का प्रयास किया था। पर जनरल कमर बाजवा ही असली शक्ति थे, सिहांसन के पीछे। बात नहीं बनी। अंजाम में फिर पुलवामा हुआ। प्रतिफल में बालाकोट पर हमला। मोदी राज में ही हुआ। पर शुरूआत अटलजी के समय से ही हो गयी थी।
अपनी विदेश नीति की रचना और अनुपालन में अटलजी आधे ही आत्मनिर्णायक रहे। काफी हद तक अपने आदर्श जवाहरलाल नेहरू के विचारों तथा व्यवहार का अनुपालन रहे। उदाहराणार्थ परमपावन दलाई लामा के प्रश्न पर अटलजी चीन से दुराव पालना अथवा मुकाबला या तीव्र टकराव नहीं चाहते थे। शायद इसी का परिणाम था कि तिब्बत पर वे चीन के हिमायती हो गये। विडंबना है कि तिब्बत पर कोई भारतीय अटलजी के नजरिये से सहमत कभी नहीं था। स्वयं उनकी पार्टी भी। डा. राममनोहर लोहिया तो 1949 से पुकारते रहे कि कैलाश के शिव तो भारत के है। तिब्बत को कैसे भारत चीन को दे दे। शायद अटलजी व्यवहारिक हो गये थे। उस दौर में अटलजी नेता प्रतिपक्ष थे जब सोवियत रूस ने अफगानिस्तान को अपना उपनिवेश बनाना चाहा था। उन्होंने भविष्यवाणी भी की थी किः ‘अफगानिस्तान सोवियत रूस के लिये वियतनाम जैसा हो जायेगा जिसे अमेरिका को छोड़ना पड़ेगा।‘ हुआ भी ठीक ऐसा ही अंततः। सागरपार श्रीलंका पर अटलजी बड़े संवेदनशील रहे। बौद्ध धर्म के प्रेमी होने के कारण। और शायद हजारों तमिलभाषियों के उत्तरी भूभाग में सदियों से बसे रहने के कारण। एक और विवशता थी। उनकी राजग सरकार को जयललिता की अन्नाद्रामुक का लोकसभा में समर्थन प्राप्त था। तमिलभाषीजनता भारत सरकार की विदेश नीति श्रीलंका के मामले में काफी प्रभावित करती रही। ऐसा हुआ भी। अटलजी की सरकार गिरी भी तो जयललिता के कारण। इस परिवेश में इतना तो निश्चयात्मक तौर पर कहा जा सकता है कि अटलजी की विदेश नीति के कमजोर पक्षों को नरेन्द्र मोदी ने सुधारा, पुख्ता कर दिया। इसमें लद्दाख, कश्मीर, श्रीलंका, मालद्वीप और इस्राइल शामिल है। आखिर मोदी दोहराते रहे कि वे अटलजी का सपना पूरा करना चाहते हैं। कितने कारगार होंगे यह तो वक्त बतायेंगा। खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व आईएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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